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: 🌹कर्मफल तो भोगना ही पड़ेगा 🌹🌹🌹
यदि ईश्वर कोई ऐसी व्यवस्था करता कि झूठ बोलते ही आदमी की जीभ में छाले पड़ जाते , चोरी करते ही हाथ में फोड़े हो जाते , बेईमानी करने से बुखार आ जाता , किसी पर कुदृष्टि डालते ही आंखें दु:खने लगतीं , कुविचार आते ही सिरदर्द हो जाता तो शायद किसी के लिए भी दुष्कर्म करना संभव न होता। लोग जब उससे लाभ की अपेक्षा हानि देखते तो दुष्कर्म करने की हिम्मत स्वयं न करते। लेकिन ईश्वर ने ऐसा न करके , मनुष्य के भीतर छुपी मानवता की हत्या होने से रोका। दंड भय से तो विवेक रहित पशु को भी अवांछनीय मार्ग पर चलने से रोका जा सकता है। लाठी के बल पर भेड़ों को इस या उस रास्ते पर चलाने में गड़रिया सफल रहता है। सभी जानवर इसी प्रकार दंड-भय दिखाकर अमुक प्रकार से जाते जाते हैं। यदि हर काम का तुरंत दंड मिलता और ईश्वर बलपूर्वक अमुक मार्ग पर चलने के लिए विवश करता , तो फिर मनुष्य भी पशुओं की श्रेणी में आता , उसकी स्वतंत्र आत्मचेतना विकसित हुई या नहीं , इसका पता ही नहीं चलता। भगवान ने मनुष्य को भले या बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता इसलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अंतर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने एवं सत्परिणामों का आनंद लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो। इस आत्मविकास पर ही जीवनोद्देश्य की पूर्ति और मनुष्य जन्म की सफलता अवलम्बित है। इसके बावजूद उसने कर्मफल दंड विधान की व्यवस्था कदम-कदम पर बना भी रखी है। यों समाज में भी कर्मफल मिलने की व्यवस्था है और सरकार द्वारा भी उसके लिए साधन जुटाए गए हैं। पुलिस , जेल- ऐसे प्रबंध किए गए हैं कि अनाचार करने वालों को रोका और दंडित किया जा सके। समाज में कुकर्मियों का तिरस्कार और अविश्वास भी होता है , लोग उनका सहयोग , समर्थन नहीं करते और संपर्क बनाने से बचते हैं। झंझट मोल न लेने की कायरता से डरकर कोई प्रत्यक्ष विरोध कर संघर्ष न करे , चुप भले ही बैठा रहे , पर अनैतिक व्यक्ति को सच्चे मन से प्यार कोई नहीं कर सकता। व्यभिचारी भी अपने घर में दूसरे व्यभिचारी का और चोर भी अपने घर में दूसरे चोर का प्रवेश नहीं होते देता , क्योंकि वह उसे अविश्वस्त मानता है। भीतर ही भीतर घृणा करता है और चाहता है कि वह सांप , बिच्छू की तरह अलग ही बना रहे। कुकर्मी थोड़े से साधन भर इकट्ठे कर सकते हैं और उनसे यत्किंचित शरीर एवं इंद्रियों का क्षणिक सुख भोग सकते हैं , पर सामाजिक प्रणाली होने के नाते जिस श्रद्धा , सम्मान , प्यार और सहयोग की उन्हें भारी भूख और आवश्यकता रहती है , वह उन्हें सदा अप्राप्त ही रहता है। सामाजिक असहयोग और तिरस्कार एक ऐसा दंड है जो अप्रत्यक्ष होते हुए भी मनुष्य को घर में रहने वाले भूत पिशाच की तरह उद्विग्न और संत्रस्त रखता है। यह स्थिति कम कष्टकारक नहीं है। इससे भी बढ़कर एक और दंड व्यवस्था आत्मप्रताड़ना है। पापी मनुष्य एक क्षण के लिए भी शांति अनुभव नहीं कर सकता। भीतर की प्रताड़ना बाहरी दंडों से अधिक हानिकारक होती है। उसके कारण व्यक्ति निरंतर दुर्बल , उद्विग्न , एकाकी , नीरस और विक्षिप्त बनता चला जाता है। व्यक्तित्व को हेय , पतित और अस्त-व्यस्त बनाने में आत्मग्लानि का सबसे बड़ा योगदान होता है। इन तीनों से परिवर्तन की अनुकूलता नहीं दिखी तो ईश्वर का सीधे हस्तक्षेप होता है। आज नहीं तो कल उसकी व्यवस्था के अनुसार कर्मफल मिलकर ही रहेगा। देर हो सकती है , अंधेर नहीं। सरकार और समाज से पाप को छिपा लेने पर भी आत्मा और परमात्मा से उसे छुपाया नहीं जा सकता। इस जन्म या अगले जन्म में हर बुरे-भले कर्म का प्रतिफल निश्चित रूप से भोगना पड़ता है। ईश्वरीय कठोर व्यवस्था उचित न्याय और उचित कर्मफल के आधार पर ही बनी हुई है। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है जो आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्त्तव्य व धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक उनका पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं। जो दंड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना मनुष्यता का गौरव समझता है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है , समझना चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की ओर बढ़ने का शुभारंभ कर दिया🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
