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भगवान् विष्णु के लेखाकार चित्रसेन या चित्रगुप्त सम्भवतः गन्धर्व थे , गान्धार प्रदेश की चित्राल घाटी का नाम यही सङ्केत करता है। पहले पहल लिपि चित्रात्मक ही बनी इसलिए तूलिका और चित्र शब्द लेखन के सम्बन्ध में प्रयुक्त होते थे। ऋग्वेद के कुछेक मन्त्रों में भी चित्रलिपि के होने के विषय में स्पष्ट घोष है।
लिपि, अक्षर, लिखित शब्द तब तक निष्प्राण ही होते हैं जब तक प्राणयुक्त न हों अर्थात् उच्चरित न हों । श्वास रहित निर्जीव ही होता है।
उन पूर्वजों को नमस्कार जिन्होंने करोड़ों सार्थक वाक्य लिखे, जिन्हें एक जन्म में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता ।
कहते हैं गणेश जी ने अपने एक दाँत को ही लेखनी बना लिया था , इषीक , नरकुल , पक्षियों के पंख, नख, छेनी न जाने किन किन वस्तुओं से लेखन कार्य किया जाता रहा।
फाउण्टेन पेन, छापाखाना, और बॉल-प्वाइण्ट पेन के आविष्कर्ता भी समादरणीय हैं।

जकरबर्गवा किताब पर लिखवाता है, सरवा नाम धरे है फेसबुक। कॉपीबुक जिस पर लिखा जाता है उसे भी अँगरेज ‘बुक’ ही कहता है और ‘कॉपी’ का अर्थ नकल करना ही होता है, मतलब अँगरेजों ने लिखना पढ़ना दूसरों से ही लिया है।

संस्कृत का प्राचीन शिलालेख इसलिये नहीं मिलता क्योंकि संस्कृत शिलालेख नहीं, पांडुलिपि का विषय थी। इस लेख में बौद्ध व जैन ग्रंथों से कई लिपियों का वर्णन है। सबके शिलालेख नहीं मिलते।इससे क्या ये लिपियां काल्पनिक हो जायेंगे? शिलालेखो की किसी भाषा को प्राचीन बताने की असमर्थता – जैन ग्रन्थ पन्नवणासूत्र में १८ लिपियों के नाम है – बन्भी , जवणालि , दोसापुरिया , खरोट्ठी , पुक्खरसारिया , भोगवइया , पहरैया , उपअन्तरिक्खिया , अक्खपिट्टीया, माहेसरी आदि इसी तरह बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तार सुत्त में ६४ लिपियों का उल्लेख है – ब्राह्मी , खरोष्टि , अंग ,वंग ,पुष्कर , उग्रलिपि ,ब्रह्मवल्लीं , देवलिपि ,नागलिपि , असुरलिपि , शास्त्रावर्त लिपि , ऋषितपस्तप्तलिपि आदि | अब क्या दुनिया का कोई भी भाषा वैज्ञानिक मुझे जैन ग्रन्थ में लिखी १८ लिपियों और बौद्ध ग्रन्थ में लिखी ६४ लिपियों को मिलाकर कुल ८२ लिपियों के शिलालेख या प्राचीन अभिलेख दिखा सकते है ? इसका उत्तर होगा मात्र १०-१२ के भी मुश्किल से दिखा पायेंगे उनमे से भी अधिकाँश ब्राह्मी और खरोष्टि के ..और बाकी लिपियों के एक भी अक्षर का कोई शिलालेख दिखा ही नही सकता है | अब हम देखते है कि अंग्रेजी और हिंदी के अनेको लेख और शिलालेख मिल जायेंगे | लेकिन उपरोक्त लिपियों में से अधिकाँश के नही तो क्या इस आधार पर मै यह कहू कि ” उन सभी लिपियों से अंग्रेजी और हिंदी की लिपि प्राचीन है | तो कोई भी इस बात को मानने को तैयार नही होगा क्योंकि हिंदी और अंग्रेजी बहुत बाद में बनी हुई भाषाए है | इससे यह भी सिद्ध होता है कि मात्र शिलालेख या अभिलेख ही किसी की प्राचीनता बताने की कसोटी नही है | क्योंकि इन भाषाओं और लिपियों के प्राचीन होने पर भी इनके कोई शिलालेख नही मिलते है |
संदर्भित ग्रन्थ एवम् पुस्तके –
(१) भाषा विज्ञान – कपिल द्विवेदी
✍🏼अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

वैदिक सिंधु – सरस्वती सभ्यता

सिंधु, सरस्वती, गंगा तथा नर्मदा नदियों के क्षेत्र में हड़प्पा, मोहेनजोदड़ो में प्राप्त पुरातात्विक सामग्री के विस्तार से इस क्षेत्र में वैदिक प्रकृति पूजा की संस्कृति दृश्यमान है।

