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आयुर्वेद का सर्वनाश कैसे हुआ ?

“मेमोरी के आधार पर पोस्ट “

यह पोस्ट, मैं , अपनी एक मेमोरी के आधार पर लिख रहा हूँ , जिसे भी 1930-32 की मेमोरी हो या जिसके पिता या पितामह की यह मेमोरी में हो तो अनुमोदित करे ।मेरे पास कोई लिंक पिंक नहीं है ।जैसे 25-30 वर्ष पूर्व मैने सुना वैसा लिख रहा हूँ ।

भारत में आयुर्वेद और आयुर्वेद के डॉक्टरों की एक स्वस्थ परम्परा ( परम्परा को ही सम्प्रदाय कहते हैं ) थी , और जैसा की आप जानते ही हैं की आयुर्वेद में रोगी का उपचार होता है रोग का नहीं । अर्थात जिस holiastic approach of medical system की बात आज आधुनिक मेडिकल साईंस कर रहा है वह आयुर्वेद की जड़ में हैं ।

अब आते हैं पोस्ट पर, 1930-32 तक पूरे देश में आयुर्वेदिक डॉक्टर थे और उन्हें 10 रूपए ( या उसके आस पास ) महीने ज़िला प्रशासन से मिलते थे और उसके पहले जैसे बनारस में 17 वीं और 18 वीं सदी में महाराजा बनारस उन डॉक्टरों की देख रेख करते थे और सामान्य जनता को लगभग मुफ्त चिकित्सीय सुविधा मिल रही थी ।

पर अंग्रेज़ों को किसी प्रकार से सनातनी आयुर्वेद का ढाँचा तोड़ना था , अंग्रेज़ी दवाओं का जाल फैलाना था अत: अग्रजों ने क़ानून ला दिया की बिना यूनिवर्सिटी की डिग्री के किसी डॉक्टर को सरकारी फ़ीस या सरकारी सहायता नहीं मिल सकती । और अचानक से 90% आयुर्वेदिक डॉक्टर एक झटके में बेरोज़गार हो गए ।

आप सोच नहीं सकते की कितनी स्वस्थ परम्परा के आयुर्वेदाचार्य थे जो नाड़ी देखकर , सटीक उपचार करते थे क्योकि वह अनुभव और ज्ञान लगभग 2000-3000 वर्ष पुराना था ।

महामना मदन मोहन मालवीय बहुत आहत हुए अग्रजों के इस निर्णय से, उन्होने सभी ख्याति प्राप्त आयुर्वेदिक डॉक्टरों से कहा की वे काशी हिन्दु विश्वविद्यालय आएँ और उन्होने अपने हाथो से लिखकर डिग्रियाँ बाटनी प्रारम्भ कर दी ।

वे 30-40 लोगों को डिग्री बाट पाए थे की अग्रजों ने कुछ और नियम डाल दिया की ऐसे डिग्री नही दी जा सकती और भारत के 3000 वर्ष पुरानी परम्परा ढह गयी ।

धीरे धीरे ही , पर पुन: आयुर्वेद जीवित हो रहा है ।

पर , चलिये , हम लोग ताली बजाएं क्योकि इन सर्वनाशों की बातें भी नहीं बताई गई हमें ।

नोट: वर्ष 1930-32 के दो चार वर्ष आगे पीछे हो सकता है ।
✍🏻राज शेखर तिवारी

हेनरी थॉमस कोलब्रूक को अपने पिता की जान-पहचान के जरिये ईस्ट इंडिया कम्पनी में नौकरी मिल गयी थी। नौकरी मिलने के तीन साल बाद उन्हें तिरहुत के असिस्टेंट कलेक्टर के तौर पर काम सौंपा गया। जबतक उनकी बंगाल की अर्थव्यवस्था पर किताब आई (1795), उनका तबादला पुर्णिया हो चुका था। ये वो दौर था जब ब्रिटिश लोगों को कानूनों की जरूरत थी। उनके पास अपने लिखे हुए कानून नहीं थे और ऐसे दौर में कोलब्रूक, जो कि उस समय संस्कृत के पहले यूरोपियन जानकार माने जाते थे, ब्रिटिश लोगों के लिए काम के अधिकारी बन गए।