🥜गरुड़ पुराण के अनुसार बुरे कर्म करने वालों को नर्क में ये मिलती है सज़ा🌸
कहतें हैं आदमी जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है इसलिए हर आदमी को अच्छे कर्म करने चाहिए क्योंकि जिस तरह जीवन सच है उसी तरह मौत का भी अपना सच हैl हिन्दू शास्त्रों के अनुसार जीवन-मरण एक ऐसा चक्र है जो अनवरत चलता हैं l परिवार में किसी भी सदस्य की मृत्यु के बाद घर में गरुड़ पुराण सुनना अनिवार्य है l माना गया है इस पुराण की रचना स्वयं ब्रह्मा जी ने की हैं l
यह सुनना इस लिए अनिवार्य है क्योंकि ये मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति और मोक्ष प्राप्ति का रास्ता हैं l ये मनुष्य के उचित या अनुचित कर्मों का ज्ञान कराकर मनुष्य को धर्म और नीति के अनुसार जीवन जीना सीखाता है l सभी जानते है जो जैसा करता है वो वैसा भरता है l चलिए जानते है किस बुरे काम को करने से मिलती है कौन सी सजा …
जो व्यक्ति दूसरों के धन,स्त्री या पुत्र का अपहरण करता है उसे तमिस्र नामक नरक में यातना भोगनी पड़ती है l माना गया है कि यमदूत उसे अनेक प्रकार के दंड देते हैं l ‘गडा’ घोड़ों को चलाये जाने वाले हथियार से कुचला जाता है l जो पुरष किसी के साथ विश्वासघात करता है उसे अन्ध्तामिसरा नामक नरक में यातना भोगनी पड़ती है l उसे नेत्र हीन कर दिया जाता है l अगर कोई व्यक्ति शादी के बाद अपने साथी को धोखा देता है उसे अचेत हालत में नरक कुंडल में डाल दिया जाता है l दूसरों की सम्पति हडपने वालों को जंगली जानवरों से प्रताडित किया जाता है l अपने स्वाद के लिए मासूम जीवों को खाने वाले मनुष्य को इस नरक में गर्म तेल की कढ़ाई में डाला जाता है l
वेदों के बताएं मार्ग का साथ छोड़कर पाखंड का साथ देने वाले लोगों को उल्टा लटका के कोडा से मारा जाता है और फिर तेज तलवार से उनके शरीर को छेदा जाता है l धर्म के अनुसार न चलने वाले व्यक्ति या फिर किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाने वाले व्यक्ति को ईख के सामन कोल्हू की तरह पीसा जाता है l दूसरों को जानबुझ के दुःख पहुचाने वाले व्यक्ति को इस नरक में सर्प और अन्य विषेलें जानवरों द्वारा खून चूसवाया जाता हैं l
जो व्यक्ति जबरन किसी महिला के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाता है उसे कोडे से पीट कर गर्म लोहे के खम्बों से आलिंगन कराया जाता है l धर्म का पालन ना करने वाले व्यक्ति को मांस, हड्डी, रक्त, चर्बी आदि अपवित्र वस्तुओं से भरी नदी में फेक दिया जाता है l मूक जीवों का शिकार करने वाले व्यक्तियों को तीखें बाणों से छेदा जाता है l जो व्यक्ति यज्ञ में जानवरों की बलि देता है उसे इस नरक में कोढ़ से पीटा जाता हैं l झूठी गवाही देने वाले व्यक्ति को पर्वत से पथरीली भूमि से फेका जाता है और फिर पत्थरों से झेदा जाता है l शराब पीने वाले व्यक्ति को गर्म लोहे की सलाखों से मुहँ को छेदा जाता है l जो व्यक्ति मासूम लोगों को सजा देते है उन्हें सूअर जैसे दाँतों वाले जानवर के मुहँ में डाल दिया जाता है l जीवों को पीड़ा पंहुचाकर आनंद लेने वाले व्यक्ति को शूल चुभाएं जाते है l माता-पिता को पीड़ा पहुचाने वाले व्यक्ति को गर्म तेल में तला जाता है l🧟‍♂🧟‍♂🧟‍♂🧟‍♂🧟‍♂🧟‍♂🧟‍♂
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नवार्ण मंत्र के रहस्यार्थ एवं साधना-मर्म(श्री दुर्गा सप्तशती)-
