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प्राचीन भारत की सैन्य परंपरा

भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे पुरानी सामाजिक संस्कृति है। वायुपुराण में भरत की कहानी आती है जो कि आधुनिक इतिहासकारों की समझ से परे है। पिछले हजारों वर्षों में स्थानीय और विदेशियों द्वारा बड़ी संख्या में रचे गए साहित्य, पुरातात्विक प्रमाणों और मजबूत मौखिक तथा संपुष्ट मौखिक परंपराओं से हमारी प्राचीनता और हमारी सभ्यता की श्रेष्ठता साबित होती है। हमारी सभ्यता में आध्यात्मिकता से लेकर दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, कला, विज्ञान, तकनीकी, उद्योग, प्रशासन और यहाँ तक कि युद्ध और शांति तक मानव जीवन के हरेक आयामों का विकास हुआ था। यह सब कुछ केवल तभी संभव है, जब लंबे समय तक देश में शांति रही हो जोकि अपने लोगों और अपनी भौगोलिक सीमाओं की सुरक्षा के बिना संभव नहीं है।

हमारी सभ्यता का प्रारंभ मानव सभ्यता के इतिहास से होता है। आधुनिक इतिहासकारों द्वारा स्वीकृत सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक काल ईसा के हजारों वर्ष पुराने हैं। इसके बाद उपनिषदों का काल आता है, फिर रामायण और महाभारत और उसके बाद पांड्यन, मौर्य, अशोक, सातवाहन और अंतत: मगध का गुप्त साम्राज्य जैसे महान राज्य हुए। इस दौरान देश में विभिन्न कालखंडों में विभिन्न स्थानों पर महान गणतंत्र राज्यों का भी उदय हुआ।

भारतीय सभ्यता की सीमाएं इतिहास के विभिन्न कालखंडों में विशालतम अवस्था तक पहुँची और कई बार उनमें काफी संकुचन भी आया। उत्तर और दक्षिण की सीमाओं के लिए सामान्यत: हिमालय और महासागर का सीमांकन किया जाता था, इसकी पश्चिमी सीमाएं कैस्पियन सागर तक विस्तीर्ण रही हैं। पूरब में वर्तमान बांग्लादेश और म्यामांर तक हमारी सीमाएं रही हैं। इस प्रकार हमारी सांस्कृतिक सीमाएं पहली शताब्दी के अंत तक इरावाडी नदी जिसे स्थानीय भाषा में ऐरावाड्डी (इंद्र के ऐरावत हाथी के नाम पर) कहा जाता था और ऑक्सस नदी जो आज अमू दरिया के नाम से जानी जाती है, के बीच तक फैली हुई थीं। उत्तर में सागरमाथा जो कि आज माउंट एवरेस्ट के नाम से प्रसिद्ध है से लेकर श्रीलंका तक भारत ही था।

राजनीति संबंधी भारतीय ग्रंथों में राज्य और राष्ट्र शब्दों की चर्चा बहुतायत में पाई जाती है। इन्हीं शब्दों का बाद में आधुनिक विद्वानों ने स्टेट और नेशन में अनुवाद कर दिया जोकि पश्चिमी मूल के शब्द हैं। राज्य के लिए स्टेट शब्द का प्रयोग तो ठीक है, परंतु राष्ट्र का अनुवाद नेशन करना ठीक नहीं है।
स्वाभाविक ही है कि 55 शताब्दियों से पुराने और एक महादेश के आकार के राज्य तथा राष्ट्र की नीतियों के बारे में यथातथ्य विवरण दे पाना संभव नहीं है। प्रमाणों से पता चलता है प्राचीन भारत में राज्य का काम विदेशी आक्रमणों से लोगों की रक्षा करने तक सीमित था। आंतरिक कानून व्यवस्था का पालन पारंपरिक नियमों के प्रति श्रद्धा पैदा करके करवाया जाता था। वैदिक राजा धर्मपति यानी धर्म अर्थात् कानून के पालक हुआ करते थे। हालांकि वैदिक काल से मौर्य काल के बीच में राज्य के अधिकार तथा कर्तव्यों में काफी वृद्धि हुई। साम्राज्य युग के प्रारंभ होते-होते राज्य के कर्तव्यों में सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक सभी आयाम शामिल हो गए। सामाजिक व्यवस्थाओं का संवर्धन और विद्वानों, कलाकारों, शिल्पकारों के संरक्षण द्वारा शिक्षा, कला, अध्ययन को प्रोत्साहन देना भी राज्य के काम माने गए। यहाँ तक कि धर्मशालाएं, सामुदायिक भवन और अस्पताल जैसी नागरिक सुविधाएं भी राज्य द्वारा संचालित की गईं, ताकि प्राकृतिक आपदाओं के समय किसी प्रकार का दबाव समाज पर न रहे।

