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अपने सभी पापकर्मों से मुक्ति पाने का उपाय है हठयोग ।

हठयोग के प्रणेता भगवान शिव हैं | भगवान शिव के अनुसार राजयोग सर्वोत्तम है और एक सिद्ध राजयोगी बनने के लिए हठयोग सीढ़ी के समान है | यद्यपि कहीं-कहीं यह भी कहा गया है कि यह दोनों अन्योनाश्रित है अर्थात जिस प्रकार से बिना हठयोग के राजयोग नहीं सिद्ध हो सकता उसी प्रकार से हठयोग के लिए भी राजयोग का अभ्यास आवश्यक है |

‘चित्तवृत्तियों को विचारों द्वारा दृढ़तापूर्वक रोकना और आसन, प्राणायाम आदि की सहायता से उसको (चित्त अर्थात मन को) परमेश्वर में लय करना ही योग है’ | शरीर की बात की जाये तो प्राण और अपान वायु की एकता का नाम ही योग है |

वास्तव में प्राण और अपान वायु के वश में हो कर ही ये जीव ऊपर और नीचे दौड़ रहा है | बायें (इड़ा नाड़ी) और दाहिने (पिंगला नाड़ी) मार्ग से गति करने की वजह से यह दिखाई भी नहीं देता |

जिस प्रकार से रस्सी से बंधा हुआ शिकारी बाज उड़ने के बाद भी फिर खिंच के चला आता है, उसी प्रकार से सत, रज और तम गुणों से बंधा हुआ यह जीव अपान वायु द्वारा खिंच कर चला आता है (शरीर में) | दरअसल प्राण अपान को और अपान प्राण को खींचता है और इस प्रकार ऊपर और नीचे ठहरे हुए इन दोनों वायुओं के रहस्य को जो जानता है वास्तव में वही योग के रहस्य को जानता है |

हठयोग: हठयोग में ‘ह’ सूर्य है और ‘ठ’ चन्द्रमा | इन दोनों के योग को हम सूर्य-चन्द्रमा, इड़ा-पिंगला, और प्राण-अपान का योग भी समझ सकते हैं | इन दोनों के योग से जो प्राणायाम (जिससे प्राण को साधा जा सके) होता है वही हठयोग है |

मोटे तौर पर समझे तो अनुलोम-विलोम प्राणायाम यानी इड़ा, और पिंगला नाड़ी को एक कर सुषुम्ना द्वारा प्राणायाम करना जिससे प्राण और अपान का एकत्व होकर समाधि का लाभ हो, यही हठयोग है |

यह समाधि वह प्रक्रिया है जिससे जन्म-जन्मान्तरों के कषाय-कल्मष (मोह, आसक्ति और वासना) नष्ट होने लगते हैं और जीव सुषुम्ना से होते हुए ब्रह्मरन्ध्र में स्थित परमात्मा से मिलन के लिए चल पड़ता है |

समाधि पर अधिकार वाले योगी को सर्वाधिकार प्राप्त होता है | काल (जिसके साम्राज्य में सब आते है) भी उसका अनुचर हो जाता है | ऐसा व्यक्ति ‘स्वयं’ में अर्थात ब्रह्म में स्थित हो जाता है |

अब थोड़ा सा विषयांतर होते हुए समाधि पर आते हैं | भारतीय धार्मिक ग्रंथों में दिया हुआ है कि ध्यान और समाधि से पूर्व जन्म के पाप मिटने लगते हैं |

अलग-अलग ग्रंथों में यही बात कुछ मंत्रो के लिए भी दी हुई है कि उन विशेष मन्त्रों के जप से पूर्व जन्म के पाप मिटने लगते है और साधक का अभ्युदय या उत्कर्ष होता है और यदि प्रभु की कृपा हो जाये या उनका दर्शन हो जाये तो भी जन्म-जन्मान्तरों के पाप नष्ट होने लगते हैं |

अब प्रश्न यह उठता है कि यदि मन्त्रों के जप से, या यौगिक क्रियाओं तथा साधनाओं से पूर्व जन्म के पाप मिटने लगते तो स्वर्ग और नर्क आदि लोकों की आवश्यकता क्यों होती ? जिन धार्मिक ग्रंथों में उपरोक्त बातें लिखीं हैं वही यह भी लिखा है कि कर्मों के फल तो भोगना ही पड़ता है चाहे ईश्वरीय कृपा हो जाये तो भी | तो फिर आखिर सत्य क्या है?

