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आत्मा का सफर जारी रहता है, एक पड़ाव के बाद दूसरा पड़ाव, फिर तीसरा फिर चौथा, ये अनंत और अंतहीन यात्रा है। मनुष्य जब अपनी पूरी आयु को भोग बुढ़ापे में शरीर को त्यागता है तो प्राण अपनी जीवंतता, अपनी इस जन्म के हिस्से की शक्ति और ऊर्जा खो चुके होते हैं ।तब आत्मा को विश्राम की ज़रुरत होती है और आत्मा शरीर त्याग देती है, व शून्य काल में चली जाती है जिसे सधारण मनुष्य के लिये समझ पाना बहुत कठिन है ।
इसे ही ज्योति का परम ज्योति में समाना कहते हैं या कह सकते हैं के परमात्मा के मूल में चली गयी व कुछ समय बाद वहां से पुन: ऊर्जा प्राप्त कर नए शरीर को धारण करती है ।पर इसके बीच में एक और भी रहस्य है जो बहुत ही रोमांचक है, वह है कर्म योग जो आत्मा के ऊपर आवरण की तरह रहने वाला मन करता है ।आत्मा उसमे साझी नहीं बल्कि साक्षी होती है। पर मन का यह कर्मयोग आत्मा की गति और जन्मों को ज़रूर प्रभावित करता है, जिसे हम दुःख सुख भी कहते हैं या किस्मत की संज्ञा भी देते हैं।
उदाहरण:-
जैसे कोई युवा मौत हो जाना, जब अभी प्राणों में जीवनी शक्ति थी और बहुत सारी ऊर्जा अभी खर्च नहीं हुई थी पर किसी दुर्घटना की वजह से आत्मा और शरीर अलग हो गए,उस अवस्था में भी आत्मा की जीवनी शक्ति व ऊर्जा क्षीण तो होती ही रहती है पर मन की प्रबलता और कामनाएं बनी रहती हैं। मन जो काम शरीर से लेता था, जो कर्म वह शरीर से करवाता था अब वह करवा नहीं पा रहा है ।यह मन और आत्मा के भटकाव की स्तिथि है, ये बहुत भयावक है….
तब एक समय आता है जब आत्मा अपनी पूरी जीवनी शक्ति खो देती है तब वह आत्मा, वह जीव बिन मकसद इधर उधर भटकता रहता है, इसी को प्रेत अवस्था कहते हैं….. हाँ मृत्यु के उपरान्त आत्मा में बहुत प्रबलता होती है तब वह खुद तो दुखी होता है व औरों को भी दुखी करता है, खासकर अपने सम्बन्धियों को ।और ये काम मन करता है ,आत्मा की जीवनी शक्ति से जो अभी क्षीण नहीं हुई होती। ये अवस्था आत्मा को शून्य काल की ओर नहीं बढ़ने देती, यानि परमात्मा के मूल की ओर नहीं जाने देती। ऐसी लाखों करोड़ों आत्माएं सदियों से भटक रही हैं और वो जन्म नहीं ले पा रही हैं और न ही मोक्ष…
यहाँ से गुरु की महत्वता शुरू होती है ऐसी अवस्थाओं में कोई भी गुरु नहीं चलेगा केवल उच्च कोटि का साधक जिसे तंत्र साधक व तंत्राचार्य भी कहते हैं, वही उस चेतना को इस अवस्था से बहार ला सकता है। अगर जीते जी ऐसा गुरु मिल जाये और जीव की पात्रता हो तो ऐसा जीव कभी भी ऐसी अवस्था को प्राप्त नहीं होता। भैरव गुरु परंपरा शिष्यों को कभी भी किसी भी जन्म में आभाव नहीं रहता क्योंकि काल का संचालन शिवगण भैरव जी के पास है, जिन्होंने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा जी का एक सर कटा था। वही काल भैरव हैं, वही महाकाल हैं, वो अजूनी हैं, निर्भय हैं, निर्लोपः हैं, वो पूर्णतः व्यवहारिक हैं। जो जाती, धर्म, देश, आपकी पुकार, आपका दुःख सुख, आपकी कामनाएं, आपकी लुभावनी पूजाएं नहीं बल्कि व्यक्ति के कर्म ही देखते हैं या उनके द्वारा नियुक्त अधिकारी , गुरु, तंत्राचार्य, साधकों की ही वो सुनते हैं जो जन्म दर जन्म उनके लिए नियुक्त रहते हैं, वैसे ही किसी गुरु की एक जीव को सही मायनो में ज़रुरत होती है।

      

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