((पूर्णिमा ओर अमावस्या का जीवो पर प्रभाव))
हमारे पूर्वजों को ब्रह्मांड की जानकारी वेद पुराणो से प्राप्त हुई। खगोल शास्त्र ने भी ये सिद्ध किया कि ब्रह्मांड की सृष्टि एक लंबी किन्तु धीमी गति से होने वाली प्रक्रिया का परिणाम है जिसका एक परिणाम नवग्रह है इन सभी ग्रहो में चंद्रमा एक कोमल व सुंदर ग्रह है मन के ऊपर इसका पूर्ण नियंत्रण है। चंद्रमा पृथ्वी के सबसे पास का ग्रह है इसलिये इसका सबसे अधिक प्रभाव भी पृथ्वी पर पड़ता है। पृथ्वी की रात के कृष्ण और शुक्ल पक्ष चंद्रमा के उदय अस्त की गति के कारण होते है। जैसे चंद्रमा का सीधा प्रभाव धरती के जीवों पर होता है उसी प्रकार पूर्णिमा व अमावस्या का पूर्ण संबंध भी चंद्रमा से होता है और दोनों के परस्पर योग के फलस्वरूप होने वाला अच्छा व बुरा परिणाम व प्रभाव भी सभी जीवों पर प्रत्यक्ष रूप से होता है
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार,चंद्रमा की स्थिति प्रत्येक राशि अर्थात आकाश के तारा समूहों में बहुत कम समय के लिये मात्र सवा दो दिन होती है। सर्वाधिक गतिशील ये ग्रह पंद्रह दिनों तक वर्द्धमान रहता है और उसके बाद उसी क्रम से पंद्रह दिनों तक इसकी कलाऐ कम होती जाती है इसीलिये कृष्ण पक्ष में इसे दिन प्रतिदिन कमजोर होता देखते है और अमावस्या में तो सर्वथा लुप्त हो जाता है इसके वाद शुक्लपक्ष का प्रारंभ होते ही प्रतिदिन इसका बिम्ब ओर प्रभा मंडल उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और पंद्रहवे दिन पूर्ण चंद्रमा उदित होता है। इस रात्रि में चंद्र अपनी 16 कलाओं से युक्त,पूर्णतः अलोकिक,कांति व आभा से संपन्न,शोभन,शीतल,शान्तिप्रद व सुख दायक होता है। उसी प्रकार जीवो के जन्म के समय मे चाहे वो इंसान,जानवर जड़ व चेतन हो जैसी चंद्रमा की स्थिति होती है उसी अनुरूप प्रभाव देखने मे आता है। चंद्रमा प्रकर्ति भी है इसकी गति काफी तेज होती है पृथ्वी की अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति होती है और सूर्य की अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति होती है जैसे ही ये पूर्णिमा के आसपास पहुचता है इनकी गुरुत्वाकर्षण शक्तियां टकराती है अधिक गति के कारण जैसे ही ये पृथ्वी की ओर तेजी से खिंचती है और सूर्य के नजदीक पहुचने पर सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से तेजी से खिंचती है धरती पर समुंदर पर इसका असर ज्वार भाटा रूप में देखने को मिलता है लहरे ऊपर को खिंचती है क्योंकि चंद्र भी जल का कारक है और मनुष्य का शरीर और धरती दोनो पर लगभग 70 प्रतिशत भाग पर जल का प्रभाव होता है और इसीलिए चंद्रमा पर अमावस व पूर्णिमा व कुंडली मे चंद्र की स्थिति जिस प्रकार होती है वैसे ही मन और उसका असर होता है शरीर मे जल संबंधित बीमारी जैसे कफ,नजला,जुखाम,क्षय रोग, पागलपन,सनकीपन,अवसाद, आदि परेशानी बढ़ जाती है।
