काल (समय) के रहस्य …?
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बीते हुए ६ मन्वन्तरों के नाम हैं – (१) स्वायम्भुव (२) स्वारोचिष (३) औत्तमी (४) तामस (५) रैवत (६) चाक्षुष| वर्तमान मन्वंतर का नाम वैवस्वत है| वर्तमान कल्प को श्वेत कल्प कहते हैं, इसीलिए हमारे संकल्प में कहते हैं –
“प्रवर्तमानस्याद्य ब्राह्मणों द्वितीय प्रहरार्धे श्री श्वेतवराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे ……………बौद्धावतारे वर्तमानेस्मिन वर्तमान संवत्सरे अमुकनाम वत्सरे अमुकायने अमुक ऋतु अमुकमासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे संयुक्त चन्द्रे …. ….. तिथौ ………”
एक सौर वर्ष में १२ सौर मास तथा ३६५.२५८५ मध्यम सावन दिन होते हैं परन्तु १२ चंद्रमास ३५४.३६७०५ मध्यम सावन दिन का होता है, इसलिए १२ चंद्रमासों का एक वर्ष सौर वर्ष से १०.८९१७० मध्यम सावन दिन छोटा होता है| इसलिए कोई तैंतीस महीने में ये अंतर एक चंद्रमास के समान हो जाता है| जिस सौर वर्ष में यह अंतर १ चंद्रमास के समान हो जाता है, उस सौर वर्ष में १३ चंद्रमास होते हैं| उस मास को अर्धमास या मलमास कहा जाता है| यदि ऐसा न किया जाये तो चंद्रमास के अनुसार मनाये जाने वाले त्यौहार पर्व इत्यादि भिन्न भिन्न ऋतुओं में मुसलमानी त्यौहारों की तरह भिन्न भिन्न ऋतुओं में पड़ने लगे|
किस घंटे (होरा) का स्वामी कौन ग्रह है, यह जानने के लिए वह क्रम समझ लेना चाहिए, जिस क्रम से घंटे के स्वामी बदलते हैं| शनि ग्रह पृथ्वी से सब ग्रहों से दूर है, उस से निकटवर्ती बृहस्पति है, बृहस्पति से निकट मंगल, मंगल से निकट सूर्य, सूर्य से निकट शुक्र, शुक्र से निकट बुध और बुध से निकट चंद्रमा है|
इसी क्रम से होरा के स्वामी बदलते हैं| यदि पहले घंटे का स्वामी शनि है, तो दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल, चौथे का सूर्य, पांचवे का शुक्र, छठे का बुध, सातवें का चन्द्रमा, आठवें का फिर शनि इत्यादि क्रमानुसार हैं| परन्तु जिस दिन पहले घंटे का स्वामी शनि होता है, उस दिन का नाम शनिवार होता हैं| इसलिए शनिवार के दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल इत्यादि हैं| इस प्रकार सात सात घंटे के बाद स्वामियों का वही क्रम फिर आरम्भ होता है| इसलिए शनिवार के २२वें घंटे का स्वामी शनि, २३वें का बृहस्पति, २४वें का मंगल और २४वें के बाद वाले घंटे का स्वामी सूर्य होना चाहिए| परन्तु यहाँ २५वां घंटा अगले दिन का पहला घंटा है, जिसका स्वामी सूर्य है इसलिए शनिवार के बाद रविवार आता है| इसी प्रकार रविवार के २५वें घंटे यानी अगले दिन के पहले घंटे का स्वामी चन्द्रमा होगा, इसलिए उसे चंद्रवार या सोमवार कहते हैं| इसी प्रकार और वारों का नामकरण हुआ है|
