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वैदिक ऋषियों का विज्ञान
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भारत का इतिहास उतना ही पुराना है जितना इस पृथिवी की आयु अर्थात् जबसे इस पृथिवी पर प्राणियो का जीवन है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार पृथिवी का निर्माण होकर इस पर आज से १,९६,०८,५३,१२१ वर्ष पहले मनुष्यों की उत्पत्ति वा उनका आविर्भाव हुआ था।

सृष्टि की उत्पत्ति के पहले ही दिन ईश्वर ने बड़ी संख्या में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न स्त्री-पुरुषों में से चार सबसे अधिक पवित्रात्माओं अग्नि, वायु, आदित्यऔर अंगिरा को एक-एक वेद का ज्ञान दिया था।
यह वेद ज्ञान सभी सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। ईश्वर चेतन तत्व व सर्वव्यापक होने के कारण सृष्टि के समस्त ज्ञान व विद्याओं का आदि स्रोत है। उसने अपनी उसी ज्ञान, विद्या व सामर्थ्य से जड़ व कारण प्रकृति से इस संसार को बनाया है और चला भी रहा है।
हमारे वैज्ञानिक उसके उस ज्ञान व नियमों की सृष्टि की रचना का अध्ययन कर खोज करते हैं। इस ज्ञान का उपयोग कर ही नाना प्रकार के जीवन रक्षा व सुविधा के यन्त्र, उपकरण व मशीनों आदि का निर्माण संसार में हुआ है। हमारा आज का यह ज्ञान विज्ञान कोई बहुत पुराना नहीं है। आज यदि चार व पांच शताब्दी पीछे देखें तो यूरोप में ज्ञान विज्ञान के बुनियादी नियमों की खोज भी नहीं हुई थी।

इशाक न्यूटन, इंग्लैण्ड (25 दिसम्बर 1642 – 20 मार्च, 1726),
आकर्मिडीज ( 287-212 BC),
गैलीलियो, इटली (15 फरवरी 1564-8 जनवरी 1642) जैसे वैज्ञानिक विगत 500 से लेकर 2300 वर्षों के अन्दर ही हुए हैं। इससे पूर्व यूरोप सहित सारे विश्व में विज्ञान से रहित मनुष्य जीवन का अनुमान लगाया जा सकता है। दूसरी ओर महाभारत युद्ध के समय भारत की राजव्यवस्था पर विचार करते हैं तो देखते हैं कि हमारा देश धन-धान्य, वैभव व वैज्ञानिक उन्नति से सुसमृद्ध था। महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ कर स्वयं को चक्रवर्ती राजा घोषित ही नहीं अपितु उसे अपने बल व पराक्रम से सिद्ध भी किया था। उन दिनों हमारे पास आधुनिक हथियार थे जिनके नाम ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र आदि थे। श्रीकृष्ण जी के पास एक अद्भूद अस्त्र “सुदर्शन चक्र” था जिसकी विशेषता थी कि इसे जिस व्यक्ति का वध करने के लिए छोड़ा जाता था, यह उसका वध करके पुनः श्रीकृष्ण जी के पास लौट आता था।

बाल्मिीकी रामायण अति प्राचीन ग्रन्थ है और इसका काल महाभारत काल से भी सहस्रों वर्ष पूर्व है। रामायण ग्रन्थ की रचना महर्षि बाल्मिीकी ने की थी। महर्षि शब्द का अर्थ ही यह है कि ऐसा मनुष्य जो चार वेदों व उनके मन्त्रों के अर्थों का यथार्थ ज्ञान रखता है। सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ होने के कारण महर्षि बाल्मिकी ‘वेद’ में निहित यथार्थ ज्ञान व विज्ञान को भली भांति जानते थे। उन्होंने लिखा है कि श्री रामचन्द्र जी अकेले ही शताधिक शस्त्रधारी रावण सेना के सैनिकों से युद्ध कर उन्हें पराजित करते थे व उनका वध कर डालते थे। मुख्यतः रामचन्द्र जी के पास धनुष व बाण होते थे। यह धनुष आजकल के धनुष-बाण न होकर वैदिक ऋषियों की एक अद्भुत खोज का परिणाम थे जिनमें किसी उत्कृष्ट वैज्ञानिक तकनीकी का प्रयोग हुआ था और वह शत्रुपक्ष के लिए गोपनीय व अज्ञ थी तथा प्रतिपक्षी सेना के पास उपलब्ध नहीं थी। राम व रावण युद्ध में श्री राम की विजय इस बात का सूचक है कि राम के पास अस्त्र व शस्त्र रावण सेना से उत्तम कोटि के थे, राम का शारीरिक बल, बौद्धिक बल व क्षमतायें भी रावण व उनके सहयोगियों से कहीं अधिक थी, तभी तो वह युद्ध जीते थे। इससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में हमारे ऋषि अपनी प्रजा की रक्षा के लिए युद्ध व सैन्य सामग्री पर विशेष ध्यान देते थे और उन्होंने आज उपलब्ध शस्त्रास्त्रों से अधिक उपयोगी तकनीक विकसित की हुई थी।

विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ” इन्द्रविजय ” नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋषियों ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था । ग्रंथो में विभिन्न देवी देवता , यक्ष , विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं इस प्रकार के उल्लेख आते हैं । त्रिपुरा याने तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था , जो पृथ्वी, जल, व आकाश में आ जा सकते थे और उस समय आर्यवर्त के शासक महान वैज्ञानिक व तपस्वी भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया।

रामायण में पुष्पक विमान का वर्णन है । महाभारत में श्री कृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है ।

भागवत में कर्दम ऋषि की कथा आती है । तपस्या में लीन रहने के कारण वे अपनी पत्नी की ओर ध्यान नहीं दे पाए । इसका भान होने पर उन्होंने अपने विमान से उसे संपूर्ण विश्व कादर्शन कराया ।

उपर्युक्त वर्णन जब आज का तार्किक व प्रयोगशील व्यक्ति सुनता या पढ़ता है तो उसके मन में स्वाभाविक विचार आता है कि यें सब कपोल कल्पनाएं हैं मानव के मनोंरंजन हेतु गढ़ी कहानियॉ हैं । ऐसा विचार आना सहज व स्वाभाविक है क्योंकि आज देश में न तो कोई प्राचीन अवशेष मिलते हैं जों सिद्ध कर सकें कि प्राचीनकाल में विमान बनाने की तकनीक लोग जानते थें ।
सौभागय से कुछ ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जो बताते हैं कि भारत में प्राचीनकाल में न केवल विमान विद्या थी, अपितु वह बहुत प्रगत अवस्था में भी थी ।
अब हम ऋषियों की कुछ वैज्ञानिक शोधों की चर्चा कर प्राचीन विज्ञान व तकनीक पर प्रकाश डालेंगे।

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🌹बैटरी व विद्युत🌹

हम सभी ने सुना है कि बैटरी का अविष्कार सबसे पहले बेंजामिन फ्रेंक्लिन ने किया था लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है | वास्तव में बैटरी का अविष्कार कई हज़ार वर्षो पूर्व अगस्त्य मुनि जी द्वारा कर दिया गया था | अपनी लिखी हुई अगस्त्य सहिंता में उन्होंने बैटरी के निर्माण की विधि का वर्णन किया है |

वे लिखते है

🌹श्लोक🌹

संस्थाप्य मृणमये पात्रे, ताम्र पत्र सुशोभितम्।
छादयेच्छिखिग्रिवेण चाद्रीभः काष्टपासुभि: ||१ ||
दस्तालोष्ठोनधिताव्यः पारदाच्छादितस्ततः।
संयोगाज्जायते तेजो मैत्रवरूण संज्ञितम्||२||

🌹अर्थ🌹

एक मिटटी का बर्तन लें और उसे अंदर तक अच्छी तरह से साफ़ कर लें |

उसमें ताम्रपत्र और शिखिग्रिवा (मोर की गर्दन के रंग जैसा पदार्थ यानि कॉपरसल्फेट) डालें और फिर उस के बाद लकड़ी के गिले बुरादे से भर दें |

उसके बाद लकड़ी के गीले बुरादे के ऊपर पारा आच्छादित दस्त लोष्ट रखें |

इस तरह दोनों के जोड़ने अथार्त तारों के जोड़ने से मित्रावरुण शक्ति की उत्पति होगी |

इस विधि का प्रयोग करके 1.138 वाल्ट की बिजली स्वदेशी विज्ञानं संशोधन संस्थान के द्वारा पैदा की गई थी |

इसके आगे लिखा है की सौ विधुत कुम्भों को शक्ति का पानी में प्रयोग करने पर पानी अपना रूप बदल कर प्राण वायु और उडान वायु में परिवर्तित हो जाता है |

इससे यह स्पष्ट होता है कि अंग्रेजों ने वास्तव में हमारा ही ज्ञान लेकर ख्यातिया प्राप्त की है |

हजारों वर्ष पूर्व ही भारतवासी बैटरी बनाकर विद्दुत धारा उत्पन्न करना जान गये थे!
विद्दुत धारा का उपयोग कर जल को हाईड्रोजन तथा आक्सीजन में तोड़ने में सफल हो चुके थे
(हाईड्रोजन का उपयोग कर’यान को आकाश मे उड़ाना’ जानते थें!
इसी प्रकार वेदो मे बार बार प्रयुक्त शब्दावली जैसे तेज,वरूण,मित्र,वरूण, प्राणवायु आदि जिन्हें आधुनिक विज्ञान के अनुसार निम्र रूपो में देंख सकते हैं-

तेज=Electric charge
मित्र=Positive charge(+)
वरूण=Negative charge(-)
प्राणवायु=Oxygen Gas
उदान वायु=Hydrogen gas
शिखिग्रिवेण=copper sulphate
पारद=mercury
यानकम्=Flying machine
जल भंग= decomposition of water
शिल्पशास्त्रम्=technology
आद्र काष्ठपांसु=moisten woodaw dust
दस्तालोष्ठ=Zink powder mond

🌹विमान विद्या के प्रमाण🌹

🌹श्लोक🌹

अनेन जल भंग: अस्ति प्राणोदानेषु वायुषु।
एवं शतांनां कुम्भानां संयोग कार्यकृत स्मृत:!!३!!
वयुबन्ध वस्त्रेण निबद्धो यान मस्तके।
उदान स्वयद्दुत्वे विभत्र्याकाश यानकम्!!४!!

