मित्रो, सुख-दुख भौतिक जीवन को दूषित करने वाले हैं, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि सुख-दुख को सहन करना सीखे, जैसा कि भगवद्गीता में भगवान् ने उपदेश दिया है, कोई कभी भी सुख-दुख के आने-जाने पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकता, अत: व्यक्ति को चाहिये कि भौतिकवादी जीवन-शैली से अपने को विलग कर ले और दोनों ही दशाओ में समभाव बनाये रहे, सामान्यतया जब हमें इच्छित वस्तु मिल जाती है तो हम अत्यन्त प्रसन्न हो जाते हैं, तथा जब अनिच्छित घटना घटती है तो हम दुखी हो जाते हैं।
लेकिन अगर हम वास्तविक आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त हो जाये तो ये बातें हमे विचलित नहीं कर पायेंगी, इस स्थिति तक पहुँचने के लिये हमे अटूट भक्ति का अभ्यास करना होता है, विपथ हुये बिना कृष्णभक्ति का अर्थ होता है भक्ति की नव विधियों, जैसे कीर्तन, श्रवण, पूजन आदि में प्रवृत्त होना, इसका वर्णन नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में हो चुका है, यह स्वाभाविक है कि आध्यात्मिक जीवन-शैली का अभ्यस्त हो जाने पर मनुष्य भौतिकतावादी लोगों से मिलना तक नहीं चाहेगा।
मनुष्य को चाहिये कि वह यह परीक्षा करके देख ले कि वह अवांछित संगति के बिना एकान्तवास करने में कहाँ तक सक्षम है, यह स्वाभाविक ही है कि भक्त व्यर्थ के खेलकूद या सिनेमा जाने या किसी सामाजिक उत्सव में सम्मिलित होने की कोई रूचि नहीं रखता, क्योंकि भक्त जानता है कि यह समय को व्यर्थ में गँवाना है, कुछ संस्थान तथा दार्शनिक ऐसे है जो कामवासनापूर्ण जीवन या अन्य बिना मतलब के विषयों का अध्ययन करते हैं, लेकिन भगवद्गीता के अनुसार ऐसा शोध कार्य और दार्शनिक चिन्तन निरर्थक है।
भगवद्गीता के अनुसार मनुष्य को चाहिये कि अपने दार्शनिक विवेक से वह आत्मा की प्रकृति के विषय में शोध करे, यानी अपने आत्मा को समझने के लिये शोध करे, जहाँ तक आत्म-साक्षात्कार का सम्बन्ध है तो यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है कि भक्तियोग ही व्यवहारिक है, ज्योंही भक्ति की बात उठे, तो मनुष्य को चाहिये कि परमात्मा तथा आत्मा के सम्बन्ध पर विचार करे, आत्मा तथा परमात्मा कभी एक नहीं हो सकते, विशेषतया भक्तियोग में तो कभी नहीं, परमात्मा के प्रति आत्मा की यह सेवा नित्य है, इसलिये मनुष्य को इसी दार्शनिक धारणा में स्थित होना चाहिये।
श्रीमद्भागवत में व्याख्या हुई है- “वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्” यानी जो परम सत्य के वास्तविक ज्ञाता है वे जानते है कि आत्मा का साक्षात्कार तीन रूपों में किया जाता है, और वे तीन रूप हैं ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान्, परम सत्य के साक्षात्कार में भगवान् पराकाष्ठा होते हैं, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि भगवान् को समझने के पद तक पहुँचे और भगवान् की भक्ति में लग जाय, यही ज्ञान की पूर्णता है।
सज्जनों इस प्रस्तुति में विनम्रता से लेकर भगवत् साक्षात्कार तक की विधि को आपको समझाने का प्रयास किया, जो भूमि से चल कर ऊपरी मंजिल तक पहुँचने के लिये सीढ़ी के समान है, इस सीढ़ी में कुछ लोग ऐसे है जो अभी पहली सीढ़ी पर है, कुछ दूसरी पर, तो कुछ तीसरी पर, किन्तु जब तक मनुष्य ऊपरी मंजिल पर नहीं पहुँच जाता, जो कि श्रीकृष्ण का ज्ञान है, तब तक ज्ञान की निम्नतर अवस्था में ही रहता है, यदि कोई ईश्वर की बराबरी करते आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करना चाहता है तो उसका प्रयास विफल होगा।
यह स्पष्ट कहा गया है कि विनम्रता के बिना ज्ञान सम्भव नहीं है, अपने को ईश्वर समझना सर्वाधिक मूढ़ता है, यद्यपि जीव सदैव प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा ठुकराया जाता है, फिर भी वह अज्ञान के कारण सोचता है कि मैं ईश्वर हूंँ, ज्ञान का शुभारम्भ अमानित्य यानी विनम्रता से होता है, मनुष्य को विनम्र होना चाहिये, परमेश्वर के प्रति विद्रोह के कारण ही मनुष्य प्रकृति के अधीन हो जाता है, मनुष्य को इस सच्चाई को जानना और इससे विश्वस्त होना चाहिये।
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि रज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।।
अब मैं तुम्हें ज्ञेय के विषय में बताऊँगा, जिसे जानकर तुम नित्य ब्रह्म का आस्वादन कर सकोगे, यह ब्रह्म या आत्मा जो अनादि है और मेरे अधीन है, इस भौतिक जगत् के कार्य-कारण से परे स्थित है।
सज्जनों! भगवान् ने इस अध्याय में क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ की व्याख्या की, भगवान् ने क्षेत्रज्ञ को जानने की विधि की भी व्याख्या की, अब श्रीकृष्ण ज्ञेय के विषय में बता रहे हैं, पहले आत्मा के विषय में, फिर परमात्मा के विषय में, ज्ञाता अर्थात् आत्मा तथा परमात्मा दोनों ही के ज्ञान से मनुष्य जीवन-अमृत का आस्वादन कर सकता है, जैसा कि द्वितीय अध्याय में भी कहा गया है, जीव नित्य है, इसकी भी पुष्टि यहाँ हुई है, जीव के उत्पन्न होने की कोई निश्चित तिथि नहीं है और न ही कोई परमेश्वर से जीवात्मा के प्राकट्य का इतिहास बता सकता है।
इसकी पुष्टि कठोपनिषद् वैदिक साहित्य से होती है- “न जायते म्रियते वा विपश्चित” यानी शरीर का ज्ञाता न तो कभी उत्पन्न होता है और न मरता है, वह ज्ञान से पूर्ण होता है, श्वेताश्वतर उपनिषद् में भी परमेश्वर को परमात्मा रूप में स्वीकार किया गया है- “प्रधान क्षेत्रज्ञपतिलेगुणेश:” यानी शरीर का मुख्य ज्ञाता तथा प्रकृति के गुणों का स्वामी कहा गया है, स्मृति में भी कथन है- “दासभूतो हरेरेव नान्यस्तयैव कदाचार” यानी जीवात्मायें सदा भगवान् की सेवा में लगी रहती है, इस तेहरवें श्लोक में ब्रह्म का जो वर्णन है वह आत्मा का है, जब ब्रह्म शब्द जीवात्मा के लिये व्यवह्रत होता है तो समझना चाहिये कि वह आनन्दब्रह्म न होकर विज्ञानब्रह्म है, आनन्द ब्रह्म ही परब्रह्म भगवान् है।