इससे यह स्पष्ट होता है कि शनिवार के बाद रविवार और रविवार के बाद सोमवार और सोमवार के बाद मंगलवार क्यों होता है| शनि से रवि चौथा ग्रह है और रवि से चंद्रमा चौथा ग्रह है, अतः प्रत्येक दिन का स्वामी उसके पिछले दिन के स्वामी से चौथा ग्रह है|
मैटोनिक चक्र – मिटन ने ४३३ ई.पू. में देखा कि २३५ चंद्रमास और १९ सौर वर्ष अर्थात १९x१२ = २२८ सौर मासों में समय लगभग समान होता है, इनमें लगभग १ घंटे का अंतर होता है|
१९ सौर वर्ष = १९ x ३६५.२५ = ६९३९.७५ दिवस
२३५ चन्द्र मास = २३५x२९.५३१ = ६९३९.७८५ दिवस
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक १९ वर्ष में २२८ सौर मास और लगभग २३५ चन्द्र मास होते हैं, अर्थात ७ चन्द्र मास अधिक होते हैं| चन्द्र और सौर वर्षों का अगर समन्वय नहीं करे तब लगभग ३२.५ सौर वर्षों में, ३३.५ चन्द्र वर्ष हो जायेंगे| अगर केवल चन्द्र वर्ष से ही चलें तब अगर दीपावली नवम्बर में आती है, तब १९ वर्षों में यह ७ मास पहले अर्थात अप्रेल में आ जाएगी और इन धार्मिक त्यौहारों का ऋतुओं से कोई सम्बन्ध नहीं रह जायेगा| इसलिये भारतीय पंचांग में इसका ख्याल रखा जाता है|
क्षयमास – मलमास या अधिमास की भांति क्षयमास भी होता है| सूर्य की कोणीय गति नवम्बर से फरवरी तक तीव्र हो जाती है और इसकी इसकी संक्रांतियों के मध्य समय का अंतर कम हो जाता है| इन मासों में कभी कभी जब संक्रांति से कुछ मिनट पहले ही अमावस्या का अंत हुआ हो, तब मास का क्षय हो जाता है|
जिस चंद्रमास (एक अमावस्या के अंत से दूसरी अमावस्या के अंत तक) में दो संक्रांतियों आ जाएँ, उसमें एक मास का क्षय हो जाता है| यह कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष और माघ इन चार मास में ही होता है. अर्थात नवम्बर से फरवरी तक ही हो सकता है|
अब संक्षिप्त में राशियों और नक्षत्रों के बारे में चर्चा करते हैं ताकि आगे जब ग्रहों और नक्षत्रों के बारे में कोई सन्दर्भ आये तो हमें उसमें कोई उलझन न हो|
राशिचक्र – सूर्य जिस मार्ग से चलता हुआ आकाश में प्रतीत होता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं| अगर इस कान्तिवृत्त को बारह भागों में बांटा जाये तो हर एक भाग को राशि कहते हैं, अतः ऐसा वृत्त जिस पर नौ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं (ज्योतिष में सूर्य को भी ग्रह ही माना गया है) राशीचक्र कहलाता है| इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि पृथ्वी के पूरे गोल परिपथ को बारह भागों में विभाजित कर उन भागों में पड़ने वाले आकाशीय पिंडों के प्रभाव के आधार पर पृथ्वी के मार्ग में बारह किमी के पत्थर काल्पनिक रूप से माने गए हैं|
अब हम जानते हैं की एक वृत्त ३६० अंश में बांटा जाता है| इसलिए एक राशी जो राशिचक्र का बारहवां भाग है, ३० अंशों की हुई| यानी एक राशि ३० अंशो की होती है| राशियों का नाम उनकी अंशो सहित इस प्रकार है|
अंश
राशी
०-३०
मेष
३०-६०
वृष
६०-९०
मिथुन