अन्य सभी सभ्यताओं की ही भांति यहाँ भी समाज के शारीरिक बल को संरक्षण, संवर्धन और उपयोग करना एक जीवंत राज्य अनिवार्य हिस्सा था। एक ओर विजेताओं ने न केवल अपनी वीरता प्रदर्शित करने तथा गौरव बढ़ाने के लिए, बल्कि राज्य का धन और संसाधन बढ़ाने के लिए युद्ध लड़े, दूसरी ओर विजितों ने अपने पूर्वजों के सम्मान की रक्षा और अपने देवताओं के मंदिरों की रक्षा के लिए अपनी आहूति देकर ख्याति अर्जित की।

अर्थशास्त्र में तीन प्रकार के सैन्य अभियानों का वर्णन मिलता है जिन्हें सामान्यत: दिग्विजय या विश्वविजय कहा जाता था। ये हैं – धर्मविजय यानी धर्म के लिए अभियान, लोभविजय यानी धन के लिए अभियान और असुरविजय यानी राक्षसी उद्देश्यों के लिए अभियान। इनमें से सबसे श्रेष्ठ धर्मविजय, उससे कम लोभविजय तथ सबसे निकृष्ट असुरविजय को माना जाता था। धर्मविजय में विजित राजा को बाध्य किया जाता था कि वह विजेता को सम्मान और न्यायोचित कर प्रदान करे। लोभविजय में विजित राजा को भारी मात्रा में धन अथवा अपने राज्य का एक भूभाग या दोनों ही देना होता था। असुरविजय में पराजित राज्य का पूरी तरह नाश कर दिया जाता था। अन्य देशों जहाँ मात्स्य न्याय यानी बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, का सिद्धांत प्रचलित था, भारत में इसके विपरीत हमारे प्राचीन मनीषियों का कहना था कि कमजोर राज्य शांति को बनाए रखें और जो मजबूत राज्य हैं, वे युद्ध करें।

काल के प्रवाह में समाज में क्षत्रिय नामक योद्धा जाति का विकास हुआ जिसकी जीविका का साधन ही युद्ध और शासन करना था। क्षत्रियों को युद्ध के लिए सन्नध रहने के लिए विविध प्रकार की सहायताओं और सेवाओं की आवश्यकता पड़ती थी। जैसे कि युद्ध कौशल तथा भंडार, संचार और सूचना के साधन, पानी की आपूर्ति, सैनिकों तथा हाथी, घोड़े आदि पशुओं के लिए भोजन-सामग्री, शिविर तथा युद्ध के दौरान घायलों के लिए चिकित्सकीय सुविधाएं आदि। अभियान के दौरान उनके साथ लुहार, रथशिल्पी, मोची, धोबी, नाई, सफाईकर्मी आदि सभी चला करते थे। इसी तरह उनके साथ बड़े आपूर्तिकर्ताओं, सभी प्रकार के व्यापारियों, बैंककर्मियों, नाविकों, प्रशासकों और योद्धाओं की भी एक टोली होती थी। विविध इलाकों की सेनाएं जब साथ मिल कर युद्ध लड़ती थीं, तो उनके साथ बड़ी संख्या में दुभाषिए भी हुआ करते थे। कुल मिलाकर सैन्य अभियानों का विशाल आयाम हुआ करते थे। विस्तार से जानने के लिए हम महाभारत को पढ़ सकते हैं।