🌹अर्थ🌹

ये मित्र वरूण नामक दोनो तेज जल का विभाजन प्राणवायु तथा उदानवायु में कर देते हैं!

इसके लिये इस प्रकार के सौ पात्रों का प्रयोग करना चाहिये!

वायु बन्धक वस्त्र में उदानवायु को भरना चाहिये!

उदानवायु भरे वस्त्र को किसी यान के मस्तक से बाँध देने से, यह यान को आकाश मे ले जाता है!
उपर्युक्त तथ्यो सें स्पष्ट होता हैं कि विज्ञान सम्मत ज्ञान से भरपूर वेदों को पुनः समीक्षा करके स्थापित किया जा सका, तो भारत के प्रति विश्व की दृष्टि ही बदल सकती है!!

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🌹भूगोल व पृथ्वी का ज्ञान🌹

अरबों वर्ष पूर्व भी शिल्पी लोगो को पृथ्वी के चक्कर(परिधि) की दूरी व अन्य देशों की दूरी पता थी।

मित्रों जितनी भी विद्या है वो सब भारत से निकलकर मिश्र फिर वहां से यूरोप गयी।
गणित विद्या के सूर्यसिद्धान्त व आर्यभट्टीयम् व अन्य ग्रन्थ मिलते हैं जिनमे ग्रहों के बीच की दूरी चाल सब पता लगता है। वर्तमान गणित उन्ही पर आधारित है।

प्राचीन वैदिक काल में हर घर में पानी की भाप से चलने वाले विमान थे ।
भाप से चलनेवाले विमान की स्पीड कम होती है वो वजन में भारी होते हैं पर महत्वपूर्ण बात यह है कि वो प्रदूषण नही फैलाते हैं , इसीलिए हमारे यहां के शिल्पी इंजीनियर लोग ऐसे ईंधन को चुनते थे जो प्रदूषण न फैलाये।
मनुस्मृति व महाभारत अनुसार अपने देश के लोग विदेश मे विमान आदि से जाते थे, समुद्र मे ऐसे यान से जाते थे जो भाप से चलता था। तो उनको समुद्र पार देशों की दूरी भी ज्ञात थी आईये इस वेद मन्त्र पर विचार करके पृथ्वी के एक चक्कर की दूरी निकालें।

🌹मंत्र🌹

आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातम् मधुपेयमश्विना।
प्रायुस्तारिष्टम् नी रपांसि मृक्षतम् सेधतम् द्वेषो भवतम् सचाभुवा।
ऋग्वेद १/३४/११

🌹अर्थ🌹

हे शिल्पी लोग जल और अग्नि के योग से सिद्ध उत्तम यान में बैठकर तीन दिन और तीन रात्री में महासमुद्र के पार और 11 दिन और 11 रात्री में पृथ्वी के अंत तक पहुंचो।
शत्रु और पापों को अच्छे प्रकार दूर करो।
मधुर गुण युक्त पीने योग्य औषधि के रस को पाओ, और आयु को बढाओ और उत्तम सुखों को प्राप्त करो तथा शत्रुओं का नाश करो।

मन्त्र के अनुसार तीन दिन रात अर्थात् 72 घण्टे में महासमुद्र पार देशो मे जा सकते हैं।

और 11*24= 264 घण्टे में पृथ्वी कें अन्त अर्थात् जहां से यात्रा शुरु करे घूम कर वहीं पर आ जाये मतलब एक चक्कर लगाना।

यहां देखे तो महासमुद्र की दूरी का 3.66 गुना पृथ्वी की परिधि की दूरी आ रही है। क्योंकि तीन दिन रात की 11 दिन रात से तुलना करने पर दूरी का पता लगता है।
अब
चाल =दूरी /समय
से
भाप चालित ट्रेन आदि की चाल 140km/h -165km/h रहती है।

अगर विमान की चाल 140 माने तब

*दूरी = चाल * समय* से

महासमुद्र की दूरी= 140*72
= 10080 km
*अर्थात् हमारे प्राचीन। शिल्पी लोग तीन दिन रात में लगभग 10 हजार किलोमीटर दूर देश मे जाकर व्यापार करते थे।।*

     भारत से हिन्दमहासागर पार देशो की दूरी लगभग यही आती है।

अब पृथ्वी के अंत की दूरी मतलब परिधि एक चक्कर की दूरी निकालते हैं

दूरी= 140*264
दूरी= 39960 km

पृथ्वी के एक चक्कर की दूरी लगभग 40 हजार किलोमीटर आयी ।। आज के वैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि अगर हवाईजहाज मे बैठकर पृथ्वी का एक चक्कर लगाओ तो 40 हजार किलीमीटर का सफर तय होगा।

