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ऐसेमिलतीहैभोगजन्यरोगोंसेमुक्ति

देह , मन एवं आत्मा में प्रतिरोधक क्षमता अभूतपूर्व में होती है और यह क्षमता इन्हें नैसर्गिक रूप से प्राप्त है ,परंतु विभिन्न कारणों से जब यह क्षमता कमजोर होती है तो इन तलों में विकृतियाँ पनपने लगती हैं , जो कालांतर में रोगों के रूप में प्रकट होती हैं । इन विकृतियों एवं रोगों के विरुद्ध जो तत्त्व खड़ा होता है , उसे ही प्रतिरोधक ( इम्यूनिटी ) शक्ति कहते हैं । जब यह प्रतिरोधक क्षमता देह के तल में होती है तो उसे बायोइम्यूनिटी कहते हैं , मन के धरातल पर हो तो साइकोइम्यूनिटी एवं संस्कार के क्षेत्र में होने पर उसे स्प्रिचुअल ( आध्यात्मिक इम्यूनिटी) कहते हैं । प्रत्येक इम्यूनिटी का संबंध हमारे प्राण से होता है । प्राणशक्ति की वृद्धि से यह बढ़ती और घटने से घटती है ।

मानव देह की संरचना एवं क्रियाशीलता रहस्यों से आवृत है । इसे मेडिकल साइंस के माध्यम से जानने का प्रयास तो कर सकते हैं , परंतु पूरी तरह से नहीं क्योंकि देह के कई आयाम है और उसका हर आयाम , न दिखाई देने वाले सूक्ष्मशरीर से बड़ी गहराई से जुड़ा में होता है । जब तक स्थूल एवं सूक्ष्म के बीच के इस संबंध का ठीक – ठीक पता नहीं चलता , तब तक देह की वैज्ञानिक व्याख्या आधी – अधूरी ही मानी जाएगी फिर भी देह का वैज्ञानिक विश्लेषण बड़ा महत्त्व रखता है ।

वैज्ञानिक देह की प्रतिरोधक क्षमता को बायोइम्यूनिटी कहते हैं । । बायोइम्यूनिटी शरीर का ऐसा सुरक्षाकवच है , जो रोगों को अपने अंदर प्रवेश नहीं करने देता । यह सुरक्षा – कवच अमोघ होता है और तीन घेरों में विभक्त होता है । अर्थात यदि रोगकारक तत्त्व शरीर में प्रवेश करके रोग फैलाता है तो फिर इन तीनों कवचों को ध्वस्त करके आगे बढ़ता है ।

जैव वैज्ञानिक कहते हैं कि शरीर का प्रथम सुरक्षा घेरा त्वचा , म्यूकस झिल्ली तथा त्वचा से स्रावित होने वाले स्रवण के द्वारा आवृत होता है । यह घेरा बैक्टीरिया आदि को वहीं रोककर उसे समाप्त कर देता है । यदि यह घेरा इसे रोकने में अक्षम एवं असमर्थ रहा तो दूसरा घेरा क्रियाशील हो जाता है । इसमें रक्त में पाए जाने वाले डब्ल्यू०बी०सी० ( White Blood Carpusules ) आते हैं । ये रक्तकणिका रोगकारक तत्त्वों को निगल जाते हैं और इसके लिए ये एंटीमाइक्रोबियल प्रोटीन का सहारा लेते हैं । शरीर के तीसरे सुरक्षा मोर्चे पर लिंफोसाइट तैनात होता है । बैक्टीरिया एवं वाइरस को समाप्त करने के लिए यह एंटीबॉडीज का निर्माण करता है ।

मानव शरीर में प्रतिदिन १०० मिलियन लिंफोसाइट्स का निर्माण करता है । इसका तात्पर्य है कि शरीर अपनी सुरक्षा के लिए नित्य हजारों शक्तिशाली परमाणु बम तैयार करता है , जो उसकी सुरक्षा के लिए उपयोग में लाए जाते हैं । इस निर्माण – प्रक्रिया की लागत आँकी जाए तो विश्व में जितने भी आयुध हैं , उनकी कीमत कम पड़ जाएगी । इस प्रकार शरीर इन सरक्षा बलों के द्वारा अपनी प्रतिरोधक क्षमता में सतत अभिवृद्धि करता रहता है । यह आँकडा तब और भी चौंकाने वाला हो जाता है , जब यह पता चलता है कि लिंफोसाइट प्रति सेकंड १००० एंटीबॉडी का निर्माण करता है , जो शरीर के रक्त , लसिका , फेफड़े एवं आहारनलिका में पहुँचकर उनको सुरक्षा प्रदान करते , रोगों से बचाव करते हैं ।