अधिकांश स्मृतियों में राजा को युद्ध से बचने की ही राय दी गई है। उनके अनुसार धर्म यानी कानून की स्थापना के अलावे की जाने वाली हिंसा राजा की कीर्ति को नष्ट करती है और उसे नरकगामी भी बनाती है। अशोक एक महान सम्राट हुआ जिसने गौरव के लिए किए जाने वाले युद्ध की परंपरा को तोड़ते हुए धर्मविजय को एक नई परिभाषा प्रदान की। इसके अंतर्गत धर्म का प्रसार करना ही धर्म के लिए युद्ध माना गया।

प्राचीन भारत में योद्धाओं ने सुपरिभाषित युद्धनियमों का विकास और पालन किया। हमारे पूर्वजों ने हमेशा से दूसरे देशों के पीडि़तों को शरण दी, परंतु स्वयं का खून-पसीना केवल भारतवर्ष के लिए बहाना ही उचित समझा। इसलिए उन्होंने कभी अपनी सीमाओं के बाहर जाकर युद्ध नहीं छेड़ा। यह भी एक अनिवार्य नियम था कि राज्य के युद्धों के बाद भी सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक गतिविधियाँ सहजता तथा निर्लिप्तता से चलती रहनी चाहिए। इस बात को भारत आए एक ग्रीक राजदूत ने भारतीय युद्धनीति की एक विशेषता के रूप में उद्धृत किया है। उसने लिखा है – जहाँ अन्यान्य देशों में यह सामान्य बात है कि युद्ध के दिनों में खेत बंजर बड़े रह जाते हैं, वहीं भारत में युद्ध के दौरान भी किसान बिना किसी खतरे के निर्बाध रूप से खेती करते रहते हैं। दोनों ही तरफ के योद्धा यह ध्यान रखते हैं कि वे किसी भी किसान को नुकसान नहीं होने दें, शत्रु के जमीन पर आगजनी न करें, पेड़ों को न काटें। प्रोफेसर एच.एच. विल्सन ने प्राचीन काल की युद्धनीतियों का काफी प्रशंसा की है। इसी प्रकार सातवीं शताब्दी में आए चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि पर्याप्त युद्ध और शत्रुता के बाद भी देश का सामान्य जन इससे प्रभावित नहीं होता था।
✍🏻साभार – भारतीय धरोहर

सैन्यविज्ञान – #मार्शलआर्टकाजन्म ——–

‘सैन्य विज्ञान मानव ज्ञान की वह शाखा है जो आदि काल से ही सामाजिक शान्ति स्थापना करने तथा बाह्य आक्रमण से निजी प्रभुसत्ता की रक्षा करने के लिए महत्वपूर्ण समझी जाती रही है, इसके अन्तर्गत शान्ति स्थापन साधनों, सेना के संगठन, शस्त्रास्त्रों के प्रयोग और विकास, युद्ध शैलियों का मानसिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है।’’

सैन्य विज्ञान के प्रमुख अंग है युद्ध कला , मार्शल आर्ट तथा शस्त्राभ्यास जिसका उद्गम भी वैदिक साहित्य ही हैं। वेदों में अट्ठारह (18) ज्ञान तथा कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। यजुर्वेद का उपवेद ‘धनुर्वेद’ पूर्णतया धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में भी धनुर्वेद के विषय में विस्तृत उल्लेख किया गया है जिसमे निम्न पांच विधाएं प्रमुख है –

यन्त्र_मुक्ता – अस्त्र-शस्त्र के उपकरण जैसे घनुष और बाण।

पाणि_मुक्ता – हाथ से फैंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला।

मुक्ता_मुक्ता – हाथ में पकड कर किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि बर्छी, त्रिशूल आदि।