मित्रों इस तरह हम केवल एक वेद मन्त्र से विमान की चाल पृथ्वी की त्रिज्या, परिधि, महासमुद्रो की चौड़ाई आदि ज्ञात कर सकते हैं।

प्राचीन काल व राजा भोज के समय भी जो हर घर में विमान थे जो भाप से चलते थे उनकी चाल 140 किमी पर घण्टा थी।
वैमानिक शास्त्र मे कई तरह के विमान बनाने का वर्णन है पर साधारण लोग उन्हे नही रख सकते थे। पर भाप से चलने वाला विमान जो तीन धातु व तीन कक्षो का था वो सब रखते थे।

🌹प्राचीन विमान विद्या भरद्वाज ऋषि का योगदान🌹

महर्षि भारद्वाज यंत्र सर्वस्व नामक ग्रंथ लिखा था, उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है । इस पर बोधानन्द ने टीका लिखी थी ।

आज यंत्र सर्वस्व तो उपलब्ध नहीं है तथा वैमानिक शास्त्र भी पूरा उपलब्ध नहीं है ।
पर जितना उपलब्ध होता है , उससे यह विश्वास होता है कि पूर्व में विमान एक सच्चाई थे ।
इस ग्रंथ के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है,
जिनमें प्रमुख है
अगस्त्यकृत – शक्तिसूत्र,
ईश्वरकृत – सौदामिनी कला,
भरद्वाजकृत – अशुबोधिनी, यंत्रसर्वसव तथा आकाश शास्त्र,
शाकटायन कृत – वायुतत्त्व प्रकरण,

नारदकृत – वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि ।

विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानन्द लिखते है –

🌹श्लोक🌹

निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनिः ।

नवनीतं समुद्घृत्य यन्त्रसर्वस्वरूपकम्‌ ।

प्रायच्छत्‌ सर्वलोकानामीप्सिताज्ञर्थ लप्रदम्‌ ।

तस्मिन चत्वरिंशतिकाधिकारे सम्प्रदर्शितम्‌ ॥

नाविमानर्वैचित्र्‌यरचनाक्रमबोधकम्‌ ।

अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैर्युतम ।

सूत्रैः पञ्‌चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्‌ ।

वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवतास्वयम्‌ ॥

🌹अर्थ🌹

भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यन्त्र सर्वस्व नाम का ऐसा मक्खन निकाला है , जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है । उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गए हैं ।

यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथ्ज्ञा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पाँच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है ग्रंथ के बारे में बताने के बाद भरद्वाज ऋषि विमान शास्त्र के उनसे पपूर्व हुए आचार्य उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं ।

(१) नारायण कृत – विमान चन्द्रिका
(२ ) शौनक कृत न् व्योमयान तंत्र
(३) गर्ग – यन्त्रकल्प
(४) वायस्पतिकृत – यान बिन्दु +
(५) चाक्रायणीकृत खेटयान प्रदीपिका
(६) धुण्डीनाथ – व्योमयानार्क प्रकाश

इस ग्रन्थ में भरद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा , विमान का पायलट जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया , आकाश मार्ग , वैमानिक के कपड़े , विमा के पुर्जे , ऊर्जा , यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया गया है ।

🌹(१) विमान की परिभाषा🌹

अष् नारायण ऋषि कहते हैं जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेग पूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है ।

शौनक के अनुसार- एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके , विश्वम्भर के अनुसार – एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं ।

🌹(२) रहस्यज्ञ अधिकारी ( पायलट ) –🌹

भरद्वाज ऋषि कहते हैं, विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधकारी है । शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं । उनमा भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है ।

शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं । उनका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही सफल चालक हो सकता है ।
क्योंकि विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना टेढ़ी – मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना उसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है । अतः जो इन रहस्यों को जानता है , वह रहस्यज्ञ अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकार है ।

🌹( ३ ) कृतक रहस्य –🌹

बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है , जिसके अनुसार विश्वकर्मा , छायापुरुष , मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्र के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बनाना , इसमें हम कह सकते हैं कि यह हार्डवेयर का वर्णन है ।

🌹( ४ ) गूढ़ रहस्य –🌹

यह पाँचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने की विधि दी गयी है । इसके अनुसार वायु तत्त्व प्रकरण में कही गयी रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा , वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण रहने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बन्ध बनाने पर विमान छिप जाता है ।

🌹( ५ ) अपरोक्ष रहस्य –🌹

यह नवाँ रहस्य है । इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गयी रोहिणी विद्युत्‌ के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है ।

🌹( १० ) संकोचा –🌹

यह दसवाँ रहस्य है । इसके अनुसार आसमान में उड़ने समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना ।

🌹( ११ ) विस्तृता –🌹

यह ग्यारवाँ रहस्य है । इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा करना । यहाँयह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७०के बाद विकसित हुई है ।