उत्तराधिकार सम्बन्धी जो कानून ब्रिटिश लोगों को लिखने थे, पता चला कि भारत में तो वो कानून पहले से ही हैं! तय किया गया कि इसी के आधार पर कुछ फेरबदल के साथ अपना कानून बना लिया जाए। फेरबदल इसलिए जरूरी था, क्योंकि हीदेन, पैगन, ईसाइयों के हिसाब से अन्धकार युग में जीने वाले, हिन्दुओं के कानूनों के हिसाब से स्त्रियों को भी उत्तराधिकार में संपत्ति मिलती थी। फिरंगियों की व्यवस्था में शादी से पहले स्त्री की कोई संपत्ति होती नहीं थी, और दहेज़ में मिली चीज़ें तो पति को दी जाती थीं!

उदाहरण के तौर पर हमारी अपनी आर्थिक राजधानी कही जाने वाली मुम्बई 11 मई 1661 को कैथरीन (पुर्तगाल के राजा जॉन चतुर्थ की बेटी) के दहेज़ के रूप में इंग्लैंड के चार्ल्स द्वित्तीय को मिली थी। अब जब “लॉ ऑफ़ इनहेरिटेंस” यानी उत्तराधिकार के कानून लिखे गए तो उसके दो हिस्से कोलब्रूक के किये अनुवाद थे। एक हिस्सा था विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा और दूसरा जीमूतवाहन का दायभाग। भारत में ब्रिटिश कानून ही चलते हैं। इस्लामिक शरियत अदालतों को 1773 में रेगुलेटिंग एक्ट से ख़त्म करके कोलकाता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी थी।

अक्सर जब कानूनों में स्त्री के अधिकारों की बात चलती है तो कुछ धूर्त और कई मूर्ख, किसी मनुस्मृति की बात करने लगते हैं। कौन सी मनुस्मृति की बात करते हैं पता नहीं, क्योंकि मनुस्मृति के कई अलग अलग पाठ आते हैं। यहाँ वो ये भी नहीं बताते कि मनुस्मृति किस राजवंश द्वारा, किस काल में, भारत के कौन से हिस्से में कानून की तरह लागू थी। विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं है। ये याज्ञवल्क्य स्मृति पर की गई उनकी टिप्पणी है, जिसमें वो न्याय शास्त्र के अन्य विद्वानों की चर्चा भी करते हैं।

मिताक्षरा पुरानी है और दायभाग बाद में लिखी गयी थी। इस वजह से कुछ लोग मान लेते हैं कि शायद मिताक्षरा कड़े रुढ़िवादी कानूनों वाली और दायभाग थोड़ी सरल होगी, जबकि ऐसा कुछ है नहीं। अंग्रेजों के बनाए कानून मुख्यतः दायभाग पर आधारित थे। काफी बाद में जब हिन्दू सक्सेशन एक्ट (1956) आया तो उसके जरिये हिन्दुओं की परम्पराओं को करीब-करीब पूरी तरह से कानूनों के जरिये नष्ट कर दिया गया। करीब पचास साल बाद इसमें संशोधन करके महिलाओं के लिए कुछ जगह बनायी जा सकी है।

मिताक्षरा और दायभाग में जो सबसे बड़ा अंतर माना जाता है, वो पैत्रिक संपत्ति में संतान के अधिकार से जुड़ा है। दायभाग के हिसाब से संतान को पैत्रिक संपत्ति में अधिकार तब मिलता है, जब पिता की मृत्यु हो जाए या फिर संन्यास लेने जैसे कारणों से वो संपत्ति छोड़ दे। मिताक्षरा के हिसाब से जन्म लेते ही संतान पैत्रिक संपत्ति में हिस्सेदार है। विधवा के संपत्ति में अधिकारों को लेकर भी थोड़ा अंतर है। दूसरे भाइयों के साथ साझा संपत्ति में भी दायभाग, विधवा स्त्री को अधिकार देता है। दायभाग बेचने जैसे मामलों में संपत्ति पर पूरे परिवार का अधिकार मानती है, जबकि दायभाग का कानून, परिवार के मुखिया का अधिकार मानता है।