84 लाख योनियों के जीवों से अलग मनुष्य की जाति एक ही होती है अतः विश्व की सभी सभ्यताएं आर्य-अनार्य न होकर ‘मानव संस्कृति’ की पर्याय हैं।

पूर्वाग्रह मुक्त शोध से 3500-1700 ई. पू. के समय की सिंधु घाटी सभ्यता के अभिलेखों में प्राप्त 419 संकेताक्षरों में ब्राह्मी लिपि के सभी अक्षर समाहित हैं अतः इस लिपि को वेदकालीन ब्राह्मी या वैदिकी भी कहा जा सकता है।

इस क्षेत्र में किए गए सभी शोध कार्यों के समन्वय एवं वेद, मानव धर्मशास्त्र, रामायण, महाभारत व पुराणों के तथ्यों के विवेचन से डॉ. करूणाशंकर शुक्ल राजराजेश्वरी मंदिर बांगर मऊ, उन्नाव ने केंद्र सरकार से अनुदान प्राप्त कर सिंधु मुद्राओं के अभिलेखों को पढ़ने का दावा किया है।

सिंधु- सरस्वती सभ्यता के अभिलेखों में 419 चिन्हों में पौराणिक अवतार, देव सहित मनुष्य-22, मच्छली -20 , राशि-12, ग्रह – 09, शुभवस्तु –32, पशु-पक्षी-30 तथा 19 अन्य वस्तुओं के चित्राक्षर भी संकेताक्षरों के साथ प्राप्त होते हैं।

चित्राक्षरों-संकेताक्षरों के अलावा गिनतियों के साथ भी अक्षरों का प्रयोग प्राप्त होता है।

चित्राक्षरों का ही विकसित रूप चाणक्य कालीन ब्राह्मी है। मुद्राओं की उपलब्धि विशेष रूप से पंजाब में हड़प्पा और सिंधु में मोहेनजोदड़ों से प्राप्त हुई है।

अतः इन्हें सिंधु-मुद्राएं तथा उन पर अंकित लिपि को ”सिंधु-लिपि” कहा जाता है।

करूणाशंकर शुक्ल बांगरमऊ उन्नाव के शोधकार्य के अनुसार वास्तव में एल. पी. टेसीटरी ने 5 अप्रैल से 10 अप्रैल, 1917 में राजस्थान में सरस्वती नदी की शुष्क घाटी में स्थित कालीबंगन के टीलों पर कैंप करके अनेक
पुरावशेषों को खोजा था और उनके प्रागैतिहासिक महत्व को भी आंका था, किंतु उसने अत्यंत खेद के साथ एफ. डब्लू. थॉमस और जार्ज ग्रियर्सन को पत्र लिखकर सूचित किया कि जॉन मार्शल ने उस अपने लेख को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दी थी। यदि उसे ऐसा करे की अनुमति प्रदान की गई होती तो संसार में ‘सरस्वती-संस्कृति’ उजागर होती और अंग्रेजों को भारतीय संस्कृति पर पश्चिम एशिया के प्रभाव को सिंधु-कांठे से भारत में प्रवेश करने तथा बाद में आर्यों के द्वारा वहां आकर के उसे नष्ट करने का भ्रामक प्रचार करने की सुनियोजित योजना को भाषाई आधार पर चरितार्थ करने का सुअवसर नहीं मिलता।

अब तक भारत में लगभग 862 प्राक्-हड़प्पा कालीन और उत्तर-हड़प्पा कालीन स्थलों की खोज की जा चुकी है जो कि पूर्व में कौशांबी-कानपुर से लेकर पश्चिम में सुतकजेंडोर (मकरान) तथा उत्तर में माडा (जम्मू और कश्मीर) से लेकर दक्षिण में दाइमाबाद (महाराष्ट्र) तक फैले
थे। यदि पाकिस्तान को शामिल कर लिया जाए तो श्री जगपति जोशी के अनुसार ये सभी स्थल लगभग 25 लाख वर्ग कि. मी. के क्षेत्र में फैले थे। पेपीरस पर जैसे मिश्र देशवासी लिखते थे वैसे ही भारत में भोजपत्र पर या किसी मृत्तिका पट्ट पर क्षुरभ्र (रोजर) द्वारा लिखने की प्रथा थी।

शुक्ल यजुर्वेद (15,4) में लिखा है –

”अक्षरः पंक्तिश्छन्दः, पदपंक्तिश्छन्दः। विस्टार
पंक्तिश्छंदः, क्षुरोभ्रश्छन्दः॥”

अर्थात् किसी-किसी मुद्रा में केवल एक ही अक्षर रूप पद है किसी में पूरा पद है, किसी में थोड़ा विस्तृत रूप उन पदों का है जो क्षुर के द्वारा उत्कीर्ण किए गए हैं।