लिंफोसाइट्स दो प्रकार के होते हैं । एक को बी सेल ( B – cell ) तथा दूसरे को टी – सेल ( T – cell ) कहते है हैं । बी – सेल मज्जा में बनता है , जबकि टी – सेल थायमस में निर्मित होता है । इनकी कार्यपद्धति अनोखी होती है । बी – सेल में एक प्रकार का मेमोरी – सेल होता है , जो शरीर में रोगकारक तत्त्वों के प्रवेश करते ही क्रियाशील हो जाता है तथा अपनी संख्या में भारी बढ़ोत्तरी करता है , परंतु रोग के प्रभावी होने से यह काम करना बंद कर देता है । इनकी क्रियाशीलता बने रहने तक शरीर में रोग पनप ही नहीं सकता । रोग फैलाने वाले तत्त्व को एंटीजेन कहते हैं तथा इनको मार गिराने वाले तत्त्व को एंटीबॉडी कहते हैं।

एंटीबॉडी कई प्रकार के होते हैं । जैसे Ig4, IgM, IgA, IgE, 184 रक्त एवं प्लेसेंटा में पाया जाता है । यह विषाक्त तत्त्व को बाहर निकालता है । यह नवजात शिशु को सुरक्षा प्रदान करता है तथा वाइरस संबंधित रोगों को दूर करता है । IgM संक्रमण को समाप्त करता है । IgA शरीर के सभी प्रकार के स्रावों में पाया जाता है ; जैसे पसीना . आँस . लार आदि । इससे बैक्टीरिया दुर होते हैं।

• IgE एलर्जी से रक्षा करता है । इस तरह बायोइम्यूनिटी एक ऐसी प्रक्रिया है , जो शरीर को सुरक्षा प्रदान करती है तथा रोगों से बचाव करती है । बायोइम्यूनिटी के समान साइकोइम्यूनिटी होती है । साइकोइम्यूनिटी का तात्पर्य है मन को मानसिक संघर्षों , चुनौतियों एवं विकारों से सुरक्षा प्रदान करना । मन की क्षमता अपार है , परंतु नकारात्मक विचारों से इसे भारी क्षति होती है । मन का सुदृढ़ एवं मजबूत होने का मतलब है साइकोइम्यूनिटी का मजबूत होना । इसके मजबूत होने से मन मानसिक विकारों से आक्रांत नहीं हो पाता है तथा यथाशीघ्र यहाँ से निजात पा जाता है । सामान्य रूप से जब कोई हमें कुछ कहता है और वह प्रशंसा के रूप में होता है तो हम अत्यंत खुश हो जाते हैं , परंतु निंदा के रूप में प्रकट होता है तो हम व्यथित हो जाते हैं । निंदा , आक्षेप , अपमान , कटाक्ष , उपेक्षा आदि चीजें हमारी मानसिकता के अनुरूप प्रभाव डालती हैं । यदि हम अंतर्मुखी प्रवृत्ति के होते हैं तो ये चीजें हमें उदास , निराश एवं हताश कर देती हैं , लेकिन प्रकृति बहिर्मुखी होती है तो यही चीजें हमें तनाव एवं उद्विग्नता से आक्रांत कर देती हैं और व्यवहार को आक्रामक बना देती हैं ।

साइकोइम्यूनिटी के दुर्बल होने से हम पल भर में खुश हो जाते हैं और पल भर में रोने चिल्लाने लगते हैं । : इस संदर्भ में योग मनोविज्ञानी कहते हैं कि ऐसा होने के पीछे मानसिक सहनशीलता की कमी दृष्टिगोचर होती है । जब सहनशीलता में कमी होती है तो थोड़ी सी भी चीजें मन को अस्थिर एवं असहज कर देती हैं । फिर अस्थिर , असहज एवं चोट खाया मन उसी तरह से व्यवहार करने लगता है । ऐसे व्यक्ति में व्यावहारिक समस्याएँ अधिक देखने को मिलती हैं । ये कभी तो हाना अधिक अपनापन दिखाएँगे और सहयोग के लिए तैयार हो जाएँगे कि कोई स्वयं का अपना भी इतना नहीं कर सकता , परंतु दूसरे पल ही किसी शत्रु से भी अधिक बैर दिखाने लगते हैं । यह अस्थिर एवं असामान्य व्यवहार साइकोइम्यूनिटी कम होने की दशा की ओर संकेत करता है ।

आधुनिक मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार के विश्लेषण पर विश्वास करता है , पर व्यवहार के संचालन का आधार साइकोइम्यूनिटी है । यह बात अब स्पष्ट होने लगी है । मजबूत एवं सुदृढ़ साइकोइम्यूनिटी हो तो कोई भी कटाक्ष एवं व्यंग्य कोई विशेष प्रभाव नहीं डाल पाता है । ऐसा व्यक्ति कभी व्यंग्य और निंदा से घबराता नहीं है और न ही इसे सुनकर अपना कार्य करना बंद करता है . बल्कि वह तो इसे चुनौती मानकर और अच्छे ढंग से कार्य करने में संलग्न हो जाता है , ताकि वह अपने कार्यों के द्वारा इन सबको उचित जवाब दे सके : अर्थात साइकोइम्यूनिटी हमें चिंता , अवसाद आदि मनोरोगे एवं मनोविकारों से सुरक्षा प्रदान करती है । इसका मजबूत होना यह दरसाता है कि यदि मानसिक चुनौतियाँ हों तो हम कितनी अच्छी तरह उसका सामना कर सकते हैं और कितनी शीघ्रता से वहाँ से सुरक्षित बाहर निकल आते हैं ।

