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: सम्वत्सर की वैज्ञानिकता प्रमाण
ॐ卐ॐ
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक पश्चिमी देशों में उनके अपने धर्म-ग्रन्थों के अनुसार मानव सृष्टि को मात्र पांच हजार वर्ष पुराना बताया जाता था।

जबकि इस्लामी दर्शन में इस विषय पर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा गया है। पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिक भी अपने धर्म-ग्रन्थों की भांति ही यही राग अलापते रहे कि मानवीय सृष्टि का बहुत प्राचीन नहीं है। इसके विपरीत

हिन्दू जीवन-दर्शन के अनुसार इस सृष्टि का प्रारम्भ हुए १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, १२० वर्ष बीत चुके हैं और अब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से उसका १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार,१२१वां वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। भूगर्भ से सम्बन्धित नवीनतम आविष्कारों के बाद तो पश्चिमी विद्वान और वैज्ञानिक भी इस तथ्य की पुष्टि करने लगे हैं कि हमारी यह सृष्टि प्राय: २ अरब वर्ष पुरानी है।

अपने देश में हेमाद्रि संकल्प में की गयी सृष्टि की व्याख्या के आधार पर इस समय स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष नामक छह मन्वन्तर पूर्ण होकर अब वैवस्वत मन्वन्तर के २७ महायुगों के कालखण्ड के बाद अठ्ठाइसवें महायुग के सतयुग, त्रेता, द्वापर नामक तीन युग भी अपना कार्यकाल पूरा कर चौथे युग अर्थात कलियुग के ५१२१वें सम्वत्‌ का प्रारम्भ हो रहा है। इसी भांति विक्रम संवत्‌ २०७६ का भी श्रीगणेश हो रहा है।
विक्रम संवत् सम्राट विक्रमादित्य जी के वाद व्यातीत हुये वर्ष के परिप्रेक्ष्य में वने है।

हिन्दू जीवन-दर्शन की मान्यता है कि सृष्टिकर्ता भगवान्‌ व्रह्मा जी द्वारा प्रारम्भ की गयी मानवीय सृष्टि की कालगणना के अनुसार भारत में प्रचलित सम्वत्सर केवल हिन्दुओं, भारतवासियों का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार या समस्त मानवीय सृष्टि का सम्वत्सर है। इसलिए यह सकल व्रह्माण्ड के लिए नव वर्ष के आगमन का सूचक है।

व्रह्मा जी प्रणीत यह कालगणना निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित होने के कारण पूरी तरह वैज्ञानिक है। अत: नक्षत्रों को आधार बनाकर जहां एक ओर विज्ञानसम्मत चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कात्तिर्क, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन नामक १२ मासों का विधान एक वर्ष में किया गया है, वहीं दूसरी ओर सप्ताह के सात दिवसों यथा रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार तथा शनिवार का नामकरण भी व्रह्मा जी ने विज्ञान के आधार पर किया है।

आधुनिक समय में सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित ईसाइयत के ग्रेगेरियन कैलेण्डर को दृष्टिपथ में रखकर अज्ञानी जनों द्वारा प्राय: यह प्रश्न किया जाता है कि व्रह्मा जी ने आधा चैत्र मास व्यतीत हो जाने पर नव सम्वत्सर और सूर्योदय से नवीन दिवस का प्रारम्भ होने का विधान क्यों किया है? इसी भांति सप्ताह का प्रथम दिवस सोमवार न होकर रविवार ही क्यों निर्धारित किया गया है? जैसा ऊपर कहा जा चुका है, व्रह्मा जी ने इस मानवीय सृष्टि की रचना तथा कालगणना का पूरा उपक्रम निसर्ग अथवा प्रकृति से तादात्म्य रखकर किया है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि ‘चैत्रमासे जगत्‌ व्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि, शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदय सति।‘ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस को सूर्योदय से कालगणना का औचित्य इस तथ्य में निहित है कि सूर्य, चन्द्र, मंगल, पृथ्वी, नक्षत्रों आदि की रचना से पूर्व सम्पूर्ण त्रैलोक्य में घटाटोप अन्धकार छाया हुआ था। दिनकर की सृष्टि के साथ इस धरा पर न केवल प्रकाश प्रारम्भ हुआ अपितु भगवान्‌ आदित्य की जीवनदायिनी ऊर्जा शक्ति के प्रभाव से पृथ्वी तल पर जीव-जगत का जीवन भी सम्भव हो सका। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वर्ष का आरम्भ, अर्द्धरात्रि के स्थान पर सूर्योदय से दिवस परिवर्तन की व्यवस्था तथा रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस घोषित करने का वैज्ञानिक आधार तिमिराच्छन्न अन्धकार को विदीर्ण कर प्रकाश की अनुपम छटा बिखेरने के साथ सृजन को सम्भव बनाने की भगवान्‌ भुवन भास्कर की अनुपमेय शक्ति में निहित है। वैसे भी
इंग्लैण्ड के ग्रीनविच नामक स्थान से दिन परिवर्तन की व्यवस्था में अर्द्ध रात्रि के १२ बजे को आधार इसलिए बनाया गया है; क्योंकि जब इंग्लैण्ड में रात्रि के १२ बजते हैं, तब भारत में भगवान्‌ सूर्यदेव की अगवानी करने के लिए प्रात: ५.३० बजे होते हैं।