हस्त_शस्त्र – हाथ में पकड कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा अदि।

बाहू_युद्ध – निशस्त्र हो कर युद्ध करना।

आज हम सिर्फ बाहू-युद्ध की बात करते है , बाहु युद्ध खुद में एक विस्तृत विषय है लेकिन इसमें भी आज सिर्फ मार्शल आर्ट की बात करेंगे युद्ध कला और शस्त्राभ्यास के विषय मे आगे पोस्ट करूँगा, आज का आधुनिक वैश्विक मार्शल आर्ट कैसे भारतीय संस्कृति से प्रभावित है और उसका मूल स्थान भारत वर्ष कैसे है इसको देखते है ।।

मार्शल_आर्ट – “यह कला अभ्यास और समर्पण पर निर्भर करती है”। दुनिया की सबसे प्रचलित ख़तरनाक और बेहतरीन मार्शल आर्ट्स जो भारतीय संस्कृति से निकले –

ताईक्वान्डो –

यह कला मूल रूप से कोरिया से निकली है और करीब 5,000 साल पुरानी मानी जाती है, ताईक्वान्डो को इसकी तेज़ और घूमती हुई ऊंची किक की वजह से दुनिया में जानी जाती है, इसका अर्थ है किक और पंच (Tai का मतलब पैर और Kwan का अर्थ मुट्ठी), यह दुनिया की पहली ऐसी मार्शल आर्ट है, जिसे ओलिंपिक में जगह मिली हुई है।
भारतीय मूल – नियुद्ध क्रीडे

ऐकिडो –

ऐकिडो बहुत ही प्रभावी और बेहतरीन मार्शल आर्ट (Martial Art) है। यह अन्य मार्शल आर्ट्स (Martial Art) की तरह ज़्यादा पुराना या परम्परागत भी नहीं है। ऐकिडो की उत्पत्ति और विकास मास्टर ‘Morihei Ueshiba’ ने की थी।
भारतीय मूल – कुट्टू वरिसाई

जुसुत्सू –

जुसुत्सू, जापान की एक प्राचीन युद्ध कला (Martial Art) है, जिसका प्रयोग समुराई अपने हथियारहीन होने की दशा में करते थे। जुसुत्सू एक विशेष मार्शल आर्ट् (Martial Art) इसलिए भी है, क्योंकि इसमें अपने प्रतिद्वंदी के गुस्से और उसकी आक्रामकता का उसी के ख़िलाफ प्रयोग किया जाता है।
भारतीय मूल – मल्ल युद्ध

निन्जुत्सू –

निन्जुत्सू मार्शल आर्ट सीखने वाले को ‘निंजा’ कहते है। आपने कई फ़िल्म्स में इनको देखा भी होगा। कुछ समय पहले तक यह दुनिया की सबसे रहस्यमयी मार्शल आर्ट्स में से एक थी। जापान में निंजा मार्शल आर्ट को हत्यारे और गुरिल्ला योद्धा सीखते थे। इस मार्शल आर्ट में तलवार, छोटे चाकू, फेंकने वाले हथियार और कुछ तरह के केमिकल का प्रयोग भी किया जाता है।
भारतीय मूल – गतका और अदिथाडा

विंग_चुन –

विंग चुन लगभग 17वीं शताब्दी में तेज़ी से लोकप्रिय हुआ मार्शल आर्ट है। इसे सबसे पहले एक बौद्ध भिक्षुणी ‘नग मुई’ ने अविष्कार किया था। पशु, पक्षी और कीट-पतंगों से प्रेरित हो कर इस कला को विकसित किया गया था। आज के समय में विंग चुन के फाइटर्स दुनिया के सबसे जाने-माने फाइटर्स हैं।
भारतीय मूल -सरित सरक