९०-१२०
कर्क
१२०-१५०
सिंह
१५०-१८०
कन्या
१८०-२१०
तुला
२१०-२४०
वृश्चिक
२४०-२७०
धनु
२७०-३००
मकर
३००-३३०
कुम्भ
३३०-३६०
मीन
नक्षत्र – आकाश में तारों के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं| आकाश मंडल में जो असंख्य तारिकाओं से कही अश्व, शकट, सर्प, हाथ आदि के आकार बन जाते हैं, वे ही नक्षत्र कहलाते हैं| (जिस प्रकार पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी मीलों में या कोसों में नापी जाती है, उसी प्रकार आकाश मंडल की दूरी नक्षत्रों में नापी जाती है) | राशि चक्र (वह वृत्त जिस पर ९ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं), को २७ भागों में विभाजित करने पर २७ नक्षत्र बनते हैं|
पृथ्वी के कुल ३६० कला के परिपथ को नक्षत्रों के लिए २७ भागों में बांटा गया है (जैसे राशियों के लिए १२ भागों में बांटा गया है)| अतः प्रत्येक नक्षत्र ३६०/२७ = १३ मिनट २० सेकंड = ८०० अंश का होगा| इसके उपरान्त भी नक्षत्रों को चार चरणों में बांटा गया है| प्रत्येक चरण १३ मिनट २० सेकंड/ ४ = ३ मिनट २० सेकंड = २०० अंश का होगा| क्योंकि एक राशि ३० अंश की होती है, अतः हम कह सकते हैं कि सवा दो नक्षत्र अर्थात ९ चरण अर्थात ३० अंश की एक राशि होती है|
नक्षत्रों के नाम –
१. अश्विनी २. भरिणी ३. कृत्तिका ४. रोहिणी ५. मृगशिरा ६. आर्द्रा ७. पुनर्वसु
८. पुष्य ९. आश्लेषा १०. मघा ११. पूर्वा फाल्गुनी १२. उत्तरा फाल्गुनी
१३. हस्त १४. चित्रा १५. स्वाति १६. विशाखा १७. अनुराधा १८. ज्येष्ठा
१९. मूल २०. पूवाषाढा २१. उत्तराषाढा २२. श्रवण २३. धनिष्ठा २४. शतभिषा
२५. पूर्वाभाद्रपद २६.उत्तराभाद्रपद २७.रेवती..और ..
अभिजीत को २८वां नक्षत्र माना गया है| उत्तराषाढ़ की आखिरी १५ घाटियाँ और श्रवण की प्रारंभ की ४ घाटियाँ, इस प्रकार १९ घटियों के मान वाला अभिजीत नक्षत्र होता है| यह समस्त कार्यों में शुभ माना जाता है|
सूक्ष्मता से समझाने के लिए नक्षत्र के भी ४ भाग किये गए हैं, जो चरण कहलाते हैं| प्रत्येक नक्षत्र का एक स्वामी होता है|
अश्विनी ….. अश्विनी कुमार,
भरणी ….. काल
कृत्तिका ….. अग्नि,
रोहिणी ….. ब्रह्मा,
मृगशिरा ….. चन्द्रमा,
आर्द्रा ….. रूद्र
पुनर्वसु …… अदिति
पुष्य ….. बृहस्पति
आश्लेषा ….. सर्प
मघा …… पितर
पूर्व फाल्गुनी … भग
उत्तराफाल्गुनी ….अर्यता
हस्त …… सूर्य
चित्रा …… विश्वकर्मा
स्वाति …… पवन
विशाखा …… शुक्राग्नि
अनुराधा …… मित्र
ज्येष्ठा …… इंद्र
मूल …… निऋति
पूर्वाषाढ़ …… जल
उत्तराषाढ़ …… विश्वेदेव
श्रवण …… विष्णु
धनिष्ठा …… वसु
शतभिषा …… वरुण
पूर्वाभाद्रपद …..आजैकपाद
उत्तराभाद्रपद ….अहिर्बुधन्य
रेवती …… पूषा
अभिजीत …… ब्रह्मा
नक्षत्रों के फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव गुण के अनुसार जानना चाहिए।
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