जिस प्रकार साइकोइम्यूनिटी मानसिक अवस्था ‘ को सदृढ करती है , ठीक उसी प्रकार स्प्रिचुअल ( आध्यात्मिक ) इम्यूनिटी संस्कार एवं प्रारब्धजन्य समस्याओं एवं रोगों से बचाती है । संस्कार व्यक्ति विशेष के साथ पिछले जन्मों के अच्छे – बुरे संबंधों को दरसाता है ।

संस्कार जगने का मतलब है अच्छे बुरे लोगों का किसी समय विशेष में मिलना । अच्छे संस्कार के जगने से अच्छे लोग मिलते हैं । एवं बुरे संस्कार के जगने से बुरे व्यक्ति अपना हिसाना लेने आते हैं । ये दुर्दिन नियत अवधि तक रहते हैं । इनमें फेर बदल बडा कठिन होता है । संस्कार के समान भोग होता है । #भोग अर्थात अपने अच्छे बुरे कर्मों का परिपाक जब बुरा भोग उदय होता है तो कुछ भी अच्छा नहीं होता है ; सब कुछ विपरीत हो जाता है । रोग , शोक , पीड़ा , सामाजिक अपमान , आर्थिक क्षति आदि इसी के परिणाम होते हैं । यह किमी भी बाहरी उपचार से कम नहीं होता है । व्यक्ति बेबस होता है उसे झेलने के लिए । झेलने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं होता है दरअसल समस्याओं का मूल कारण समझ में नहीं आने के कारण उसका उचित समाधान नहीं मिल पाता है , परंतु #आध्यात्मिक_इम्यूनिटी व्यक्ति के संस्कारजन्य भोगसंबंधी विक्षेपों एवं रोग के साथ आँखमिचौनी का खेल खेलती है . जो किसी को असाध्य एवं असंभव लगता है , वह उसके साथ बच्चों जैसा खेल खेलती है । इसके द्वारा वह व्यक्ति केवल अपने संस्कारों को ही क्षीण नहीं करता , अपना भोग ही नहीं काटता , बल्कि याचना एवं सहायता के लिए उठे औरों के असंभव एवं जटिल प्रारब्ध को भी काटकर बराबर कर देता है ।

यह होता कैसे है ? इस संदर्भ में आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न ऋषि कहते हैं कि ऊपरी तल पर विचारों की अनगिनत लहरों से मन चंचल रहता है । थोड़ा गहरे में यादों व आग्रहों के ढेर लगे रहते हैं । इससे भी गहराई में संस्कारों व कर्मराशि की परत है । ये सभी चित्त में , आवरण बन छाए हुए हैं । इनमें से बहुत सी चीजें प्रकृति में एकदूसरे के समान भी हैं और विरोधी भी और इसी । कारण मन भटकता रहता है ।

यह भटकाव तभी रुकना संभव है , जब मन का उन संस्कारों , विचारों एवं यादों से पीछा छूटे जो कि इंद्रियों के विभिन्न विषयों में रस ले रहे में हैं । यह रसासक्ति किसी प्रतिज्ञा या संकल्प से नहीं जाती । यह तो बस मन के परिष्कृत होने पर जाती है । यह जाती है मन में भगवान के प्रति प्रेम एवं भक्ति होने से या योग के अभ्यास से । ऐसा न हो सका तो बचपन हो या जवानी अथवा बुढ़ापा , बात एक ही बनी रहती है – कभी तो मन स्वाद में ललचाता है तो कभी किसी रूप में उलझता है तो कभी उसे कोई गंध खींचती है तो कभी उसे किसी के शब्द आकर्षित करते हैं । इस खींचतान में सब कुछ उलझ कर धरा का धरा रह जाता है।

स्प्रिचुअल_इम्यूनिटी इस उलझन को दूर करती है । यह मन को उसकी शक्ति से संपन्न कर देती है , मन को परिष्कृत करती है , जिससे इनके विक्षेप निरर्थक हो जाते हैं , परंतु यह तभी संभव है , जब मन का रस , मन की आसक्ति थोड़ी उन्नत , उच्चस्तरीय एवं ईश्वरीय हो । यह कहने – समझने से नहीं होता । इसके लिए अनुभव आवश्यक है । तप एवं योग के प्रयोग से मन स्वच्छ होता जाता है । भगवान के स्मरण एवं भक्ति से या योग के अभ्यास से यह स्थिति बनती है । जीवन के कड़ए – कठिन अनुभव भी यदा कदा अंतर्विवेक को जगा देते हैं । इस प्रकार मन की अवस्था के बदलते ही सारी समस्याएँ स्वतः छूट जाती हैं , गिर जाती हैं । इस प्रकार स्प्रिचुअल इम्यूनिटी संस्कार को समाप्त करती है , भोग को काटती है तथा व्यक्ति को शारीरिक , मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्रदान करती है ।

  

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