वारों के नामकरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया में व्रह्मा जी ने स्पष्ट किया कि आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमश: बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों को साथ लेकर व्रह्मा जी ने सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पृथ्वी अपने उपग्रह चन्द्रमा सहित स्वयं एक ग्रह है, किन्तु पृथ्वी पर उसके नाम से किसी दिवस का नामकरण नहीं किया जायेगा; किन्तु उसके उपग्रह चन्द्रमा को इस नामकरण में इसलिए स्थान दिया जायेगा; क्योंकि पृथ्वी के निकटस्थ होने के कारण चन्द्रमा आकाशमण्डल की रश्मियों को पृथ्वी तक पहुँचाने में संचार उपग्रह का कार्य सम्पादित करता है और उससे मानवीय जीवन बहुत गहरे रूप में प्रभावित होता है। लेकिन पृथ्वी पर यह गणना करते समय सूर्य के स्थान पर चन्द्र तथा चन्द्र के स्थान पर सूर्य अथवा रवि को रखा जायेगा।

हम सभी यह जानते हैं कि एक अहोरात्र या दिवस में २४ होरा या घण्टे होते हैं। व्रह्मा जी ने इन २४ होरा या घण्टों में से प्रत्येक होरा का स्वामी क्रमश: सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु और मंगल को घोषित करते हुए स्पष्ट किया कि सृष्टि की कालगणना के प्रथम दिवस पर अन्धकार को विदीर्ण कर भगवान्‌ भुवन भास्कर की प्रथम होरा से
क्रमश: शुक्र की दूसरी, बुध की तीसरी, चन्द्रमा की चौथी, शनि की नौवीं, गुरु की छठी तथा मंगल की सातवीं होरा होगी। इस क्रम से इक्कीसवीं होरा पुन: मंगल की हुई। तदुपरान्त सूर्य की बाईसवीं, शुक्र की तेईसवीं और बुध की चौबीसवीं होरा के साथ एक अहोरात्र या दिवस पूर्ण हो गया।

इसके बाद अगले दिन सूर्योदय के समय चन्द्रमा की होरा होने से दूसरे दिन का नामकरण सोमवार किया गया। अब इसी क्रम से चन्द्र की पहली, आठवीं और पंद्रहवीं, शनि की दूसरी, नववीं और सोलहवीं, गुरु की तीसरी, दशवीं और उन्नीसवीं, मंगल की चौथी, ग्यारहवीं और अठ्ठारहवीं, सूर्य की पाचवीं, बारहवीं और उन्नीसवीं, शुक्र की छठी, तेरहवीं और बीसवीं, बुध की सातवीं, चौदहवीं और इक्कीसवीं होरा होगी। बाईसवीं होरा पुन: चन्द्र, तेईसवीं शनि और चौबीसवीं होरा गुरु की होगी। अब तीसरे दिन सूर्योदय के समय पहली होरा मंगल की होने से सोमवार के बाद मंगलवार होना सुनिश्चित हुआ। इसी क्रम से सातों दिवसों की गणना करने पर वे क्रमश: बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा शनिवार घोषित किये गये; क्योंकि मंगल से गणना करने पर बारहवीं होरा गुरु पर समाप्त होकर बाईसवीं होरा मंगल, तेईसवीं होरा रवि और चौबीसवीं होरा शुक्र की हुई। अब चौथे दिवस की पहली होरा बुध की होने से मंगलवार के बाद का दिन बुधवार कहा गया। अब बुधवार की पहली होरा से इक्कीसवीं होरा शुक्र की होकर बाईसवीं, तेईसवीं और चौबीसवीं होरा क्रमश: बुध, चन्द्र और शनि की होगी। तदुपरान्त पांचवें दिवस की पहली, होरा गुरु की होने से पांचवां दिवस गुरुवार हुआ। पुन: छठा दिवस शुक्रवार होगा; क्योंकि गुरु की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के पश्चात्‌ तेईसवीं होरा मंगल और चौबीसवीं होरा सूर्य की होगी। अब छठे दिवस की पहली होरा शुक्र की होगी। सप्ताह का अन्तिम दिवस शनिवार घोषित किया गया; क्योंकि शुक्र की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के उपरान्त बुध की तेईसवीं और चन्द्रमा की चौबीसवीं होरा पूर्ण होकर सातवें दिवस सूर्योदय के समय प्रथम होरा शनि की होगी।