एक ॠग्वैदिक मंत्र में यहां तक स्पष्ट किया गया है कि प्रणियों के पत्थर दिल पर ‘किकिर’ (छूरी) के माध्यम से दया व प्रेम
की भाषा अंकित कराइए। (ॠग्वेद 10.71.1) ब्राह्मी लिपि को सिंधु लिपी का ‘रिसोटा’ अभिलेख माना जा सकता है।

यह रचनात्मक मार्ग है। सिंधु
तथा ब्राह्मी लिपियों को द्विभाषी अभिलेख भी प्राप्त हुआ है। इसे गजकवि – गणेश पढ़ा गया है।

मोहेनजोदंड़ों से प्राप्त एक मुद्रा में
पद्म शब्द तीन बार भिन्न-भिन्न चिन्हों पर अंकित किया गया है।

बौद्ध ग्रंथ ललित-विस्तार में 64 प्रकार की लिपियों का उल्लेख है। प्राचीन जैन ग्रंथ ”समवायसूत्र” में ”ब्राह्मी” सहित 18 प्रकार की लिपियां वर्णित हैं। यहां यह बताना अनुचित न होगा कि ब्रह्म का एक अर्थ वेद भी है और ”ब्राह्मी” लिपि का अर्थ ”वैदिकी” हैं।

चूंकि भारत की प्राचीनतम् संस्कृति वैदिक संस्कृत है और उसके प्राचीनतम् ग्रंथ ”वेद” हैं। अतः भारत के प्राचीनतम् लिपि को ”ब्राह्मी” लिपि की संज्ञा दी जाए तो सिंधु-लिपि को एक सार्थक नाम दिया जा सकता है। इस लिपि का सर्वप्रथम आविष्कार ॠषभदेव ने किया था।

अशोक लिपि के जाने के समय तक सिंधु लिपि की खोज नहीं हो पाई थी, अतः प्राचीन वैदिक साहित्य के आधार पर जेम्स प्रिंसेप प्रभृति, पाश्चात्य विद्वानों ने अशोक लिपि को ब्राह्मी लिपि की संज्ञा दे दी। यह सिंधु-लिपि है और अशोक लिपि उसका विकसित एवं परिष्कृत रूप है। दो पक्षियों से युक्त मुद्रा को वैदिक मंत्र की व्याख्या के रूप में 1949 ई. में प्रकाशित कल्याण के हिंदू-संस्कृति अंक में प्रकाशित भी किया गया था। इस मुद्रा पर अंकित वैदिक मंत्र संपूर्णतः डॉ. शुक्ल जी ने पढ़ा है –

द्वा सुपर्णों सयुज सखायो समान वृक्ष परिषस्व जाते। तथोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वतनश्न्नन्यो अभिचाकशीति (ॠग्वेद
1.164.20)

इसके अलावा कई वेदमंत्र
यथा गायत्री भी प्रकारांतर से अभिलेखित हैं।

मोहनजोदड़ो से प्राप्त पशुपति मुद्रा में भगवान शिव को योगी के रूप में दिखाया गया है। वे पदमासन में हैं। दोनों ओर गैंडा, भैंसा, हाथी, तथा शेर हैं। इनमें गैंडा और शेर वन्य पशु हैंऔर भैसा, हाथी पालूत, ग्राम्य पशु है। मुद्रा के उपरी भाग में छः अक्षरों को डॉ. शुक्ल ने पसु पार्श्व मनन पढ़ने का उपक्रम किया है। इससे प्रथम तीन अक्षर प शु प तथा पांचवा अक्षर में स्पष्ट है। चौथा संयुक्त अक्षर अस्पष्ट है। इसे पशुपति कुलम पढ़ा है।

इंदिरा नगर, कानपुर से प्राप्त मिट्टी की मुद्रा को त्रित्सु पढ़ा जा सकता है। त्रित्सु भरतवंशी आर्य कहलाते थे। कन्नौज के राजा और महर्षि विश्वमित्र भी इसी वंश के थे।

वैदिक युग के पश्चात् रामायण तथा महाभारत युग के संदर्भ सिंधु सभ्यता में मिले हैं। वस्तुतः सिंधु
सभ्यता सरस्वती गंगा तथा नर्मदा तक विस्तृत प्रकृति पूजा की वैदिक संस्कृति ही है।

स्वयं मार्शल ने भी 17 चिन्हाें को ब्राह्मी समझा था। मानव भाषा संस्कृत के मूल स्वर अ, इ, उ, के साथ शिव, बह्मा, बिष्णु, परशुराम, श्रीराम, वासुदेव, राधा, वसुंधरा, नाग, पद्मा, परशुराम, इत्यादि मुद्रालेखों में विद्यमान है।