🌹( २२ ) सर्पागमन रहस्य –🌹

यह बाइसवाँ रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी – मेढ़ी गति से उड़ाना संभव है । इसमें काह गया है दण्ड, वक्रआदि सात प्रकार के वायु औरसूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख में जो तिरछें फेंकने वाला केन्द्र है उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद में उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश करानाचाहिए । इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति साँप के समान टेढ़ी – मेढ़ी हो जाती है ।

🌹( २५ ) परशब्द ग्राहक रहस्य –🌹

यह पच्चीसंवा रहस्य है । इसमें कहा गया है कि सौदामिनी कला ग्रंथ के अनुसार शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वज्ञरा दूसरे विमान पर लोगों की बात-चीत सुनी जा सकती है ।

🌹( २६ ) रूपाकर्षण रहस्य –🌹

इसके द्वारा दूसरे विमानों के अंदर का सबकुछ देखा जा सकता था ।

🌹( २८ ) दिक्प्रदर्शन रह्रस्य –🌹

दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा ध्यान में आती है ।

🌹( ३१ ) स्तब्धक रहस्य –🌹

एक विशेष प्रकार का अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग बेहोश हो जाते हैं ।

🌹( ३२ ) कर्षण रहस्य –🌹

यह बत्तीसवाँ रहस्य है , इसके अनुसार अपने विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्र्‌वानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक ( डिग्री जैसा कोई नाप है ) प्रमाण हो, तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्कल की कीलि ( बटन ) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार से उस शक्ति की फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है ।

🌹आकाश मार्ग🌹

महर्षि शौनक आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊँचाई विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त या whirlpools का उल्लेख करते हैं और उस ७ उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं । इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं ।

आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है –

10 km ( 1 ) रेखा पथ – शक्त्यावृत्त – whirlpool of energy

50 km ( 2 ) – वातावृत्त – wind

60 km ( 3 ) कक्ष पथ – किरणावृत्त – solar rays

80 km ( 4 ) शक्तिपथ – सत्यावृत्त – cold current

🌹वैमानिक का खाद्य –🌹

इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो इसका वर्णन है । उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे । आज ते विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे । अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना , इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके सहारे दो तीन माह जीवन चलाया जा सकता है ।

एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गयी है कि वैमानिक को दिन में ५ बार भोजन करना चाहिए । उसे कभी विमान खाली पेट नहीं उड़ाना चाहिए । 1990 में अमेरिकी वायुसेना ने 10 वर्ष के निरीक्षण के बाद ऐसा ही निष्कर्ष निकाला है ।

🌹विमान के यन्त्र –🌹

विमान शास्त्र में 31 प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है । इन यंत्रों का कार्य क्या है इसका भी वर्णन किया गया है । कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है –

( १ ) विश्व क्रिया दर्पण – इस यंत्र के द्वारा विमान के आसपास चलने वाली गति- विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक तथा पारा आदि का प्रयोग होता था ।

( २ ) परिवेष क्रिया यंत्र – इसमें स्वाचालित यंत्र वैमानिक यंत्र वैमानिक का वर्णन है ।

( ३ ) शब्दाकर्षण मंत्र – इस यंत्र के द्वारा २६ किमी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था ।

( ४ ) गुह गर्भ यंत्र -इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती है ।

( ५ ) शक्त्याकर्षण यंत्र – विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और उष्णता के वातावरण में छोड़ना ।

( ६ ) दिशा दर्शी यंत्र – दिशा दिखाने वाला यंत्र

( ७ ) वक्र प्रसारण यंत्र – इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया, तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था ।

( ८ ) अपस्मार यंत्र – युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी ।

( ९ ) तमोगर्भ यंत्र – इस यंत्र के द्वारा शत्रु युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था । तथा इसके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था ।

🌹ऊर्जा स्रोत –🌹

विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भरद्वाज उल्लेख करते हैं ।

( १ ) वनस्पति तेल जो पेट्रोल की भाँति काम करता था ।

( २ ) पारे की भाप – प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किए जाने का वर्णन है ।

इस के द्वारा अमेरिका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ , पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया । परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा की तरह प्रयोग हो सकता है । आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने की है ।

( ३ ) सौर ऊर्जा – इसके द्वारा भी विमान चलता था । ग्रहण कर विमान उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरता है इसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा । अमेरिका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं । यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापह प्रचार हुआ था ।

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🌹विमान के प्रकार –🌹

विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते हैं । मंत्रिका प्रकार के विमान जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी वह सतयुग और त्रेता युग में सम्भव था ।

इनके ५६ प्रकार बताए गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे इनके २५ प्रकार बताए हैं । इनमें शकुन,रुक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे ।