कई विद्वान मैथिली कविताओं के लिए जाने जाने वाले विद्यापति को भी मिताक्षरा और न्याय का जानकार मानते हैं। मैथिली भाषा बोलने-जानने वालों का ध्यान शायद कभी नारीवादी बहसों पर भी गया होगा। अक्सर उनमें कहा जाता है कि पति तो पत्नी का नाम लेता है, पत्नी पति का नाम नहीं ले सकती, ये अन्याय है! मैथिली में बात करते वक्त भी पत्नी को आप से ऊपर के संबोधन से बुलाया जाता है। मैथिली में पत्नी को तुम नहीं कह सकते। सदियों तक मिताक्षरा जैसे नियम के प्रभाव से संभवतः ये भाषा में भी आया।

बाकी हिन्दुओं की ओर से उनके नियमों को बताने योग्य अंतिम अच्छे विद्वान शायद महामहोपाध्याय पांडुरंग वामन काने थे। अभी भी स्त्रियों के लिए कानूनों में सुधार की जरूरत तो है, लेकिन क्या हिन्दू हितों वाले कानून अब आयेंगे?

ऋग्वेद 1.29 के अनुसार वैदिक शिक्षा पद्धति में कोई भी व्यक्ति शिल्प शिक्षा विहीन नहीं रहता था । जर्मनी की शिक्षा पद्धति में यह व्यवस्था आश्वस्त करती है कि कोई भी जर्मन नागरिक साधन इहीन और दरिद्र नहीं रहता , जैसा वैदिक काल में भारत देश में था ।

ऋषि: आजीर्गति: शुन: शेप: सकृत्रिम: विश्वामित्र: देवरात: = संसार के भोग विलास के कृत्रिम साधनों के अनुभवों के आधार पर विश्व के मित्र के समान देवताओं के मार्ग दर्शन कराने वाले ऋषि।
देवता:- इंद्र:
छंद: पंक्ति:
ध्रुव पंक्ति; आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ
Veterinary & skill development, education
1.यच्चि॒द्धि स॑त्य सोमपा अनाश॒स्ताइ॑व॒ स्मसि॑।
आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥RV1.29.1॥

  1. राष्ट्र में उपयुक्त धन, भौतिक, आर्थिक साधनों, और शिक्षकों की व्यवस्था से गौ अश्वादि लाभकारी पशुओं के सम्वर्द्धन, उनके पालन और अन्य शिल्प इत्यादि के बारे में विस्तृत प्रशिक्षण की व्यवस्था करो । ऋ1.29.1
    स्त्रियों का गोपालन में योगदान
  2. शिप्रि॑न् वाजानां पते॒ शची॑व॒स्तव॑ दं॒सना॑।
    आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥ RV1.29.2॥
  3. [शिप्रिन्‌] ज्ञान से युक्त स्त्री [शचीव: तव] तुम अत्यंत कार्यकुशल [वाजानाम्‌ पते] बड़ी बड़ी कठिन समस्याओं से निपटने के लिए [दंसना] शिक्षा का उपदेश दे कर, गौ अश्वादि लाभकारी पशुओं के सम्वर्द्धन, उनके पालन और अन्य शिल्प इत्यादि के बारे में विस्तृत प्रशिक्षण की व्यवस्था करो ।( गौ इत्यादि पशुओं के प्रजनन के समय स्त्री जाति का दायित्व अधिक वांछित माना जाता है और तर्क सिद्ध भी है । )ऋ1.29.2
    शूद्रों का योगदान
  4. नि ष्वा॑पया मिथू॒दृशा॑ स॒स्तामबु॑ध्यमाने।
    आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥ RV1.29.3॥
    3.[मिथूदृशा] विषयासक्त और[अबुध्यमाने] अपने ज्ञान को न बढ़ाने वाले [सस्ता] आलसी सोते रहने वाले जन अर्थात- शूद्र वृत्ति के जनों को गौ अश्वादि लाभकारी पशुओं के सम्वर्द्धन, उनके पालन और अन्य शिल्प इत्यादि के बारे में विस्तृत प्रशिक्षण की व्यवस्था करो । ऋ1.29.3
    क्षत्रिय वृत्ति वालों का प्रशिक्षण
  5. स॒सन्तु॒ त्या अरा॑तयो॒ बोध॑न्तु शूर रा॒तयः॑।
    आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥ RV1.29.4॥
    4.[अरातय: ससन्तु] समाजसेवा के लिए दान न देने की वृत्ति का विनाश होता है| [बोधन्तु शूर रातय:] उपयुक्त दान आदि धार्मिक कार्यों की पहचान से बाधाओं, सामाजिक शत्रुओं को नष्ट करने की क्षमता उत्पन्न होती है | गुण युक्त गौओं और अश्वों से निश्चित ही [गोषु] सत्य भाषण और शास्त्र और शिल्प विद्या की शिक्षा सहित वाक आदि इंद्रियों तथा [अश्वेषु] ऊर्जा और वेग से युक्त चारों ओर से अच्छे उत्तम सहस्रों साधनों से अनेक प्रकार की प्रशंसनीय विद्या और धन से सम्पन्नता प्राप्त होती है । ऋ1.29.4
    गर्दभ के समान कटु व्यर्थ शब्द बोलने वालों का प्रशिक्षण
  6. समि॑न्द्र गर्द॒भं मृ॑ण नु॒वन्तं॑ पा॒पया॑मु॒या।
    आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥ RV1.29.5॥
    5.[ गर्दभम्‌ अमूया] गर्दभ के समान कटु और व्यर्थ वचन बोलने वालों को [पापया नुवन्तम्‌] पापाचरण करने से सुधार कर , गौ अश्वादि लाभकारी पशुओं के सम्वर्द्धन, उनके पालन और अन्य शिल्प इत्यादि के बारे में विस्तृत प्रशिक्षण की व्यवस्था करो । ऋ1.29.5
    जीवन में लक्ष्यहीन जनों का प्रशिक्षण
  7. पता॑ति कुण्डृ॒णाच्या॑ दू॒रं वातो॒ वना॒दधि॑।
    आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥ RV1.29.6॥
    6.[ कुन्डृणाच्य:] लक्ष्यहीन कुटिल गति से [पताति वात: वनात्‌] वनों से चलते हुए वायु के समान आचरण वाले जनों को भी गौ अश्वादि लाभकारी पशुओं के सम्वर्द्धन, उनके पालन और अन्य शिल्प इत्यादि के बारे में विस्तृत प्रशिक्षण की व्यवस्था करो । ऋ1.29.6
  8. सर्वं॑ परिक्रोशं ज॑हि ज॒म्भया॑ कृकदा॒श्व॑म्।
    आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥ RV1.29.7॥
  9. [ सर्वं॑] सब को [परिक्रोशं कृकदा॒श्व॑म्] सब प्रकार से रुला कष्ट देने वाले [ज॑हि ज॒म्भया॑] जो हैं उन के ऐसे आचरण को नष्ट करके गौ अश्वादि लाभकारी पशुओं के सम्वर्द्धन, उनके पालन और अन्य शिल्प इत्यादि के बारे में विस्तृत प्रशिक्षण की व्यवस्था करो । ऋ1.29.7
    ✍🏻