किसी व्यक्ति को वल्ब या ट्यूब की रोशनी में लिटाये ओर दूसरे को पूर्ण चंद्र की रोशनी में लिटाये दोनो के शरीर मे होने वाले हार्मोंसिक प्रभाव पूर्ण चंद्र की रोशनी में लेटने वाले के ज्यादा अच्छे व संतुलित होंगे। मनुष्य के दो मन होते है अवचेतन व चेतन मन अवचेतन मन मे पूर्व जन्मों के संस्कार रहते है और चेतन मन से हम लौकिक व्यवहार करते है। अवचेतन मन के एकत्रित संस्कार सूक्ष्म होते है हम पर कब प्रभाव डाल कर अपना उल्लू सीधा कर गए पता ही नही चलता। जबकि चेतन मन का हमे भान होता है किन्तु दोनो अवस्था मे मन भारी पड़ता है और वो अपने अनुसार कार्य करा लेता है। अमावस्या को चंदमा का जो अंधेरे का भाग होता है उसका प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है। अर्थात शनि राहु केतु ग्रह अधिक क्रियाशील रहते है इनका पूर्ण साम्राज्य होता है सूर्य के प्रकाश का अग्नितत्त्व(तेज) न होने से रजत व तमस का प्रभाव बढ़ जाता है। लिहाजा नकारात्मक शक्तियां गतिशील व शक्तिशाली हो जाती है भूत, प्रेत,पितृ, व आसुरी शक्तियों को अपने प्रभाव को डालने के लिये उपयुक्त वातावरण तैयार हो जाता है। अक्सर ऐसे ही समय मे ये दानवी शक्तियां जीव पर हावी हो जाती है। इसलिये ये विधान है कि कृष्ण पक्ष में अच्छे शुभ कार्ये प्रायः वर्जित होते है ऐसे में कोई क्रय, विक्रय या महत्चपूर्ण निर्णय रोके देने चाहिए।
उसी प्रकार पूर्णिमा में चंद्रमा बलवान होता है सूर्य के तेजमयी प्रकाश से रजत व तमस का प्रभाव कुछ कम हो जाता है। जिनकी कुंडली ने चंद्रमा कमजोर होता है या मानसिक रूप से जो जीव कमजोर होते है उनकी वही स्थिति बढ़ जाती है वो बड़बड़ाने लगते है पागलपन बढ़ जाता है आत्महत्या के विचार आने लगते है अवसाद पहले से बढ़ जाता है। ऐसे में जैसे संस्कार भरे होते है वैसा ही प्रभाव पड़ता है यदि पूर्व के अच्छे संस्कार है वो साधक रहा है तो वो साधना बढ़ा देता है। कोई लेखक होता है तो उसका लिखने का मन होता है कुछ संभाल कर लेता है पूर्णिमा का प्रभाव शरीर पर होता है और स्थूल होता है उसका भान रहता है। किंतु अमावस्या का प्रभाव मन पर ओर सूक्ष्म होता है पता नही चलता ओर प्रभाव अपना कार्ये कर जाता है। वो ज्यादा नकारात्मक होता है। पशु पक्षी आदि जीवो पर भी इन दोनों का प्रभाव होता है। उनमें भी आहार,निन्द्रा व मैथुन आदि क्रियाओं में प्रभाव देखा गया है
इनके प्रभाव से बचने के लिए नित्य भगवान शिव का जलाभिषेक थोड़ा कच्चा दूध मिलाकर व पीपल की जड़ में जल अर्पित करे। पूर्णिमा व अमावस्या के दो दिन पहले व दो दिन बाद में साधना का स्तर तुलनात्मक रूप से बढ़ा देना चाहिए। अपने पितरों को याद कर भोग वस्त्र व दान गंगा स्नान इसके निमित्त कर अपनी परंपरा अनुसार करते रहना चाहिए। मंत्र जाप ध्यान आदि क्रियाएं बहुत फलदायी होती है जो जातक के लिये एक सुरक्षा कवच का निर्माण करती है।
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