उपर्युक्त वर्णन पढ़ने पर कुछ समस्याएँ व प्रश्न हमारे सामने आकर खड़े होते हैं । समस्या यह है आज के विज्ञान की शब्दावली व नियमावली से हम परिचित हैं, परन्तु प्राचीन विज्ञान , जो संस्कृत में अभिव्यक्त हुआ है , उसकी शब्दावली , उनका अर्थ तथा नियमावली हम नहीं जानते । अतः उनमें निहित रहस्य को अनावृत्त करना पड़ेगा । दूसरा , प्राचीन काल में गलत व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाए , इस हेतु बात को अप्रत्यक्ष ढंग से , गूढ़ रूप में , अलंकारिक रूप में कहने की पद्धति थी । अतः उसको भी समझने के लिए ऐसे लोगों के इस विषय में आगे प्रयत्न करने की आवश्यकता है , जो संस्कृत भी जानते हों तथा विज्ञान भी जानते हों ।

🌹विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं –🌹

दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई ऐसा भाग है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वज्ञरा सिद्ध किया जा सके । यदि कोई ऐसा भाग है , तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं । क्या उनमें कुछ सफलता मिली है?

सौभाग्य से इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में दिए जा सकते हैं । हैदराबाद के डॉ. श्रीराम प्रभु ने वैमानिक शास्त्र ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा , तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने वाली मिश्र धातुओं का निर्माण सम्भव है या नहीं , इस हेतु प्रयोंग करने का विचार उनके मन में आया । प्रयोग हेतु डॉ. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातुएं , दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प किया और उसके परिणाम आशास्पद हैं ।

अपने प्रयोंगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में सफलता उन्हें मिली है ।

🌹प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह ।🌹

विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान अदृश्य करने के काम आता है । इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेतो है । यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्‌यूरिक एसिड में भी नहीं गलती ।

🌹दूसरी धातु जो बनाई है, उसका नाम है पंच लौह ।🌹

यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर व भारी है । ताँबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है , जबकि अमेरिकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ड मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत संभव है यह माना है । इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु अनोखी है ।

🌹तीसरी धातु है आरर🌹

यह ताँबा आधारित मिश्र धातु है , जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है । इस धातु में तमेपेजंदबम जव उवपेजनतम का गुण है । बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के डायरेक्टर डॉ. बी. जी. सिद्धार्थ ने उन धातुओं को बनाने में सफलता की जानकारी एक पत्रकार परिषद में देते हुए बताया कि इन धातुओं को बनाने में खनिजों के साथ विभिन्न औषधियाँ , पत्ते , गोंद , पेड़ की छाल , आदि का भी उपयोग होता है । इस कारण जहाँ इनकी लागत कम आती है , वहीं कुछ विशेष गुण भी उत्पन्न होते हैं । उन्होनें कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं का निर्माण और उस हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के नीति निर्धारक सोचेंगे , तो यह देश के भविष्य की दृष्टि से अच्छा होगा ।

इसी प्रकार मुंबई के रसायन शास्त्र विभाग के डॉ. माहेश्वर शेरोन ने भी इस ग्रंथ में वर्णित तीन पदार्थों को बनाने का प्रयत्न किया है । ये थे चुम्बकमणि जो गुहगर्भ यंत्र में काम आती है और उसमें परावर्तन ( रिफ्‌लेक्शन ) को अधिगृहीत ( कैप्चर ) करने का गुण है । पराग्रंधिक द्रव – यह एक प्रकार का एसिड है , जो चुम्बकमणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है ।

इसी प्रकार विमान शास्त्र में एक और अधिकरण है दर्पणाधिकरण , जिसमें विभिन्न प्रकार के काँच और उनके अलग अलग गुणों का वर्णन है ।

इन पर वाराणसी के हरिश्चन्द्र पी. जी. कॉलेज के रीडर डॉ. एन. जी. डोंगरे ने । ” The study of various materials described in Amsubodhini of Maharshi Bharadwaja ”

इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भरद्वाज वर्णित दर्पण बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जीकल लेबोरेटरी जमशेदपुर में किया तथा वहाँ के निदेशक पी. रामचन्द्र राव जो आजकल बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं , के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की , जिसका नाम प्रकाश स्तभंन भिद् लौह है । इसकी विशेंषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्रारैड प्रकाश को जाने देता है ।

हमारा भारतीय सनातन विज्ञान अत्यंत विकसित व उत्तम था। प्राचीन ग्रन्थों में पूरे नगर के बराबर वायुयान
बनाकर आकाश में ही निवास करने का वर्णन पाया जाता है।

हाल में महर्षि भारद्वाज का ‘यन्त्र सर्वस्वम्’ नामक ग्रन्थ मिला है जो मैसूर की ‘अन्तरदेशीय संस्कृत संशोधन संस्था’ के पास है, इसके 40 वें प्रकरण में वैज्ञानिक आविष्कारों का अति आश्चर्यजनक वर्णन मिलता है। इसमें भूः, भुवः, स्वः, महः आदि दूरवर्ती लोकों तक की यात्रा करने की विधि दी गई है, भिन्न-भिन्न ग्रहों में जाने के लिये अलग-अलग तरह अद्भुत के विमानों के निर्माण का विवरण दिया गया है। ऐसे भी यन्त्र बनाना बतलाया गया है जिससे एक ही मनुष्य पक्षी की तरह आकाश में उड़ सके।