कराटे –

भारत में मार्शल आर्ट्स (Martial Art) के लिए अगर कोई सबसे ज़्यादा प्रयोग किये जाने वाला शब्द है, तो वो है ‘कराटे’। कराटे एक जापानी शब्द है जिसका अर्थ है ‘खाली हाथ’। इसमें हाथ और पैर को तलवार और चाकू की तरह प्रयोग किया जाता है। इसे बेस्ट सेल्फ़ डिफेंस भी माना गया है।
भारतीय मूल -नियुद्ध क्रीडे

कुंग_फु –

कुंग फु एक चाइनीज़ मार्शल आर्ट (Martial Art) है, जिसका सरल शब्दों में अर्थ होता है ‘अपने से बड़े व शक्तिशाली पर विजय प्राप्त करना’। अगर हम इसके मूल में जाए तो हम पाते हैं कि चीन में इस कला को लाने वाले एक भारतीय राजकुमार ‘बोधिधर्मन’ थे। इनका नाम चीनवासी आदर के साथ लेते हैं। चीनियों ने इस कला को अपनाया और इसका विकास किया। लेकिन हम भारतीयों का दुर्भाग्य है कि हमने भारत में इस कला का दमन ही कर दिया।
भारतीय मूल – कल्लारिपयट्टु

मुएय_थाई –

मुएय थाई, थाईलैंड का राष्ट्रीय खेल है और यह दुनिया की सबसे घातक मार्शल आर्ट में भी शामिल है। कुछ लोग इसे आठ अंगो का मार्शल आर्ट भी कहते है जिसमें कोहनी, मुट्ठी, घुटने और पैरो कि पिंडलियां शामिल हैं। भारतीय मूल – वज्र मुष्टि

कराव_मागा –

कराव मागा, दुनिया की सबसे बेहतरीन और श्रेष्ठ सेल्फ़ डिफेन्स टेक्निक्स में से एक है। इसका अविष्कार लमी लीचटेनफील्ड (Imi Lichtenfeld) ने किया था। वे दुनिया के बेहतरीन रेसलर, बॉक्सर और जिमनास्ट थे। इन्होंने कराव मागा को यहूदी समुदाय को बचाने के उद्देश्य से विकसित किया था। कराव मागा मार्शल आर्ट को इस्राइली सेना और पुलिस प्रयोग करती है।
भारतीय मूल – इनबुआन द्वंद्व

उपरोक्त सभी विधाओं का मूल भारतीय है सिर्फ नाम बदल गए है । सुश्रुत लिखित सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 स्थलों का उल्लेख है जिन में से 49 अंग अति संवेदनशील बताये गये हैं। यदि उन पर घूंसे से या किसी अन्य वस्तु से आघात किया जाये तो मृत्यु हो सकती है। भारतीय शस्त्राभ्यास के समय उन स्थलों पर आघात करना तथा अपने आप को आघात से कैसे बचाना चाहिये सिखाया जाता था। लगभग 630 ईस्वी में पल्लवराज नरसिंह्म वर्मन ने कई पत्थर की प्रतिमायें लगवायी थी जिन को निश्स्त्र अभ्यास करते समय अपने प्रतिद्वंद्वी को निष्क्रिय करते दर्शाया गया था। प्राचीन भारत मे कुल 124 युद्ध विधाएं वर्णित है लेकिन अभी सिर्फ 17 ही अस्तित्व में है जो निम्न है बाकी की सभी लुप्त हो चुकी है या मृतप्रायः है ।

1- अदिथाडा (Adithada)
2 – बोथाटी (Bothati)
3 – गतका (Gatka)
4 – इनबुआन द्वंद्व (Inbuan Wrestling)
5 – कल्लारिपयट्टु (Kalaripayattu)
6 – कुट्टू वरिसाई (Kuttu Varisai)
7 – लाठी (Lathi)
8 – मल्ल युद्ध (Mall Yudh)
9 – मलयुथम (Malyutham)
10 – मुकना (Mukna)
11 – नियुद्ध क्रीडे (Niyudh Kride)
12 – पहलवानी (Pehalwani)
13 – सरित सरक (Sarit Sarak)
14 – सिलम्बम (Silambam)
15 – थांग ता (Thang Ta)
16 – वरमा कलई (Varma Kalai)
17 – वज्र मुष्टि (Vajra Mushti)