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आदिशक्ति की लीला कथा बीज रूप में नवार्ण मंत्र में समाई है। इसे यूं भी कह सकते हैं की नवार्ण मंत्र का विकास और विस्तार ही श्री दुर्गा सप्तशती के त्रिविध चरित्रों एवं 700 मंत्रों के रूप में हुआ है। ओम् ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे– इन नौ मंत्र अक्षरों वाले इस नवार्ण महामंत्र का परिचय संभवत अनेकों ने अनेक तरह से पाया होगा। परंतु इसके मर्म की अनुभूति विरलों ने ही की होगी।
जगन्माता की लीला कथा इन 6 अंगों के विवेचन में किया गया है। कवच अर्गला कीलक एवं तीनों रहस्य। यह सभी छः अंग श्री दुर्गा सप्तशती के साथ अनुवार्य एवं अभिन्न रूप से जुड़े हैं। इसके बिना साधना विधि पूरी नहीं होती। इसी क्रम में नवार्ण मंत्र का विशेष स्थान है। सप्तशती के पाठ के पूर्व एवं पाठ के बाद शक्ति साधक नवार्ण मंत्र को आवश्यक मानते हैं। क्योंकि शास्त्रों का कथन है की पाठ के आदि व अंत में नवार्ण मंत्र का जप करना चाहिए, क्योंकि नवार्ण मंत्र से संपुटित करने पर पाठ अति प्रभावशाली हो जाता है। इसकी अनुभूति साधक अपनी साधना क्रम में पा सकते हैं।
वैसे जहां तक नवार्ण मंत्र के बीज अक्षरों एवं मंत्राक्षरो के रहस्य की बात है तो इसकी कथा बड़ी व्यापक है। ऐं, ह्रीं, क्लीं के रूप में यह तीनों वाक् बीज, माया बीज एवं काम बीज प्रकृति की त्रिगुणा धारा के प्रतीक हैं जिन्हें महासरस्वती महालक्ष्मी एवं महाकाली के रूप में चित्रित किया गया है। चामुंडायै विच्चे मंत्र अक्षरों में त्रिगुणात्मिका महाशक्ति भगवती के प्रति भाव भरी शरणागति का भाव है। हालांकि कथा क्रम में भगवती महाकाली स्वरूप पहले व्यक्त हुआ है जिसमें कि क्लींबीज की मंत्र सामर्थ्य का विस्तार है इसके पश्चात मध्यम चरित्र में माता महालक्ष्मी की मंत्रिक महिमा ह्रीं बीज के विस्तार क्रम में प्रकट हुई है। अंत में ऐं बीज की सामर्थ्य माता सरस्वती की मंत्र महिमा के रूप में प्रकट हुई है।
चामुंडाए विच्चे-इन मंत्र अक्षरों में कई प्रकट एवं गोपनीय शक्तियां समाई है चामुंडायै पद का एक अर्थ अज्ञान की सेना का नाश करने वाली महाशक्ति से भी है। सप्तशती के कथा क्रम के अनुसार सप्तम अध्याय में उल्लेख है की भगवती परांबा के ललाट से उपजी महाशक्ति ने शुंभ निशुंभ की सेना नायकों चंड मुंड का वध किया। वध के बाद जब उन्होंने इन बलि पशुओं को भगवती को अर्पित किया तब वह हंसकर बोली-
यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि।।
“तुम चंड मुंड को लेकर हमारे पास आई हो इसलिए इस संसार में तुम चामुंडा नाम की देवी होकर विख्यात होगी”।
विज्ञजनों के अनुसार यह चामुंडायै पद उसी महा शक्ति का घोतक है। यूं तो इसमें चार ही अक्षर ही गिने जाते हैं किंतु इसमें पांच व्यंजन (च्,म्,ण्,ड्,य्) और 4 स्वर (अ्,उ्,आ,ऐ) हैं। इस प्रकार इनकी संख्या 9 ही है। इन वर्णों का बड़ा अद्भुत प्रभाव है इसलिए यह मंत्र के मध्य में रखे गए हैं। इस पद के बाद आया विच्चे पद, भगवती की शरणागति का घोतक है। मानसिक दृष्टि से इसका महत्व भी कम नहीं है।
कुछ सिद्ध पारातंत्र योगियों के अनुसार श्री दुर्गा सप्तशती के चतुर्थ अध्याय के 24 वें श्लोक में देवी प्रार्थना के मंत्र को भी नवार्ण माना गया है। इसमें 9 बार ‘न’ वर्ण का प्रयोग हुआ है। असंदिग्ध रूप से इस मंत्र की महत्ता व अर्थ कम नहीं है। शक्ति साधकों के लिए इसके गोपनीय अर्थ को यहां व्यक्त किया जा रहा है जिससे इसके अद्भुत प्रभाव को भी आंका जा सकता है।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिः स्वनेन च
प्राच्यां रक्ष प्रीतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।।
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🌷 जय मां पीताम्बरा🌷

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