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एक आदमी रोज़ मंदिर जाता था और कई घंटे पूजा करता और भगवान से कहता हे प्रभु मेरे दुख कम कब होंगे, मैं तो रोज़ तेरी पूजा करता हूँ। फिर भी इतने दुख भोगता हूँ और
वहीं अन्य लोग जो तेरी कभी पूजा नही करते, फिर भी उन्हे किसी तरह की कोई कमी नही वो सदा ही खुशहाल रहते हैं ऐसा क्यूँ ? ऐसा तो बिल्कुल नही होना चाहिए?
इस तरह वह निरंतर संताप व अवसादग्रस्त रहता और कुढता रहता।
इस तरह व्यतीत करते उस मनुष्य का बुढ़ापा आ गया और एक दिन जब वो फिर घर से
मंदिर के लिए निकला तो फिर से दूसरों को सुखी देखके अवसादग्रस्त होके दुखी हो गया।
उसने ठान लिया कि आज वो पता लगाएगा की भगवान हैं भी की नही क्यूंकी यदि होते तो उसकी प्रार्थना अवश्य सुनते।
ये सोचते हुए वो मंदिर जाने वाले हर आदमी से घुमा फिरा कर एक ही बात पूछने लगा की भैया तुम्हारा कोई मनोरथ पूरा हुआ क्या अभी तक।
आश्चर्यजनक रूप से उसे सबसे यही उत्तर मिला की वो भी इसी उम्मीद से आ रहे हैं की कभी ना कभी उनके मनोरथ पूरे होंगे।
अब उस व्यक्ति को लगने लगा की ये भगवान वगेरह झूठ है सिर्फ़ मंदिर के पुजारियों द्वारा मूर्ख बनाके पैसा बनाने का उपक्रम।
ऐसा विचार कर वो क्रोध मे भरने लगा और अपनी पूजन सामग्री वहीं छोड़ के मंदिर के पुजारियों से झगड़ा करने के लिए जाने लगा की तभी उसे एक और व्यक्ति दिखा जो नाचते गाते मंदिर मे जा रहा था और उसकी आखों से भी अश्रुधारा बह रही है।
उस व्यक्ति ने भक्ति मे डूबे व्यक्ति से भी अपना प्रश्न पूछना चाहा परंतु वो आनंद मे इतना डूबा था की कुछ देख ही ना पाया और आगे बढ़ गया।
उस व्यक्ति ने ये समझा कि लगता है अभी ये व्यक्ति ने नया नया मंदिर आना शुरू किया है लेकिन इसे भी एकदिन पता चलेगा जब इसकी कोई भी इक्च्छा पूर्ण नही होगी।
अब वो व्यक्ति नित्य आता परंतु मंदिर के द्वार से ही लौट जाता किंतु उस दूसरे व्यक्ति को अवश्य देखता जो प्रतिदिन उसी तरह भक्ति मे डूबकर मंदिर जाता और उसी भाँति भजन कीर्तन करते हुए लौटता।
ये सब देखकर अश्रद्धा से भरे उस व्यक्ति ने मंदिर द्वार तक जाना भी बंद कर दिया अब वो घर मे ही पड़ा रहता और अपने दुखों से अधिक दूसरों को सुखी देख देख के दुखी रहता।
एक दिन उसे सपने मे ऐसा लगा जैसे भगवान कह रहे हों कल उसके प्रश्नो का उत्तर मिलेगा।
सुबह उसे लगा की स्वप्न की बात भी कहीं सत्य होती है वो उस बात को भूल गया।
अचानक दिन मे उसे अपने द्वार पर भजन कीर्तन की ध्वनि सुनाई पड़ी उसने द्वार खोला तो उन्ही संत महाराज को देखा जो नित्य आनंद मे भरे मंदिर जाते थे।
उसके कुछ पूछने से पहले ही वो संत बोले, बंधु! मुझे भी कल स्वप्न आया की मुझे तुमसे मिलने आना है कहो क्या बात है?
अब उस व्यक्ति को अपने स्वप्न की बात सत्य लगने लगी और उसने तुरंत प्रश्न किया की मेरे दुख तो कुछ कम हुए नही। समस्त जीवन मैने भगवान की पूजा मे लगाया।
तब संत बोले और आपने यहाँ तक विचार कर डाला की भगवान होते भी हैं की नही।
अब वो व्यक्ति सकुचाया की इन्हे मेरी ये शंका कैसे ग्यात हुई।
संत ने फिर कहा, बंधु! भगवान तो हैं ही और उनकी सबसे बड़ी कृपा यही है की वो अपनी भक्ति देते हैं बस व्यक्ति एक बार भाव से उनका स्मरण करे।
परंतु आप उस भक्ति का आनंद इसलिए नही उठा पाए क्यूंकी आप सदैव सांसारिक दुखों मे ही डूबे रहे और मंदिर मे जाकर भी अपनी समस्याओं को ही ले जाते रहे स्वयं को मंदिर कभी ले ही नही गये। माला भी जपी तो सांसारिक कष्टों व मलिन मन की।
आप ही बताइए की परमात्मा का आनंद की अनुभूति कैसे हो सकती है आपको?
आपके कष्टों मे भी सबसे बड़ा कष्ट आपको दूसरों के सुखों से मिलता रहा जबकि स्वयं आपके जीवन मे तो सांसारिक दुख भी इतने नही थे।
क्या आपने कभी सोचा की भगवान को इस तरह का आडंबर देखके कितना कष्ट होता होगा?
वो तो नित्य ही सोचते थे की आज आप भाव से भरके आएँगे परंतु आपने उन्हे हमेशा उन्हे निराश किया।
वो तत्पर रहते थे की कभी जो आप उन्हे हृदय से पुकारें, अपने हृदय का द्वार खोलें तो वे आपके जीवन मे प्रविष्ट हों परंतु आपने तो कभी हृदय मे ये माना ही नही की भगवान हैं भी।
ये उस परमेश्वर की ही कृपा है जो फिर भी आपकी शंकाओं का समाधान कर रहे हैं और आपके जीवन को परमानंद से युक्त कर रहे हैं।
अब उस व्यक्ति का सिर संत के चरणो मे गिर पड़ा और पहली बार उसके जीवन मे उसे हृदय से रोना आया ये सोचके की प्रभु कितने दयालु हैं।
उसे ये बात सोचके भी दुख होने लगा की उसने इन संत के विषय मे भी क्या क्या ग़लत सोचा था।
वो बहुत देर तक संत के चरणो को पकड़े रहा और फिर संत के साथ भजन कीर्तन करने लगा और फिर कीर्तन करते करते मंदिर गया।
उस दिन के बाद उसका पूरा जीवन बदल गया।
अब वो नित्य भाव से भरके मंदिर जाने लगा भगवान की भक्ति के आनंद की आँधी मे उसके दुखों के तिनके कब उड़ गये उसे पता ही ना चला अब वो घर मे भी रहता तो उसे यही लगता की वो मंदिर मे ही है।
मित्रों, ये कहानी हमे यही सीख देती है की परमात्मा की भक्ति का आधार सांसारिक
सोच को नही बनाना चाहिए और भगवान के सामने छल नही करना चाहिए। असली भक्ति का सार यही है की व्यक्ति अपने दुखों मे भी प्रभु की कृपा देखे ना की प्रभु को उलाहना दे क्यूंकी हो सकता है प्रारब्धवश उसे और दुख मिलने थे परंतु प्रभु कृपा से कम हो गये।
भगवान की भक्ति का आनंद ही जीवन का सार है।

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