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छठ : वनस्पति विज्ञान का भी पर्व

कार्तिक मास पूरा ही प्रकृति में वनस्पति, औषध, कृषि और उसके उत्पाद के ज्ञान की धारा लिए है। अन्नकूट के मूल में जो धारणा रही, वह इस ऋतु में उत्पादित धान्य और शाक के सेवन आरंभ करने की भी है। अन्न बलि दिए बिना खाया नहीं जाता, इसी में भूतबलि से लेकर देव बलि तक जुड़े और फिर गोवर्धन पूजा का दिन देवालय देवालय अन्नकूट हो गया।

छठ पर्व इस प्रसंग में विशिष्ट है कि कुछ फल इसी दिन दिखते है। डलिए भर भर कर फल निवेदित किए जाते हैं, सूर्य को निवेदित करने के पीछे वही भाव है जो कभी मिस्र और यूनान में भी रहा। छठ तिथि का ध्यान ही फल मय हुआ क्योंकि छह की संख्या छह रस की मानक है। भोजन, स्वाद और रस सब षट् रस हैं। इस समय जो फल होते हैं, वो बिना चढ़ाए महिलाएं खाती नहीं है।

बांस के डलिए भरे फलों में शाक सहित रसदार फल भी होते हैं : केला, अनार, संतरा, नाशपाती, नारियल, टाभा, शकर कंदी, अदरक, हल्दी और काला धान जिसे साठी कहते हैं और जिसका चावल लाल होता है, अक्षत के रूप में प्रयोग होता है। श्रीफल, सिंघाड़ा, नींबू, मूली, पानी फल अन्नानास… सबके सब ऋतु उत्पाद। ईख का तोरण द्वार और बांस की टोकरी… यह सब वंश पूर्वक अर्चना है। फिर, चवर्णक और मसालों में गिनिए : पान, सुपारी, लोंग, इलायची, सूखा मेवा… है न रोचक तथ्य और सत्य। प्रकृति ने जो कुछ हमें दिया, उसका अंश हम उत्पादक शक्तियों को निवेदित करके ही ग्रहण करें। यह भाव भारतीयों का अनुपम विचार है जिसका समर्थन गीता भी करती है।
जय जय।