दरअसल आज के समय में जब एक आम आदमी बिना किसी कारण के कष्ट भोगता है तो उसके मन में ये विचार आता है कि पूर्व जन्म में उसने कोई पाप किया होगा जिसकी वजह से आज वह कष्ट भोग रहा है और अगर वह धार्मिक है, आस्तिक है तो यह विचार काफी दृढ़ता से मष्तिष्क में उठता है |

लेकिन जब कोई व्यक्ति कष्ट भोग रहा होता है तो उसके पीछे पूर्व जन्म के कर्म नहीं बल्कि उसके पीछे उसकी जन्म-जन्मान्तर की आसक्तियां, मोह-बन्धन, और वासनाएं होती हैं |

अगर इन मोह-बन्धन और आसक्तियों को किसी प्रकार से नष्ट कर दिया जाये तो वह व्यक्ति दुःख तो भोगेगा लेकिन उस दुःख में पीड़ा नहीं होगी ऐसा व्यक्ति अगर सुख और ऐश्वर्य भी भोगेगा तो उसमे प्रमाद, घमण्ड या ख़ुशी का भाव नहीं होगा | उसके लिए सुख और दुःख एक सामान हो जायेंगे और उसे इन दोनों में एक ही भाव (आनन्द) की अनुभूति होगी |

पढ़ने में यह बात पुस्तकीय ज्ञान जैसी लग सकती है लेकिन बात प्रामाणिक है | पुराणों में और धर्मग्रंथों में जहाँ ‘पूर्वजन्म के पापों के नष्ट होने की’ व्याख्या की गयी है दरअसल वहाँ ‘पूर्वजन्म की आसक्तियों, बन्धनों और वासनाओं के नष्ट होने की’ बात कही गयी है |

ये बिलकुल उसी तरह से है जैसे अगर कोई डॉक्टर, ऑपरेशन से पहले उस नर्व-सिस्टम का, जो मष्तिष्क तक पीड़ा की जानकारी पहुंचाती है, उस अंग (जिसमे शल्य-क्रिया करनी है) से विच्छेद कर दे तो रोगी को ऑपरेशन की चीर-फाड़ के दौरान होने वाले दर्द की जरा भी अनुभूति नहीं होगी जबकि वह बहुत कष्टकारक प्रक्रिया होगी |

योग की महिमा अपार है | एक बार संदेह में आकर पार्वती जी ने भगवान शिव से एक सटीक प्रश्न किया | उन्होंने महादेव जी से पूछा “ज्ञानी लोग कहते हैं कि ज्ञान प्राप्ति से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है अतः प्रयत्न पूर्वक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और आप सिद्ध हुए योग को ही मोक्ष देने वाला बताते हैं, ऐसा क्यों”?

इसके उत्तर में ईश्वर ने कहा “हे प्रिये! केवल ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्ति होती है, दूसरे साधन से नहीं, उनका यह कहना बिलकुल वैसे ही है जैसे कोई उत्साही वीर पुरुष कहे कि अस्त्र-शस्त्रों से ही शत्रु की पराजय होती है लेकिन तुम्ही बताओं क्या बिना युद्ध-कौशल और पराक्रम के (केवल अस्त्र-शस्त्रों की सहायता से) कोई युद्ध जीता जा सकता है ?

उसी प्रकार से बिना योगाभ्यास के, केवल ज्ञान मुक्ति नहीं दिला सकता | कोई महापुरुष ज्ञानी हो या त्यागी हो, धर्म के रास्ते पर चलने वाला हो अथवा इन्द्रियों को जीतने वाला जितेन्द्रिय हो किन्तु हे प्रिये बिना योग के कोई देवपुरुष भी मोक्ष का अधिकारी नहीं बन सकता |

उस अविनाशी आत्मा के साक्षात्कार करने में एक योग ही उपाय है दूसरा कोई नहीं | श्रेष्ठ पुरुष योगाभ्यास द्वारा ही उस आत्मा को जानकार इस हर्ष-शोक रुपी संसार का परित्याग करते हैं” |

हठयोग में प्राणायाम का अभ्यास करते-करते जब प्राणवायु सुषुम्ना में प्रवेश करती है तब मन स्थिरता को प्राप्त होता है | इसलिए प्राणायाम का अभ्यास तब तक करना चाहिए जब तक की सुषुम्ना में प्राण वायु का संचार ना होने लगे |

बिना सुषुम्ना नाड़ी में प्राणवायु के प्रवेश हुए मन का स्थिर होना लगभग असंभव है | और अगर सुषुम्ना में प्राणवायु के प्रवेश के बाद किसी कारणवश प्राणायाम का अभ्यास छूट भी गया तो भी साधक योगसाधना के मार्ग पर पीछे नहीं जाएगा, वह जब भी अभ्यास पुनः प्रारम्भ करेगा वहीँ से आगे बढ़ेगा | इस प्रकार से मन के स्थिर हो जाने को मनोन्मनी अवस्था कहते हैं |