मुद्रा चित्रों व फलकों में संस्कृत साहित्य के अन्य संदर्भ भी हैं। दो सिंहों के मध्य खड़े बालक को शकुंतला पुत्र भरत माना जा सकता है।

ऐसे विवेचनों से सत्य के समीप
पहुंच सकते हैं। मृत सिंह को तीन पंडितों की अमर विद्या से जिलाने तथा चौथे विद्वान पंडित के वृक्ष पर चढ़ कर जान बचाने की कथा तीन चित्र फलकों में प्रह्लाद की प्राण रक्षा, पंचतंत्र की कौवा हिरन मित्रता, कौवा-लोमड़ी कथा भी विद्यमान है।

एक मुद्रा पर सात मनुष्यों का अंकन सप्तर्षि की स्मृति है।

शोध कार्य के अनुसार सिंधु-सरस्वती सभ्यता महाभारत कालीन नागों की नगर सभ्यता है धर्म वैदिक तथा भाषा संस्कृत है। नाग कन्या उल्पी का विवाह पांडव अर्जुन से हुआ था। हस्तिनापुर के सम्राट जनमेजय ने नाग यज्ञ का आयोजन भी किया था। इसमें पुराण प्रवचन भी हुआ था। नगर ध्वंश का यह कारण भी संभव है। 1750 ई. में गंगा की बाढ़ में हस्तिनापुर के नष्ट हो जाने के कारण कौशांबी नई राजधानी बनाई गई थी। यह संभव है। एक अभिलेख में नागश्री(बक्सर गुजरात) है। ‘नागर’ लोग आज
भी गुजरात में रहते हैं। नागर लोगों की विकसित ब्राह्मी का ही नाम देवनागरी लिपि है।

अष्टादश पुराणों का संपादन द्वापर युग( 3102 ई. से पहले)
में महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने किया था।
सिंधु मुद्राओं में ‘अग्नि पुराण’, ‘विष्णु पुराण’, ‘पद्म
पुराण’, ‘वायु पुराण’ तथा ‘दश सप्त पुराण’ के उल्लेख है। ‘मत्स्य पुराण’ अंकित करने के लिए एक ‘मत्स्य चिह्र’ को चार बिंदुओं से घेर दिया गया है।

सिंधु मुद्राओं पर संख्याओं को खड़ी रेखाओं के माध्यम से दर्शाया गया है। हड़प्पा से प्राप्त एक अभिलेख में पांच खड़ी रेखाओं के साथ गमले के आकार के चिन्ह को दिखाया गया है। इसे पंचपात्र पढ़ा जा सकता है।

पुरातत्व विभाग तमिलनाडु के तत्वावधान में कृतमाला (वेगई) समुद्र संगम अलगन कुलम् अटंकराई, रामनाथपुरम्, तमिलनाडु में कराये गए उत्खनन में भूरे, लाल तथा उभरी चमत्कार काले पात्रों के साथ प्राप्त अभिलेख एवं फलकों में सिंधु
घाटी सभ्यता से साम्य है।

अयोध्या, हस्तिनापुर, मथुरा अहिछात्रा, अतिरंजीतखेड़ा तथा सचान कोट उन्नाव से प्राप्त पुरावशेष अटंकराई से मिलते-जुलते हैं।

इस आधार पर वैदिक सप्त सैंधव (पाकिस्तान) कश्मीर से लेकर रामेश्वरम् (तमिलनाडु) तक संपूर्ण
भारत में एक ही वैदिक सिंधु-सरस्वती संस्कृत के दर्शन होते हैं।

नवीनतम् शोधों के अनुसार आर्य-
द्रविण के भेदभाव तथा आर्यों के जन्मस्थान के काल्पनिक विवाद झुठे प्रमाणित हो चुके हैं।

आश्चर्य है कि ये सुप्रमाणित तथ्य इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में समिल्लित नहीं किए गए हैं।

सिंधु सभ्यता नदी घाटी के लोग सिंधी (सारस्वत) एवं विश्व की प्रथम हिंदी हिंदू वैदिक आर्य
संस्कृति के प्रसारक के रूप में संपूर्ण विश्व में विस्तारित हैं।

इस प्राचीन ब्राह्मी लिपि के रहस्य
उद्धाटन हेतु किए गए अभी तक के सभी शोध कार्यों को समन्वित करके सफलता प्राप्त की जा सकती है।

पशुपति मुद्रा के पशुपति कुलम् भगवान शिव पंचायतन परिवार का विकसित रूप कीट द्वीप
की नागधारी योगी तथा भारत में प्रचलित प्राकृतिक शिव परिवार पूजा में दर्शनीय है। सभी शोधकर्ताओं के सम्मेलन/ शास्त्रार्थ विवेचन से ही सभी मुद्राभिलेखों को शुद्ध रूप में
पढ़ा जा सकता है ।

||●|| वंदेमातृसंस्कृतम् ||●||

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