#कलारिप्पयात

कलारिप्पयात या कलरीपायट्टु की व्याख्या पौराणिक गाथाओं में की गई है। इसका जन्म धनुर्वेद से हुआ है। धारणाओं के अनुसार कलरीपायट्टु सदियों पहले ही इजाद हो गया है। यह भी कहा जाता है कि इस कला को दुनिया के सामने लाने वाले और उन्हें सिखाने वाले व्यक्ति थे भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम थे।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार बाद के समय मे श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास उसी का एक नृत्य रूप है।

कलारीपयट्टू युद्ध कला के आज के प्रचलित रूप को महर्षि अगस्त्य ने विकसित किया । उन्होंने कलरीपायट्टु का इस्तेमाल खास तौर पर जंगली जानवरों से लड़ने के लिए किया । अगस्त्य मुनि जंगलों में भ्रमण करते थे। उस समय इस क्षेत्र में काफी तादाद में जंगली जानवर रहते थे। जंगली जानवर इंसानों पर हमला कर देते थे इन हमलों से अपने बचाव के लिए अगस्त्य मुनि ने जंगली जानवरों से लड़ने का एक तरीका विकसित किया जो कलारिप्पयात का ही एक रूप था और वही आज का प्रचलित रूप है ।।

लेकिन कलरीपायट्टु का असल विस्तार हुआ 9वीं शताब्दी में जब केरल के योद्धाओं ने इसे युद्ध के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया, माना जाता है कि 11 वीं शताब्दी में चोल राजवंश, पाण्ड्य राजवंश और चेर साम्राज्य के बीच 100 साल तक चले एक युद्ध में कलरीपायट्टु का खूब इस्तेमाल किया गया , यह प्राचीनतम युद्ध कला यदि अभी तक जीवित है, तो इसका श्रेय यहाँ के लोगों को जाता है जिन्होंने इसे अभी तक जीवित रखा है। केरल की योद्धा जातियां जैसे नायर और चव्हाण ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई है। यह जातियां केरल की योद्धा जातियां थी जोकि अपने राजा और राज्य की रक्षा के लिए इस युद्ध कला का अभ्यास किया करती थीं। कलरीपायट्टु मल्लयुद्ध का परिष्कृत रूप भी माना जाता है। कलरीपायट्टु शब्द अपने आप में इस कला का बखान करता है, यह शब्द दो शब्दों को जोड़ कर बना है। पहला “कलारी” जिसका मलयालम में अर्थ होता है व्यायामशाला है, तथा दूसरा “पयाट्टू” जिसका अर्थ होता है युद्ध, व्यायाम या “कड़ी मेहनत करना”

कलारीपयाट्टू की कई शैलियाँ हैं, जैसे उत्तरी कलारीपयाट्टू, दक्षिणी कलारीपयाट्टू, केंद्रीय कलारिपयाट्टू। ये तीन मुख्य विचार शैलियाँ अपने पर हमला करने और और सामने वाले के हमले से स्वयं को बचाने के तरीकों से पहचानी जाती हैं। इन शैलियों का सम्बन्ध दक्षिण के अलग-अलग क्षेत्रों से है। जैसे –

दक्षिणी_कलारीपयाट्टू –

दक्षिणी कलारीपयाट्टू का सम्बन्ध त्रावणकोर से माना जाता है, इस शैली में हथियारों का प्रयोग वर्जित है यह स्कूल केवल खाली हाथ की तकनीक पर जोर देता है।

उत्तरी_कलारीपयाट्टू –

उत्तरी कलारीपयाट्टू जिसका सम्बन्ध मालाबार से है यह शैली खाली हाथों की अपेक्षा हथियारों पर अधिक बल देता है।