पूर्व और पश्चिम के विद्वानों में जो मुख्य और विलक्षण
भेद है वह यही है कि पश्चिम वाले बाहरी जगत में से अपनी कामनाओं की पूर्ति करने का प्रयत्न करते हैं, और पूर्व वाले अपनी आत्मा की असीम शक्ति पर आधार रखते हैं। पश्चिम निवासी इन्द्रिय जनित सुखों को प्राप्त करने के लिये परिश्रम करते हैं, जबकि पूर्व के निवासी पंचेन्द्रिय पर संयम रख कर आत्म चिन्तन द्वारा अपूर्व आनन्द प्राप्त करते हैं। पश्चिम के विद्वान वैज्ञानिक प्रकृति के गुणधर्म को जानकर पदार्थों में रहने वाली गुप्त शक्तियों से कार्य लेते हैं जबकि पूर्व के तपस्वी,
अपनी ही आत्मा में जो अमोघ और अपरिमित अन्तर शक्ति पाई जाती है, अधिकाँश उसी शक्ति के द्वारा अपने सब कामों को सिद्ध करते हैं।

महर्षि भारद्वाज रचित “अंशु बोधिनी” ग्रन्थ में सूर्य और
नक्षत्रों की किरणों की शक्ति पर विचार किया गया है। इस
ग्रन्थ में 64 अधिकरण हैं, जिनको छह भागों में विभाजित किया गया है। इनमें से 54 वाँ अधिकरण “विमानाधिकरण” नाम का है। इसके सिवा इन्हीं ऋषि का एक ग्रन्थ “अक्ष-तन्त्र” नाम का है जिसमें आकाश की परिधि और उसके विभागों का वर्णन किया गया है और बतलाया है कि मनुष्य आकाश में कहाँ तक जा सकता है और उसके बाहर जाने से किस प्रकार वह नष्ट हो सकता है। उसमें विमानों के सम्बन्ध में अनेक ऐसी बातें दी गई हैं जिनको पढ़कर आजकल के मनुष्य आश्चर्य में पड़ जाते हैं।
“विमानाधिकरण” में यह सूत्र दिया गया है-

🌹सूत्र🌹

“शक्त्युद्रमोदयष्टौ”

इस सूत्र पर बौधायन ऋषि ने निम्नलिखित व्याख्या
की है-

शक्त्युद्रमो भूतवाहो धूमयानश्शिखोद्गमः। अंशुवाहस्तार
मुखोमणि वाहो मरुत्सखः॥ इत्यष्टाधिकरणें वर्गाण्युक्तानि
शास्त्रातः।

🌹अर्थ🌹

विमान-रचना और उनके आकाश के चलने की
गति के आठ भेद हैं :-

🌹शक्त्युद्गम वर्गम-🌹
विद्युत शक्ति से चलने वाले विमान।

🌹भूतवाह-🌹
पंच महाभूत की शक्ति इकट्ठी करके चलने वाले विमान।

🌹धूमयान-🌹
भाप अथवा धुँये से चलने वाले विमान।

🌹शिखोद्रमः-🌹
पंचशिखी, शिखरीनी, शिखा वति, कुँदशिखी आदि वनस्पतियों के तेल की मोमबत्ती बनाकर उनसे चलने वाले विमान।

🌹अशुवाहः-🌹
सूर्य की किरणों की शक्ति से चलने वाले विमान।

🌹तारामुखः-🌹
नक्षत्र शास्त्र के अनुसार नक्षत्रों में रस बनकर जो पदार्थ भूमि पर आता है उसके प्रयोग से चलने वाले
विमान।

🌹मणि वाहः-🌹
हवा में जो उष्णता और बिजली है उसको कुछ यन्त्रों द्वारा पृथक करके उसी शक्ति से चलने वाले विमान।

🌹मरुत्सखाः-🌹
हवा में शीत और उष्ण विभाग है उनका आवृत्तिकरण करने से जो शक्ति प्राप्त होती है, उससे चलने
वाले विमानों को ‘मरुत्सखा’ कहा जाता था।

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🌹प्राचीन ऋषियों की सौर ऊर्जा तकनीक🌹

सूर्य-किरणों के मुख्य बारह विभाग होते हैं। उनके द्वारा
ऋषियों ने जो आश्चर्यजनक कार्य किये थे, उनका विचार कर सकना भी हमारे लिये असम्भव है। सूर्य किरणों की बारह शक्तियों के नाम ये हैं-
(१.) प्रकाश,
(२.) उष्णता,
(३.) अनिल,
(४.) जल,
(५.) वर्ण,
(६.) चालन,
(७.) मुग्ध,
(८.) विद्युत,
(९.)वेग,
(१०.) जृम्भण,
(११.) नलिका,
(१२.) वारुणि।

सूर्य की इन बारह शक्तियों को पृथक करके 12 मणि
तैयार करके और उनके दर्पण बनाकर उनकी शक्ति द्वारा जो विमान चलाया जाता है उसे मणिवाह-विमान कहते हैं। इन बाहर मणियों को तैयार करने में जो द्रव्य काम में लाये जाते हैं, उनका पूरा वर्णन इस ग्रन्थ में है।