अक्सर बिहार से बाहर रहने वाले मित्र छठ से जुड़ी जानकारी चाहते हैं तो आज विशेष रूप से उनके लिए एक ज्ञानोपरक पोस्ट –
छठ मैया कौन-सी देवी हैं? सूर्य के साथ षष्ठी देवी की पूजा क्यों?
कई लोगों के मन में ये सवाल उठता है कि छठ या सूर्यषष्ठी व्रत में सूर्य की पूजा की जाती है, तो साथ-साथ छठ मैया की भी पूजा क्यों की जाती है? छठ मैया का पुराणों में कोई वर्णन मिलता है क्या?
वैसे तो छठ अब केवल बिहार का ही प्रसिद्ध लोकपर्व नहीं रह गया है. इसका फैलाव देश-विदेश के उन सभी भागों में हो गया है, जहां इस प्रदेश के लोग जाकर बस गए हैं. इसके बावजूद बहुत बड़ी आबादी इस व्रत की मौलिक बातों से अनजान है.
आगे इन्हीं सवालों से जुड़ी प्रामाणिक जानकारी विस्तार से दी गई है.
पुराणों में षष्ठी माता का परिचय:
श्वेताश्वतरोपनिषद् में बताया गया है कि परमात्मा ने सृष्टि रचने के लिए स्वयं को दो भागों में बांटा. दाहिने भाग से पुरुष, बाएं भाग से प्रकृति का रूप सामने आया.
ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में बताया गया है कि सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी के एक प्रमुख अंश को देवसेना कहा गया है. प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक प्रचलित नाम षष्ठी है. पुराण के अनुसार, ये देवी सभी बालकों की रक्षा करती हैं और उन्हें लंबी आयु देती हैं.
”षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्ठी प्रकीर्तिता |
बालकाधिष्ठातृदेवी विष्णुमाया च बालदा ||
आयु:प्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी |
सततं शिशुपार्श्वस्था योगेन सिद्धियोगिनी” ||
(ब्रह्मवैवर्तपुराण/प्रकृतिखंड)
षष्ठी देवी को ही स्थानीय बोली में छठ मैया कहा गया है. षष्ठी देवी को ब्रह्मा की मानसपुत्री भी कहा गया है, जो नि:संतानों को संतान देती हैं और सभी बालकों की रक्षा करती हैं. आज भी देश के बड़े भाग में बच्चों के जन्म के छठे दिन षष्ठी पूजा या छठी पूजा का चलन है.
पुराणों में इन देवी का एक नाम कात्यायनी भी है. इनकी पूजा नवरात्र में षष्ठी तिथि को होती है.
सूर्य का षष्ठी के दिन पूजन का महत्व:
हमारे धर्मग्रथों में हर देवी-देवता की पूजा के लिए कुछ विशेष तिथियां बताई गई हैं. उदाहरण के लिए, गणेश की पूजा चतुर्थी को, विष्णु की पूजा एकादशी को किए जाने का विधान है. इसी तरह सूर्य की पूजा के साथ सप्तमी तिथि जुड़ी है. सूर्य सप्तमी, रथ सप्तमी जैसे शब्दों से यह स्पष्ट है. लेकिन छठ में सूर्य का षष्ठी के दिन पूजन अनोखी बात है.
सूर्यषष्ठी व्रत में ब्रह्म और शक्ति (प्रकृति और उनके अंश षष्ठी देवी), दोनों की पूजा साथ-साथ की जाती है. इसलिए व्रत करने वालों को दोनों की पूजा का फल मिलता है. यही बात इस पूजा को सबसे खास बनाती है.
महिलाओं ने छठ के लोकगीतों में इस पौराणिक परंपरा को जीवित रखा है. दो लाइनें देखिए:
”अन-धन सोनवा लागी पूजी देवलघरवा हे,
पुत्र लागी करीं हम छठी के बरतिया हे ‘
दोनों की पूजा साथ-साथ किए जाने का उद्देश्य लोकगीतों से भी स्पष्ट है. इसमें व्रती कह रही हैं कि वे अन्न-धन, संपत्ति आदि के लिए सूर्य देवता की पूजा कर रही हैं. संतान के लिए ममतामयी छठी माता या षष्ठी पूजन कर रही हैं.
इस तरह सूर्य और षष्ठी देवी की साथ-साथ पूजा किए जाने की परंपरा और इसके पीछे का कारण साफ हो जाता है. पुराण के विवरण से इसकी प्रामाणिकता भी स्पष्ट है.
कुछ खास बातें हैं जैसे कि माता स्वयं प्रकृति का रूप हैं तो प्रकृति खुद को स्वस्थ एवं स्वच्छ देखना चाहती है, तो स्वच्छता का महत्व बहुत ही ज्यादा है । कहीं कहीं छठी माता को भगवान भास्कर की धर्मबहिन भी माना गया है जो पूर्णतः सत्य है । साथ ही छठी माता को कात्यानी माता के जगह कभी कभी स्कंदमाता रूप भी माना गया है वो एक बहस का विषय है जिसके बारें में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नही है तो बहस की गुंजाइश थोड़ी कम है बहरहाल आप सभी मित्रों को समर्पित है ये लेख जो भी छठ व्रत के बारे में जानना चाहते थे।