शिक्षा : भारतीय दृष्टि

कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के अंतर्गत तैत्तिरीय आरण्यक के सातवें आठवें और नवम अध्याय को तैत्तिरीय उपनिषद कहा जाता है। इसमें से सातवें अध्याय को उपनिषद में शिक्षावल्ली के रूप में स्मरण किया जाता है ।
इस शिक्षावल्ली का प्रथम अनुवाक मंगलाचरण की तरह है । इसके उपरांत द्वितीय अनुवाक में ऋषि कहते हैं कि हम शिक्षा की व्याख्या करेंगे। तीसरे अनुवाक में वे इसका प्रयोजन बताते हैं कि इससे गुरु और शिष्य दोनों का ब्रह्मवर्चस और ब्रह्म तेज बढ़ेगा , यशस्वी होंगे और शिक्षा के द्वारा लोको के विषय में , ब्रह्मांड की ज्योतियों के विषय में, सभी प्रकार की विद्याओं के विषय में, विश्व की समस्त प्रकार की प्रजाओं के विषय में तथा शरीर और उसके स्थूल ,सूक्ष्म तथा कारण इन सभी रूपों के विषय में और इस प्रकार लोक , प्रजा , ज्योति , विद्या और जीवात्मा के समस्त स्तरों और रहस्यों के विषय में वर्णन करेंगे।
आगे इसी अध्याय मे नौवे अनुवाक मे बताते हैं कि स्वाध्याय और प्रवचन के मुख्य फल हैं : ऋत अर्थात कॉस्मिक यानी ब्रह्मांडीय व्यवस्था के नियमों का ज्ञान , सत्य का ज्ञान और सत्य पालन की सामर्थ्य , तप की शक्ति, आंतरिक शांति की सांमर्थ्य , इंद्रिय निग्रह की सामर्थ्य , वेदों के पठन पाठन की सांमर्थ्य , योग्य संतान प्रजनन की सामर्थ्य , कुटुंब की वृद्धि (प्रजाति ) की सामर्थ्य , मनुष्यों के लिए आवश्यक समस्त व्यवहार की सामर्थ्य , यज्ञ की सामर्थ्य और अतिथियों की यथायोग्य सेवा की सामर्थ्य ।

समस्त ज्ञान प्रदान कर आचार्य 11 वें अनुवाक मे अनुशासन देते हैं :
” सदा सत्यनिष्ठ रहना , इसमे प्रमाद नहीं करना , धर्ममय ही आचरण करना , इसमे प्रमाद नहीं करना , शुभ कर्मों मे कभी प्रमाद मत करना , देव कार्य और पूर्वजों की परंपरा को आगे ले जाने के कार्य मे कभी चूक नहीं करना तथा संतति परंपरा गतिमय रखना , ऐश्वर्य की साधना मे कभी प्रमाद मत करना और स्वाध्याय तथा ज्ञान विस्तार मे कभी चूक नहीं करना ।
माता , पिता , आचार्य और अतिथि को देव तुल्य मानना ( विद्या , वय , तप और आचरण मे श्रेष्ठ व्यक्ति जब घर पर बिना आमंत्रणा आ जाएँ , तो वे ही अतिथि कहलाते हैं। गेस्ट या मेहमान को अतिथि नहीं कहते । दरवाजे पर दुष्ट भाव से आए कपटी को आततायी कहा जाता है और उसका वध करने का ही शास्त्र का आदेश है ) ।
जो निर्दोष कर्म हैं , उनका ही आचरण करना । हमारे भी जो सुचरित हैं , अच्छे आचरण हैं , उनका ही अनुसरण करना , अन्य आचरणों का नहीं । जो श्रेष्ठ विद्वान आयें , उन्हे आसन देना , विश्राम देना और श्रद्धा पूर्वक दान देना । विवेकपूर्वक संकोच सहित अपनी आर्थिक स्थिति के अनुरूप दान देना चाहिए ।
जब जहां कोई दुविधा या शंका हो , तो उत्तम विचार वाले सदाचारी से परामर्श कर कर्तव्य का निश्चय करना । यही आदेश है । यही उपदेश है । “

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