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अमृत है गौदुग्ध
प्राचीन समय से एक परंपरा चली आ रही है कि जो बच्चे जन्मोपरांत विभिन्न कारणों से अपनी जननी, आपनी माॅं के दूध से वंचित हो जाते है, अपनी मां का दूध नहीं ले पाते, उन्हें सबसे पहले गौदुग्ध का सेवन कराया जाता है। गौदुग्ध उन बच्चों के लिए जीवनरक्षक का कार्य करता है, लेकिन जब इन बच्चों को गौदुग्ध की जगह अन्य पशुओं यथा भैंस आदि या फिर सूखे दूध का सेवन के लिए दिया जाता है, तो वही बच्चे या तो बीमार बने रहते है या फिर बड़े होकर नाना प्रकार की बीमारियों का शिकर बनते है। ऐसे बच्चों को प्रायः पेट संबन्धी व्याधियां घेरे रहती है। गौदुग्ध के इतरेक अन्य जानवरों या ऊपरी दूध पर पहले वाले ऐसे बच्चों को प्रायः उदर संबन्धी व्याधियों से लेकर त्वचा संबन्धी रोगों की शिकायत रहती है। अप्राकृतिक दूध या अन्य पदार्थों के प्रयोग के फलस्वरूप इन बच्चों को यकृत संबन्धी विकार, नवजात समय का पीलिया सर्वाधिक देखा जाता है। इस शिशु अवस्था में इन बच्चों के सभी अंग बहुत ही नाजुक स्थित होते है।
शिशुओं के लिए पेट संबन्धी परेशानी, उदर संबन्धी विकार सबसे ज्यादा कष्ट, सबसे अधिक समस्याएं खड़ी करते पाये गये है। जन्मोपरांत प्रथम दो महीने की अवधि में पेट संबन्धी विकार उनकी मौत का कारण बनते देखे गए है। इन बच्चों को अप्राकृतिक दूध पिलाने या तो दस्त जैसी समस्याएं बनी रहती है, या फिर अफारा जैसे, पेट फूूलने का कष्ट बना रहता है। अधिकांश बच्चों के लिए पेट का यह अफारा मौत का कारण सिद्ध होता है। अपाचित दुग्धाहार से बच्चों के उदर में अधिक मात्रा में या तो गैस बनने लगती है या उनके आमाशय, आन्त्रादि में अधिक मात्रा में अपाचित आहार संचित होता जाता है। यह अपाचित आहार या गैस मलद्वार से बाहर न निकल पाने के फलस्वरूप मुख द्वार से बाहर आने का प्रयास करती है। इससे शिशु को बैचेनी के साथ घवटराहट और वमन की शिकायत बनी रहती है, परंतु इस नाजुक स्थिति में बच्चे का मस्तष्क श्वसन द्वार या अन्ननलिका द्वार पर प्रभावी नियन्त्रण बनाये नहीं रख पाता, तो वमन का कुछ अंश उसके श्वसन तन्त्र में, उसके फेंफड़ों में प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार वमन अंश के श्वसन तन्त्र में अटक जाने से बच्चे की साॅंस घुटने लगती है और अन्ततः वह बच्चा जीवन के लिए संघर्ष करता हुआ हार जाता है, असमय दम तोड़ देता है। प्रसव के समय दम घुटने या श्वसन मार्ग के अन्य कारणों से अवरूद्ध होने के फलस्वरूप ही अधिकांश नवजात शिशुओं का मौत होते देखी जाती है। संक्रमण जन्य रोग या अन्य बीमारियां तो एक वाहना बनती है। लेकिन उदर संबन्धी बीमारियों से गौदुग्ध रोक देता है। शिशुओं के जिए गौदुग्ध अमृत तुल्य बन जाता है।
गौदुग्ध पर जो आधुनिक अनुसंधान हुए है उनमें भी गौदुग्ध को माॅं के दूध के समकक्ष, समतुल्य पाया गया है। गौदुग्ध में भी वह सभी आवश्यक पोषक तत्व जैसे- वसा, लवण, ग्लूकोज, कार्बोहाइड्ेट्स, एल्बूमिनाइड और विटामिन, खनिज आदि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहते है, जो उनके लिए जरूरी रहते है।