छठ एक अलग नजर
अक्सर ही भारत भूमि में व्यर्थ जलकुंभी की तरह उगे वामपंथी और फ़र्ज़ी नारीवादी और फ़र्ज़ी दलित चिंतक हिन्दू समाज एवं सनातन धर्म को नारी एवं दलित विरोधी बताते नही थकते। आम तौर पर समाज और इतिहास को गलत तरीके से प्रस्तुत कर सनातन धर्म एवं भारत भूमि की एक नकारात्मक तस्वीर प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की जाती है , आमतौर पर हमारा समाज जो धीरे धीरे अपने इतिहास एवं संस्कृति से विमुख होता जा रहा है इन्ही फ़र्ज़ी वामपंथियों की प्रस्तुत तस्वीर को अपना इतिहास मानने लगता है और स्वधर्म एवम स्वसंस्कार से पथभ्र्ष्ट हो जाता है।
ऐसे विकट समय मे आता है लोक आस्था का महापर्व “छठ” जो इन कुटिल मानसिकता वाले लोगो के द्वारा बनाई हर भ्रांति को तोड़ता है । सबसे पहले नारीविरोधी तस्वीर को , तक़रीबन 90 प्रतिशत छठव्रती महिला ही होती जिनकी सहायता घर के सभी पुरुष और महिलाएँ मिल कर करते हैं । दुसरी बात भारतीय समाज का ब्राम्हण को विशेष दर्जा देना , छठ महापर्व एक ऐसा त्योहार है जिसमे न किसी पंडित की जरूरत पड़ती है न किसी मन्त्र की । तीसरी चीज की भारतीय समाज जातिवादी है और छूत अछूत जैसी परम्परा है , तो इसका जवाब है कि पर्व की सबसे जरूरी सामग्री में से सूप और दौड़ा , समाज के सबसे निचले तबके से आने वाली डोम जाती के लोग ही बनाते हैं , फल सब्जी उगाने वाले ज्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से ही आते है , बेचने वाले भी वैश्य या अन्य पिछड़े वर्गों के हीं लोग होते हैं , बाजा बजाने वाले भी आम तौर पे चमार नाम के समाज से आते है जोकि अनुसूचित जाती के एक प्रमुख अंग हैं , इसी तरह कहार , कोइरी , कुर्मी , नाई(नाउन) आदि अन्य जातियों को भी रोजगार मिलता है , एवम हर समाज के लोगो का योगदान रहता है ।
अक्सर वामपंथियों का कथन होता है कि पूजा पाठ पे ब्राम्हण एवम अन्य ऊपरी जातियां जैसे कायस्थ , भूमिहार , राजपूत आदि का वर्चस्व होता है उसके उलट छठ हर वर्ग हर समाज हर जाति में समान रूप से मनाया जाता है , सभी प्रकार के व्रति एक साथ एक ही घाट पे बिना किसी भेद भाव के अर्घ्य अर्पण करते हैं । जिससे ये तो पूर्णरूपेण साबित होता है कि वामपंथियों , फ़र्ज़ी नारीवादियों एवम फ़र्ज़ी दलित चिंतकों का भारत एवं सनातन धर्म का नकारात्मक चित्रण पूर्णतया मिथकीय है और साजिश है हमारे गौरवशाली संस्कार एवम संस्कृति के खिलाफ ।
एक अन्य खास पहलू छठ व्रत में हर तबके को रोजगार के साथ मुद्रा का बहुत बड़े पैमाने पे हस्तांतरण होता है जिससे अर्थव्यवस्था पटरी पे बनी रहती है ।
खैर छठी माई के किरपा रउवा सबे लोग पे बनल रहे , जय छठी मैया।

इक्कीसवीं शताब्दी में नालेज इज पावर है… है ना…..और छठ आर्यावर्त के उस इलाके का उत्सव है जहाँ पंडित जी के पतरा से ज्यादा ज्ञान पण्डिताइन के अंचरा में रहता है।

सनातन विरोधियों को आमंत्रित करता हूँ कि बिहार और पूर्वांचल में विशेष रूप से मनाए जाने वाले दुनिया के सबसे ‘इको फ्रेंडली’ ओर अपने मूल में संभवतः सबसे ‘फेमिनिस्ट’ त्योहार छठ महापर्व का लैंगिक विमर्श या जातीय विमर्श के लिहाज से अध्ययन करें।

आज जब बाजार ने ‘फेमिनिस्ट डिस्कोर्स,देहमुक्ति इत्यादि’ को ही बाजारवाद का हथियार बना दिया है, छठ अपने मूल स्वभाव में सह-अस्तित्व और धारणीय विकास के साथ साथ स्त्री सशक्तिकरण का एक महत्वपूर्ण उत्सव प्रमाणित हुई है।

फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘परती परिकथा’ का एक पात्र स्त्री लोकगीतों के माध्यम से लोकमन और लोकजीवन को समझने की कोशिश करता है। अब इसी प्रकाश में देखिए ना छठ पर्व के इन अमर-गीतों को ….

“केरवा जे फरेला घवद से ओहपे सुग्गा मेड़राय…”…एक ही गीत में तुम्हारे सारे सैद्धांतिक ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ और ‘बायोडायवर्सिटी प्रिजर्वेशन’ सब हवा हो जाते हैं।

और ये “कांचहि बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए…..”..बहंगी जो लचक रही है न..ये बिहार और पूर्वांचल के गरीब किसान की श्रद्धा और समृद्धि का बोझ है।

छठ पर्व में सुरसरि गंगा भी अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ उपस्थित हैं……’मइया ए गंगा मइया,मांगिलां हम वरदान…’

कैसे दो विपरीत ध्रुवों को एक साथ साधा जाता है…. यहाँ देखिए..
“ससुरा में मांगिले अन्न धन लक्ष्मी, नैहर सहोदर जेठ भाय हे छठी मइया….”