“अंशुबोधिनी” के चौथे भाग में कूट-केन्द्र का वर्णन
किया गया है, जिसका आशय यह है कि अनेक शक्तियों को एक केन्द्र पर एकत्रित करके उनका प्रयोग करना। सूर्य- राशियों में हमेशा होने वाले परिवर्तन, उनसे बनने वाले ‘कूट’ और उनके परिणामों का भी वर्णन है। ये ‘कूट’ अमुक ‘गोल’ के किस-किस भाग को स्पर्श करते हैं और उनसे तरह-तरह की गति किस प्रकार उत्पन्न होकर कार्य करती है, इसका वर्णन भी आश्चर्यजनक है।
इस कूटविद्या को स्पष्ट करने के लिये दण्ड,
त्रिकोण, जया, वाण, पॉजरा, वाहा, वर्तुल, ज्वलन, सन्त, घोर, मुग्ध, प्रकाश, ईषत् स्फुरण, उर्द्धगुण, अरधोमुख, तिर्यंग मुख, विविध-वर्तुल, चित्र, आन्दोलन आदि अनेक प्रकार की सूर्य- किरणों के परिवर्तनों का जो वर्णन किया गया वह भी बड़े महत्व का है।

सूर्य और सूर्य रश्मियों का ज्ञान मनुष्यों के लिये वास्तव
में अति उपयोगी है और इसके लिये भारद्वाज ऋषि का यह ग्रन्थ अलौकिक है। पर इस ग्रन्थ के रहस्य को समझने के लिये ब्रह्मचर्य और वेदाध्ययन द्वारा शुद्ध बुद्धि की आवश्यकता है।

इन ऋषि महाराज ने इन्द्र सत्ता (वीर्य बल) प्राप्त करने के लिये तप किया था अर्थात् मानसिक उपाँशु जप करके अजपा गायत्री सिद्ध की थी। तब परब्रह्म की कृपा से दीर्घायु प्राप्त करके वेद का तथ्य जानने के लिये अन्तर्मुख होकर घोर तप किया था। इससे वेद का गुह्य तत्व उन पर प्रकट हो गया और योग शक्ति द्वारा वे सूर्य के समान ही तेजस्वी हो गये। उनको वेदों के ज्ञान के पर्वत पर पर्वत दिखलाई पड़ने लगे। उनकी विशालता से चकित होकर ऋषि परमात्मा की प्रार्थना करने लगे कि इस अपार वेद-ज्ञान के एक अंश को देख सकने की भी शक्ति मुझ में नहीं है तो फिर महान् पर्वतों के तुल्य ज्ञान को
मैं कैसे जान सकता हूँ? परब्रह्म ने सन्तुष्ट होकर अनन्त वेद में से तीन अक्षर (ओम्) उनको दिखलाये और बतलाया कि इनमें
सब प्रकार की विद्याओं को प्रकाशित करने की सामर्थ्य है।

इस प्रणव-शक्ति की सहायता से भारद्वाज ऋषि ने परमात्मा के वेद-स्वरूप अनन्त ज्ञान को समझा और उसमें से मनुष्यों के उपकारार्थ इस और सौर-विद्या के महान् ग्रन्थ की रचना की।

परन्तु क्षुद्र बुद्धि के लोग ऋषि-प्रणीत ग्रन्थों का मर्म न जानने के कारण उनका वास्तविक आशय ग्रहण नहीं कर पाते।
आजकल के मनुष्य विषयों में फँसकर बहिर्मुख हो गये हैं,
इसलिये उनको बाह्य-विज्ञान की बातें ही समझ में आती हैं ।
यद्यपि ‘अंशु-बोधिनी’ ग्रन्थ भी विज्ञान का है, पर उसके भी आवश्यक है। अगर ऋषि संतान फिर से पुरुषार्थ करेगी और संध्या, देव पूजन आदि कर्मों को सच्ची श्रद्धा के साथ करने लगेगी, तो वह फिर ऋषियों की सी शक्ति प्राप्त कर सकेंगे और बड़े से बड़े वैज्ञानिक कार्यों को सहज में पूरा करके दिखा सकेंगे। इसके लिये गायत्री-उपासना सबसे महत्व की है।

क्योंकि गायत्री ही शुद्ध बुद्धि की प्रदाता हैं। अगर मनुष्य
उसके आदेशानुसार कर्म करे तो उसकी कृपा से ज्ञान-विज्ञान के बड़े से बड़े पद पर अवश्य पहुँच सकता है।

इस प्रकार सिद्ध होता हैं कि वेद विज्ञान के स्रोत हैं अर्थात वैदिक ऋषि विज्ञान की अमूल्य धरोहर के स्वामी थे जिसकी खोज उन्होंने अपने परिश्रम और मेधा से ईश्वर कृपा से की थी। भारतिय शिल्पशास्त्र तकनीकी शब्दों का भी धनी था पर जरूरत हैं इसे आधुनिक संदर्भो में विश्लोषित करने की!

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