प्रो. एन.एन. गोडबोले जैसे अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि गौदुग्ध में आठ प्रतिषत प्रोटीन, खनिज लवण, विटामिन ए, बी, सी, डी, ई आदि प्रचुर मात्रा में समाहित रहते है। दूध में 67 प्रतिशत कैलौरी उष्मा, तीन प्रतिशत से अधिक प्रोटीन, चार प्रतिशत फेट आदि ठीक उसी मात्रा में विद्यमान रहते है जैसे माॅं के दूध में पाये जाते है। अतः यह दुग्ध शिशुओं के लिए सहज पाचक एक अमृत तुल्य आहार ही बन जाता है। यह दुग्ध शिशुओं और बच्चों के लिए ही नहीं, अपितु गर्भवती स्त्रियों के लिए भी अति उपयोगी सिद्ध होता है।
अध्ययन परीक्षणों के अन्तर्गत ऐसा देखा गया है कि जो गर्भवती स्त्रियां, गर्भावसथा के दौरान गौदुग्ध का सेवन करती है, उनके गर्भ से जन्म लेने वाले बच्चों अधिक स्वस्थ्य और निरोगी रहते है। ऐसे बच्चों के पास अद्भुत बौद्धिक क्षमता और उच्च स्तर की रहती है, लेकिन इसके विपरीत जो स्त्रियं अपनी गर्भावस्था के दौरान अन्य शिशुओं के दुग्ध पर निर्भर रहती है, उनके बच्चों में जन्मजात रूप से कई तरह की बीमारियां आते है। ऐसी गर्भवती स्त्रियों के गर्भ से जन्म लेने वाले बच्चे मोटापे के शिकार तो होते ही है, कई अन्य तरह के रोगों के शिकार भी शीघ्र बनते है। ऐसे बच्चों में डायबिटीज से लेकर अन्य रोग अधिक देखे जाते है। इनका बौद्धिक विकास भी धीमी गति से होता है।
आहार के संबंध में एक बात और भी देखी जाती है जो स्त्रियां गर्भावस्था के दौरान सुपाचित, वनस्पतिक आहार यथा शाक, सब्जियां, फल-फूल, अन्न, दुग्ध गौ की जगह, मांस, मछली, अंडे आदि पर अधिक निर्भर रहती है, उनको गर्भावस्था के दौरान तो अनेक तरह की परेशानियों का सामना करना ही पड़ता है, उनके शरीर से जन्म लेने वाले बच्चे भी ज्यादा स्वस्थ और निरोगी नहीं रहते है। खास बात तो यह देखी गई कि ऐसे बच्चों का मानसिक विकस अत्यंत धीमी गति से होता है, चलने-फिरने, उठने-बैठने, बोलने-चालने स्वंय को संभावने में भी अधिक समय लगता है। इन बच्चों की मानसिक बुद्धि ज्यादा तीव्र नहीं रहती। पढ़ने लिखने में भी ऐसे बच्चे प्रायः सुस्त और फिसड्डी साबित होते है।
लेकिन इनके विपरीत शाकाहार, गौदुग्ध का सेवन करने वाले बच्चे ज्यादा तीव्र बुद्धि सम्पन्न रहते है। उन्हें जो बात एक बार समझायी जाती है, उसे वह तत्काल एंव शीघ्र समझ लेते है। उनकी स्मरणक्षमता, उनकी निर्णय लेने की सामर्थ भी अत्यधिक तीव्र रहती है। यद्यपि वह शारीरिक रूप से ज्यादा बली प्रतीत नहीं होते। वह बाहर से दुबले पतले नजर आ सकते है। लड़ने झगड़ने में भी वह सुस्त रहते है। इसीलिए प्राचीन काल में सभी गुरूकुलों में ब्रह्यचारी और विद्यार्थियों को केवल गौ दुग्धाहार सेवन के लिए दिया जाता था।