सामान्यतया सुषुम्ना नाड़ी कफ़ आदि बंधनों से ढकी रहती है | प्राणायाम के निरंतर अभ्यास से वह मार्ग शुद्ध हो जाता है और प्राणवायु, सुषुम्ना नाड़ी के मुख को अच्छे से तोड़ देती है और फिर उसमे प्रवेश करती है |

हठयोग में ही कहीं-कहीं आष्टांग योग और कहीं-कहीं षडांग योग का ज़िक्र मिलता है | यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह आठ अंग अष्टांग योग के अंग है | इनमे से यम और नियम को छोड़कर शेष छह षडांग योग के अंग है | योग के इन आठ अंगो का साधन करने से, इन्ही के क्रम से मलिनता का नाश होता है और ज्ञान का प्रकाश होता है अर्थात शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है |

यम: किसी जीव को नहीं मारना, सच बोलना, कभी चोरी ना करना और ना ही किसी को चोरी के लिए कहना, बिंदु (वीर्य) की रक्षा सदैव करना और किसी प्रकार के धन, द्रव्यादी की इच्छा न करना यम के अंतर्गत आता है |

आज के युग में इन सभी का कठोरता से पालन करना एक कठिन कार्य है लेकिन लम्बे समय तक इनके अभ्यास से कुछ चमत्कारिक परिणाम दिखाई पड़ सकते हैं जैसे हिंसा न करने से कोई भी मनुष्य, हिंसक पशु, पक्षी, व्याघ्र और सर्प आदि का भय नहीं रह जाता | ऐसा कोई हिंसक प्राणी सामने आ भी जाये तो उस मनुष्य को देखते ही शांत हो जाता है |

सत्य बोलने के अभ्यास से वाकसिद्धि मिल जाती है अर्थात ऐसा मनुष्य जो कुछ भी कहता है वह वास्तव में घटित हो जाता है | कभी किसी प्रकार की चोरी ना करने से वह लोकप्रिय हो जाता है |

किसी प्रकार के धन-द्रव्यादी की इच्छा ना करने से आवश्यक वस्तुएं सदा अपने आप ही प्राप्त हो जाती हैं | धन-द्रव्यादी की इच्छा ना करने से विषयों में आसक्ति भी समाप्त होने लगती है ऐसी स्थिति में पूर्व जन्मों का ज्ञान भी होने लगता है |

कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करके वीर्य की रक्षा करने से वह सौन्दर्यवान तथा प्रचंड बलशाली होने लगता है और इसके साथ ही उसका शरीर ‘अजर’ होने लगता है |

नियम: शौच (पवित्रता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय, एवं ईश्वर की भक्ति ही नियम है | इनका महात्म्य इस प्रकार से है कि शौच के साधन से सत्वबुद्धि, मन की शुद्धता, एकाग्रता, तथा इन्द्रियों पर विजय मिलती है |

संतोष से उत्तम सुख मिलता है | वास्तव में आसक्तियों एवं वासनाओं से मुक्ति मिलने पर अपने आप शाश्वत सुख की प्राप्ति होने लगती है | तप से शरीर सिद्ध होता है और इन्द्रियों की सिद्धि (जैसे दूरश्रवण या दूरदृष्टी की सिद्धि मिलना) मिलती है अर्थात शरीर में जो रोगादि का भय होता है वह नष्ट हो जाता है |

स्वाध्याय से ईष्ट देवता के दर्शन होते हैं और जो मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर कर सकें, ऐसे ऋषि-मुनियों के दर्शन होते हैं | इन सब के साथ ईश्वर में भक्ति होने पर, समाधि का लाभ तथा उनके परमधाम की प्राप्ति होती है |

आसन: जिससे स्थिरता का सुख हो अर्थात जब तक इच्छा करे, एक ही आसन में बैठे रहने पर अगर किसी भी प्रकार का क्लेश ना हो तो उसे आसन कहते है | आसन सिद्ध होने पर साधक सर्दी,गर्मी, सुख, दुःख आदि के प्रभाव से रहित हो जाता है | मन को अपनी चेतना के वशीभूत कर लेता है और उसके सारे रोग नष्ट हो जाते है | कहा भी गया है-

“आसनं विजितम येन जितम तेन जगत्रयम” अर्थात जिसने आसन को जीत लिया समझो तीनो लोकों को जीत लिया |

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