केंद्रीय_कलारिपयाट्टू –

केंद्रीय कलारिपयाट्टू का सम्बन्ध केरल के कोझीकोड, मलप्पुरम, पालाक्काड, त्रिश्शूर और एर्नाकुलम से है, इस पद्धति में दक्षिणी और उत्तरी शैली का मिलाजुला रूप देखने को मिलता है। यहाँ कोचीन सांस्कृतिक केन्द्र में इन तीन मुख्य शैलियों का प्रदर्शन किया जाता है।

कलारीपयाट्टू_प्रशिक्षण मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा गया है – मिथारी, कोल्थारी और अंक्थरी–

मिथारी –

इसमें सबसे पहले शरीर की मजबूती और ताकत को बढ़ाने के लिए विभिन्न कसरत कराई जाती है। एक अच्छा योद्धा बनने के लिए सबसे जरूरी है कि शरीर पूरी तरह मजबूत हो, ताकि सामने आने वाली किसी भी बाधा से निपटा जा सके।

कोल्थारी –

इस पड़ाव में अलग-अलग प्रकार के लकड़ी के हथियार होते हैं, जिनसे लड़ना सिखाया जाता है। किसी शुरूआती योद्धा को धारदार हथियारों से लड़वाना सही नहीं माना जाता। चूंकि नए योद्धा हथियारों से अनजान होते हैं, इसलिए वह खुद को क्षति पहुँचा सकते हैं। इस वजह से योद्धा की शुरूआती ट्रेनिंग लकड़ी के बने हथियारों से होती है।

अंक्थरी –

इसी तरह इस पड़ाव तक आने में योद्धा लकड़ी के हथियारों से खुद को पूरी तरह युद्ध के लायक बना लेता है। अब बस समय आता है कि उसे असली हथियार दिए जाएं ताकि वह असली जिम्मेदारी को समझ पाएं। इस पड़ाव में उसे भाले, ढाल, तलवार आदि जैसे खतरनाक हथियार दिए जाते हैं। कई बार लड़ाई में ऐसे मौके भी आ सकते हैं जिसमें योद्धा के हाथ में हथियार न हो। ऐसी परिस्थिति के लिए भी कलरी में योद्धाओं को तैयार किया जाता है। कहते हैं कि उन्हें बिना हथियार भी दुश्मन का सामना करने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है। इसके बाद यह सुनिश्चित हो जाता है कि वह किसी भी परिस्थिति में कमजोर नहीं पड़ने वाला।

इस कला के अंत में कलरी ‘मार्मा’ का विशेष प्रशिक्षण होता है। इसका उद्देश्य मानव शरीर के सभी 107 ऊर्जा बिंदुओं को जानने और सक्रिय करना होता है। इन महत्वपूर्ण बिंदुओं का उपयोग शरीर में ऊर्जा-प्रवाह को सुधारने के लिए किया जाता है।

भारतीययुद्धकलाओंकानिर्यात –

भारत ने कभी उन लोगों का इतिहास नहीं लिखा या संरक्षित नहीं किया जो भारत के लिए महत्वपूर्ण थे उनमें से एक थे बोधीधर्मन। दुनिया के महान भिक्षुओं में से एक बोधीधर्मन को जो नहीं जानता वह मार्शल आर्ट के इतिहास को भी नहीं जानता होगा। चीन में मार्शल आर्ट और कुंग फू जैसी विद्या को सिखाया था बोधीधर्मन ने।
बोधिधर्म का जन्म दक्षिण भारत में पल्लव राज्य के कांचीपुरम के राजा परिवार में हुआ था। छोटी आयु में ही उन्होंने राज्य छोड़ दिया और भिक्षुक बन गए। 22 साल की उम्र में उन्होंने संबोधि (मोक्ष की पहली अवस्था) को प्राप्त किया। प्रबुद्ध होने के बाद राजमाता के आदेश पर उन्हें सत्य और ध्यान के प्रचार-प्रसार के लिए चीन में भेजा गया। 522 ईसवी में वह चीन के महाराज लियांग-नुति के दरबार में आए। उन्होंने चीन के मोंक्स को कलारिप्पयातकी कला का प्रशिक्षण दिया ताकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। शीघ्र ही वह शिक्षार्थी इस कला के पारांगत हो गये जिसे कालान्तर शाओलिन मुष्टिका प्रतियोग्यता के नाम से पहचाना गया। बोधिधर्म ने जिस कला के साथ प्राणा पद्धति (चीं) को भी संलगित किया और उसी से आक्यूपंक्चर का समावेश भी हुआ। ईसा से 500 वर्ष पूर्व जब बुद्ध मत का प्रभाव भारत में फैला तो नटराज को बुद्ध धर्म संरक्षक के रूप में पहचाना जाने लगा। उन का नया नामकरण नरायनादेव ( चीनी भाषा में ना लो यन तिंय) पडा तथा उन्हें पूर्वी दिशा मण्डल के संरक्षक के तौर पर जाना जाता है।
देखते ही देखते यह नई युद्ध विद्या चीन से निकल और आस-पास के बाकी देशों तक फैल गई। बोधिधर्मन की सिखाई इस विद्या को ‘जेन बुद्धिज्म’ का नाम दिया गया।और इस तरह भारतीय संस्कृति से निकली मार्शल आर्ट्स अलग अलग नमो से विभिन्न देशों में फैलती चली गयी ।।