मांसाहार पर पलने वाले, जो गर्भवती स्त्रियों गर्भावस्था में भी निरंतर मांासाहर का सेवन करती रहती है, मांस, मछली, अंड़े के साथ मादक द्रव्यों का सेवन भी करती है, उनके शरीर से जन्म लेने वाले बच्चो के साथ एक अन्य बात भी देखी जाती है। यह बच्चे शारीरिक रूप से ज्यादा स्वस्थ्य, सुड़ौल तो अवश्य दिखाई पड़ते है, परंतु इनका बौद्धिक क्षमता अत्यधिक मंदगति से आगे बढ़ती है। ऐसे बच्चे बड़े होने पर अच्छे सैनिक, स्पोर्टमेन, सिपाही तो अवश्य सिद्ध होते है, किंतु बौद्धिक कार्यों में ज्यादा प्रभावी साबित नहीं होते। ऐसे बच्चे अपने बचपन से ही लड़ने, झगड़ने जैसे कार्यों में ज्यादा रूचि दिखाते है। यह स्वार्थी प्रवृत्ति् के रहते है। यह सभी बच्चों के साथ ठीक से घुल मिल नहीं पाते, उन्हें उदंड़ता भरा व्यवहार अधिक भाता है। या इनमें बच्चों को सताने-परेशान करने में ज्यादा आनंद मिलता है। इन बच्चों को अनुशासन में रखना, टेड़ी खीर साबित होता है। बड़े होने पर ऐसे बच्चे लड़ने झगड़ने, हिंसात्मक कार्यों में ज्यादा लिप्त रहते है। पढ़ने-लिखने, अनुशासन में रहने की इनमें रूचि ज्यादा नहीं रहती, लेकिन यह बच्चे खेलने कूदने, लड़ने मारने, लूटने पाटने में गहरी रूचि लेते रहते है। ऐसे बच्चे अक्सर बड़े होने पर गैर सामाजिक कार्यों में लिप्त पाये जाते है। समाज में अराजकता फैलाने के कार्यों में संलग्न रहते है।
आधुनिक परीक्षणों से एक बात का और पता चला है कि गौदुग्ध में स्टोनटियन नामक एक विशेष यौगिक तत्व पाया जाता है। इस यौगिक में अणुविकिरण प्रतिरोधक क्षमता पायी जाती है। यह बच्चों के शरीर पर बचपन में और वयस्कों में भी अनेक तरह की असाध्य समझी जाने वाली बीमारियों के हमला को रोकता है। यह इनके शरीर में अनेक तरह के रोगाणुओं से लड़ने की क्ष्मामता विकसित करता है। इससे बच्चे, बडे़, बुजुर्ग सभी के शरीर में रोग प्रतिरोधकता बढ़ती है। यह निर्बल रोग प्रतिरोधक क्षमता को तीव्र करने का कार्य करता है।
गौदुग्ध में आमेगा.3 नामक एक एंटीआॅक्सीडेंट तत्व भी पाया जाता है। यह एंटीआॅक्सरडेंट तत्व शरीर में ड़ी, एच, ए की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है। यह सभी तत्व कोशिकीय क्षय को घटाते है, मस्तिष्क को भी क्षतिग्रस्त होने से रोकते है। दरअसल, एंटीआॅक्सीडेंट वह तत्व होते है जो पदार्थों के पाचन, उप-पाचन के फलस्वरूप शरीर में उत्पन्न होते रहते है। यह विषाक्त रसायनों फ्री रेडिकल्स की सक्रियता को रोककर उनके घातक प्रभावों को समाप्त करते है और शारीरिक क्षति को, ऊतकीय नुक्सान को अधिक समय तक रोके रखते है। यही आॅक्सीडेंट तत्व पोषक तत्व, हानिकारक पदार्थों को निष्कीय बनाकर शरीर की सुरक्षा करते है। इसलिए भी गौदुग्ध का पान करने वाले लोगों के शरीर पर बुढाने के लक्षण देर से प्रकट होते हैं, उनकी जीवटता, उनकी स्फूर्ति, सबलता बड़ी उम्र तक अक्षुण्य बनी रहती है। वह बड़ी उम्र तक स्वंय को ज्यादा तरो ताजा, स्वंय को ज्यादा ओजस्वी अनुभव करते है।
पशु दुग्ध पर दीर्घ अवधि तक अध्ययन करने वाले अमेरिका के एक विशेषज्ञ डाॅ. एम. ए. पीपत्स का कहना है कि घासपास, फसलों के ऊपर छिड़के जाने वाले विषाक्त कीटनाशक उन्हें खाने वाले पशुओं के शरीर में पहुंचकर उन पशुओं को भी विषाक्त बना देते है। इसके फलस्वरूप उन पशुओं का दुध भी विषाक्त बन जाता है, लेकिन उन्हीं घासपात व पशु आहार पर निर्भर रहने वाली गायों के दुध में विषाक्त रसायन नही पहुंच पाते। गाए स्वंय अपने शरीर में ही आहार के माध्मय से पहुंचने वाले विषाक्त रसायनों को पचा लेती है। इस तरह गाए के दुग्ध पर पलने वाले शिशु और बच्चे तथा वयस्क सभी उन विषाक्त रसायनों के घातक प्रभाव से सुरक्षित बचे रहते है।