जिन्हें लगता है हिन्दुस्तानी औरत बस आंगन की तुलसी है…उनके लिए..
“छठी मईया सुतेली ओसारवा लट देली छितराय…”
छठ सबसे बड़ा स्वच्छ भारत अभियान भी है….

“कोपि-कोपि बोलेली छठी माई सूनि ए सेवका लोगवा हमरी घाटे दुबिया उपज गईले मकरी बसेरा लेले..”

कुछ सनातन धर्मी भी कहते हैं कि छठ सिर्फ प्रत्यक्ष देवता सूर्य की उपासना का त्योहार है ……सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च” जिसका अर्थ है सूर्य जगत की आत्मा है, क्योंकि सूर्य की ऊर्जा व रोशनी ही जगत में ऊर्जा व चेतना भरती है।
सूर्य – ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् (यजु. 33। 43, 34। 31)
देवी भागवत पढ़ लें एक बार वहाँ षष्ठी देवी का पूरा चरित्र है।

खैर, छठ के अनूठे स्वरूप को बर्बाद करने की कोशिश करने वाले तत्व भी पूरी मुस्तैदी से आ डंटे हैं। कल ही गांव में गाना सुना-“कांचहि बांस के बहंगिया बहंगी करे चोयं चोंय चोंय”।

कार्तिक शुक्ल षष्ठी एवं सप्तमी तिथि को पारंपरिक रूप से विवस्वत् षष्ठी का पर्व मनाया जाता है। इसमें प्रधान रूप से संज्ञा सहित सूर्य की पूजा है।

पौराणिक परंपरा में संज्ञा को सूर्य की पत्नी कहा गया है। इस पर्व की परंपरा कम से कम 1000 साल प्राचीन है क्योंकि गहड़वाल राजा गोविंदचंद्र (12वीं शती का पूर्वाद्ध) के सभा पंडित लक्ष्मीधर कृत्यकल्पतरु में इस दिन सूर्य की पूजा का विधान किया है।

मिथिला के धर्मशास्त्री रुद्रधर (15वी शती) के अनुसार इस पर्व की कथा स्कंदपुराण से ली गई है। इस कथा में दुख एवं रोग नाश के लिए सूर्य का व्रत करने का उल्लेख किया गया है- भास्करस्य व्रतं त्वेकं यूयं कुरुत सत्तमा:। सर्वेषां दु:खनाशो हि भवेत्तस्य प्रसादत:।

षष्ठी तिथि को निराहार रहकर संध्या में नदी के तट पर जाकर धूप, दीप, घी, में पकाये हुए पकवान आदि से भगवान भास्कर की आराधना कर उन्हें अ‌र्घ्य दें। यहां अ‌र्घ्य-मंत्र इस प्रकार कहे गए हैं-

“नमोऽस्तु सूर्याय सहस्रभानवे नमोऽस्तु वैश्वानर जातवेदसे। त्वमेव चाघर्य प्रतिगृह्ण गृह्ण देवाधिदेवाय नमो नमस्ते।। नमो भगवते तुभ्यं नमस्ते जातवेदसे। दत्तमघ्र्य मया भानो त्वं गृहाण नमोऽस्तु ते।।
एहि सूर्य सहस्त्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणाघ्र्य दिवाकर।। एहि सूर्य सहस्त्रांशो तेजोराशे जगत्पते। गृहाणाघ्र्य मया दत्तं संज्ञयासहित प्रभो।”

शिव की शक्ति से उत्पन्न कार्तिकेय को छह कृतिकाओं ने दूध पिलाकर पाला था। अत: कार्तिकेय की छह माताएं मानी जाती हैं। और उन्हें षाण्मातर् भी कहा जाता है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि कृतिका नक्षत्र छह ताराओं का समूह भी है तथा स्कंद षष्ठी नाम से एक व्रत का उल्लेख भी है। बच्चे के जन्म के छठे दिन स्कंदमाता षष्ठी की पूजा भी प्राचीनकाल से होती आयी है। अत: सूर्य-पूजा तथा स्कंदमाता की पूजा की पृथक परंपरा एक साथ जुड़कर सूर्यपूजा में स्कंदषष्ठी समाहित हो गई है, किन्तु लोक संस्कृति में छठी मैया की अवधारणा सुरक्षित है।
शुभकामनाएं
बधाई।

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