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🕉️भक्ति योग – समर्पण का पथ |

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🕉️🚩भक्ति योग के सन्दर्भ में, आदर्श योगी (जो भगवान के साथ पूर्णतयः एकरूप है) कोण है ? इस अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान श्री कृष्ण, भगवद गीता में कहते हैं।

🕉️श्रीभगवानुवाच🚩

🕉️मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥१२- २॥

🕉️🚩“जो व्यक्ति अपना मन सिर्फ मुझमें लगाता है और मैं ही उनके विचारों में रहता हूँ, जो मुझे प्रेम और समर्पण के साथ भजते हैं, और मुझ पर पूर्ण विश्वास रखते हैं, वो उत्तम श्रेणी के होते हैं। ” यही भक्ति योग का सार है

🕉️🚩भक्ति योग क्या है ?।

🕉️🚩भक्ति व योग संस्कृत के शब्द हैं ; योग का अर्थ है जुड़ना अथवा मिलन; और भक्ति का अर्थ है दिव्य प्रेम, ब्रह्म के साथ प्रेम, परम सत्ता से प्रेम।

🕉️🚩भक्ति वह नहीं जो हम करते हैं या जो हमारे पास है – अपितु वह जो हम हैं। और इसी की चेतना, इसी का ज्ञान ही भक्ति योग है। परम चेतना का अनुभव और उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं – मैं सबसे अलग हूँ – इस बात का विच्छेद, इसको भूल जाना ; संसार, जगत द्वारा दी हुई सभी पहचान का विस्मरण, उस परम चेतना, अंतहीन सर्वयापी प्रेम से मिलन, साक्षात्कार, प्रति क्षण अनुभव ही वास्तव में भक्ति योग है।

🕉️🚩भक्ति योग परमात्मा के साथ एकरूपता की जीवंत अनुभूति है।

🕉️🚩भक्ति योग के सिद्धांत और उनका परिचय।

🕉️🚩भक्ति की परिभाषा देना सरल कार्य नहीं है; इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। हम हर श्वास के साथ भक्ति में लीन हो सकते हैं। यह वो दिव्य प्रेम है जो हमें निखारता है, उल्लास जगाता है, बदलाव लाता है और हर पल हमारे अस्तित्व की गहराइयों को छूता है।

🕉️🚩भक्ति, इस दिव्य प्रेम को प्राप्त करने की बजाय उन बंधनों से मुक्त होना है जो हमने इसके विरुद्ध खड़े कर रखे हैं, समझ रखे हैं। यह हमारे भीतर अनंत के द्वार खोलती है। यह हमारे आत्मन का वह दिव्य प्रकाश है जो हमारे नेत्रों से दिव्य प्रेम के रूप में अभिव्यक्त होता है। भक्ति एक अनुभव है, ज्ञान है कि सब कुछ परमात्मा, ईश्वर का प्रतिबिम्ब ही है।

🚩🕉️भक्ति योग का इतिहास।

🚩🕉️भक्ति, जो कि अनंत से मिलन भी समझा जाता है, मानव सभ्यता जितनी ही पुरानी है। श्वेताश्वर उपनिषद में औपचारिक रूप से इसे अनंत, असीम ईश्वर के प्रति प्रेम कि अभिव्यक्ति के रूप में दर्शाया गया। काफी समय के पश्चात्, श्रीमद भगवद्-गीता में इसे मुक्ति अथवा अंतिम सत्य के अनुभव करने का मार्ग बताया गया। इसके साथ ही नारद भक्ति सूत्र में इसे भगवतम के रूप में बताया गया है।

🚩🕉️भक्ति के विभिन्न भाव, रस।

🕉️🚩हरिदास साहित्य में भक्ति के रूपों को इसतरह समझाया है। – इसे पंचविधा भाव भी कहते है।

🚩🕉️शांतभाव – जब भक्त आनंदमय, शांत, प्रसन्नचित्त होता है और गान अथवा नृत्य द्वारा अपने को अभिव्यक्त न करना।
दास्यभाव – हनुमान जी कि भाँति परमात्मा की सेवा करना।
वात्सल्यभाव – मैया यशोदा की तरह ईश्वर को शिशु रूप में पालना।

🕉️🚩सखाभाव – अर्जुन, उद्धव कि भाँति ईश्वर को मित्र के रूप में देखना।

🕉️🚩माधुर्य अथवा कान्तभाव – यह भक्ति का सर्वश्रेष्ठ भाव है – जहां भक्त ईश्वर को अपने प्रियतम के रूप में देखते हैं और उनसे प्रेम करते हैं –

🚩🕉️नवविधा भक्ति।

🕉️🚩श्रीमद भागवत में भक्ति का ९ रूपों में वर्णन किया गया है। (श्रीमद भागवत – ७.५.२३)

🚩🕉️श्रवणं – भगवन के नाम और महिमा सुनना।
कीर्तनं – भगवान के स्तुतियों का गायन।

🕉️🚩स्मरणं – भगवान को याद करना।
🚩🕉️पाद सेवनं – भगवान के कमल रूपी पैरों की सेवा करना।
🕉️🚩अर्चनं – भगवान की पूजा करना।
🕉️🕉️वन्दनं – भगवान की प्राथना करना
🕉️🚩दास्यं – भगवान स्वामी मानना और उनकी सेवा दास भाव से करना।
🕉️🚩सख्यं – मित्र भाव से भगवान की सेवा करना।
🕉️🚩आत्म निवेदनं – भगवान को पूरा समर्पित होना।

🕉️🚩भक्ति – समर्पण, श्रद्धा का पथ।

🕉️🚩एक भक्त ही भय व चिंता से सम्पूर्ण मुक्ति महसूस कर सकता है। एक भक्त ही भौतिक जगत के दुःखों व मुश्किलों से परे जा सकता है।

🕉️🚩एक सच्चे भक्त की अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती है, मोक्ष प्राप्त करने की भी नहीं। एक भक्त के हृदय में भक्ति की ज्योत उसपर गुरु कृपा से, सत्संग व अन्य भक्तों की संगति के कारण और भक्तों और साधकों की बातें, किस्से श्रवण करने से सदैव प्रज्वलित रहती है।

🕉️🚩”जब नदिया का सागर से मिलन होता है, तब नदी को यह पता चलता है की वो चिरकाल से सागर ही थी ! इसी प्रकार जिस क्षण एक भक्त श्रद्धा भाव से ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाता है, वोह तत्क्षण ईश्वर हो जाता है। “

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