ज्ञात हो कि कृषि जगत और घरों में नित छिड़के जाने वाले कई तरह के कीटनाशक, जहरीले रसायन विभिन्न माध्यमों से पशु, पक्षी और मानव शरीर में पहुंच कर उन्हें विषाक्त बना रहे है। उन्हें शरीर में अनेक रोगों का कारण सिद्ध हो रहे है। उनकी मृत्यु का कारण बनते जा रहे है। ऐसे विषाक्त रसायन अनेक प्राणियों को लुप्त प्रायः बनने का कारण बन चके है। जहां तक कि ऐसे विषाक्त रसायन मां के दुध में भी अपनी उपस्थित दर्ज कराने लगे है, अतः ऐसी भयावह स्थिति में जब स्वंय जननी का दुध ही बच्चे में जहरीले पदार्थ पहुंचने का माध्यम बनने लगा है। दूसरी ओर गौदुग्ध उन बच्चों के लिए भी अमृत सिद्ध हो रहा है। अतः जो विषाक्त रसायन दुधारू पशुओं के माध्यम से लोगों के शरीर में पहुंच कर विभिन्न समस्याएं खड़ी कर रहे उनके लिए भी यह गौदुग्ध सुरक्षित सिद्ध हो रहा है। गौदुग्ध ऐसे विषाक्त रसायनों से सर्वथा निर्दोष बना रहता है।
गौदुग्ध की प्रसन्ना के सैकड़ों उल्लेख हमारे प्राचीन शास्त्रों में देखने को मिलते है। महर्षि चरक ने अपनी संकलित ग्रंथ चरक संहिता में गौदुग्ध को मधुर, शीतल, मृदु, स्निग्ध, ष्लक्षण, वहन, गुरू, मंद, प्रसन्न, पच्छिल जैसे अनेक गुणों से सम्पन्न बताया है। अतः यह पूर्ण आहार सिद्ध होता है। अब आधुनिक परीक्षणों से भी यह बात प्रमाणित होने लगी है आधुनिक वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसा गौदुग्ध में आठ प्रकार के प्रोटीन, 21 प्रकार के एमीनो एसिड्स, चार प्रकार के फेटी एसिड, छह प्रकार के विटामिन्स, आठ प्रकार के किव्स, 25 प्रकार के खनिज पदार्थ और दो प्राकर के ग्लूकोज, चार प्रकार के फाॅस्फोरस यौगिक, बीस प्रकार के नाइट्ोजन तत्व पाये गये है।
गौदुग्ध में जो खनिज पाये जाते है उसमें कैश्लियम, फाॅस्फोरस, आयरन, मैग्नीज, फ्लोरीन, मैनीशियम, सिलीकोन आदि प्रमुख है। गौदुग्ध में विटामिन ए, बी, सी, डी, ई, के भी पाये जाते है। इसमें लैक्टोस नामक एक अन्य तत्व भी पाया जाता है। दुग्ध के यह सभी यौगिक शीघ्र पाचनीय अवस्था में रहते है।
गोदुग्ध की जो प्रोटीन है, वह अन्य पशुओं के दूध की अपेक्षा सुपाच्य और उपयोगी होती है। इसलिए इससे पाचन तंत्र और शरीर की अन्य जैविक रसायन क्रियाओं पर कोई असर नहीं पडता, जबकि अन्य जन्तुओं के दूध में ऐसे प्रोटीन कण विद्यमान रहते है, जो आन्त्र संस्थान से लेकर मस्तिष्क तक पर विपरीत असर डालने वाले सिद्ध होते है। इसलिए ऐसे दुध पर निर्भर रहने वाले शिशुओं में आगे चलकर कई तरह की आन्त्र संबन्धी विकार से लेकर एक्जिमा, श्वसन और त्वचा संबन्धी विकार विकसित होने लगते है।
गौदुग्ध में जो प्रोटीन पाये जाते है, उनके सूक्ष्म कण अर्थात् एमीनो एसिड्स के तीन वर्गो में विभाजित किया जा सकता है। लाइसिन, ट्प्टिोफेन, हिक्विटाइन। यह तीनों ऐसी एमीनो एसिड्स है जो शरीर के लिए बेहद उपयोगी रहते है।

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