विशेष –

धनुर्वेद यजुर्वेद का उपवेद है जिसमें धनुष चलाने की विद्या का निरूपण है। वैशम्पायन द्वारा रचित नीतिप्रकाश या नीतिप्रकाशिका नामक ग्रन्थ में धनुर्वेद के बारे में जानकारी है। धनुर्वेद के अलावा इस ग्रन्थ में राजधर्मोपदेश, खड्गोत्पत्ति, मुक्तायुधनिरूपण, सेनानयन, सैन्यप्रयोग एवं राज व्यापार पर आठ अध्यायों में तक्षशिला में वैशम्पायन द्वारा जन्मेजय को दिया गया शिक्षण है। इस ग्रंथ में राजशास्त्र के प्रवर्तकों का उल्लेख है। भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिक काल में भी प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी। संहिताओं और ब्राह्मणों में वज्र के साथ ही धनुष बाण का भी उल्लेख मिलता है। भारत की सैन्यकला विश्वविख्यात है।दुनिया भर में लोग भारतीय युद्ध कला को समझते और सीखते हैं, लेकिन भारत में जन्मी सबकी जननी जिसे उस दर्जे की पहचान और लोकप्रियता नहीं मिली जिसकी वह हक़दार है। वह है कलरीपायट्टु! भारतीय संस्कृति और सभ्यता की बात करें तो उसमें बहुत कुछ है जिसने दुनिया को सभ्य बनाया। समय के साथ सब कुछ बदलता रहता है लेकिन उनमें से कुछ बदलाव लाभदायक होते हैं और कुछ नुकसानदायक। कुछ बातों को छोड़ने से आपकी पहचान मिट जाती है और इसके दुष्परिणाम आपकी आने वाले पीढ़ियों को भुगतना होते हैं। आप जब भी संस्कृति और सभ्यता की बात करेंगे तो आपको निश्चित ही रूढ़िवादी या कट्टरवादी माना जाने लगेगा। ऐसी मानसिकता को आपके दिमाग में भरने वाले वे ही लोग हैं, जो आपकी संस्कृति और सभ्यता को आधुनिकता या बौद्धिकता के नाम पर समाप्त करना चाहते हैं। आपको अपने देश और संस्कृति से विद्रोह करना सिर्फ एक दिन में नहीं सिखाया गया है। यह तो सैकड़ों साल की गुलामी और बाजारवाद का परिणाम है। जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो उसका हिस्सा सभी धर्म, जाति, प्रांत और समाज के लोग हैं। अत: संस्कृति को बचाना उन सभी लोगों की जिम्मेदारी है जो खुद को सनातनी कहते है ।।

 ।। धर्मसंस्थापनार्थाय_सम्भवामि_युगे_युगे ।।

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