संक्षेप में व्रह्मा जी प्रणीत इस कालगणना में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों, दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित वैज्ञानिक रूप से किया गया है। दिवसों के नामकरण को प्राप्त विश्वव्यापी मान्यता इसी तथ्य का प्रतीक है।
जय पर्शुराम
जय सनातन धर्म
जय हिंदू संस्कार
[: बरसात में खानपास कैसा हो

बरसात के मौसम में बॉडी और खाने पीने की हर चीज में कुछ कैमिकल बदलाव आ जाते हैं। इस मौसम में कीड़ों की संख्या बढ़ जाती है। पानी उतना साफ नहीं रह जाता। इसलिए इस मौसम में तबीयत बिगड़ने के ज्यादा चांस होते हैं। अगर मौसम बदला है तो हमें खाना पीना और उसके तौर तरीकों में भी बदलाव लाना होगा। नहीं तो हम दो तरह से रोगों का शिकार हो सकते हैं, एक जिनके नतीजे तुरंत नजर आ जाते हैं और दूसरे जो देर से रंग दिखाते हैं।
हर मौसम की अपनी एक तासीर होती है। हवा में नमी, तापमान सब बदलता रहता है। आपने गौर किया होगा कि हर मौसम में अलग अलग सब्जियां और फल बाजार में आते हैं। इन्हें ही हम मौसमी सब्जियां और फल कहते हैं।

जला देने वाली गर्म और सूखी हवाओं के बाद आता है बरसात का मौसम। हर ओर इस समय नमी बनी रहती है, हवा भी नमी लिए होती है। बरसात रुकती है तो सूरज पूरे तेज के साथ खिलता है। इससे माहौल में उमस बढ़ जाती है। आपने शायद गौर नहीं किया होगा मगर बरसात के मौसम में पानी के स्वाद और उसकी महक बदल जाती है। इसकी वजह होती है धरती से निकलने वाली गर्म गैंसें। दरअसल भारी गर्मी के तपी हुई धरती के भीतर जब पानी जाता है तो एकदम से गैसें बाहर निकलती हैं। ये गैसें एसिड के नेचर की होती हैं।

बारिश में यूं होता है हाजमा कमजोर
गर्मियों के समय में शरीर में जमा हुआ वात दोष इस समय बाहर आता है। वात दोष और माहौल में जो एसिड होता है दोनों मिलकर हाजमे की ताकत पर हमला कर देते हैं। इस मौसम में हाजमा कमजोर हो जाता है और जो लोग पेट के कच्चे होते हैं उनका पेट चलने लगता है। बाकी लोगों में एसिडिटी की शिकायत बढ़ जाती है। इसकी वजह से डायरिया ओर पेचिश के मरीजों की गिनती बढ़ जाती है। पेट फूला फूला रहता है। अब अगर इन हालात में आप गैस बढ़ाने वाली चीजें खाएंगे तो आपकी हेल्थ का तो भगवान ही मालिक होगा। आयुर्वेद ने हर मौसम के हिसाब से खानपान को बांटा हुआ है। उसके नियम लंबी रिसर्च और अनुभव के आधार पर बने हैं। अगर आप बीमारियों से बचना चाहते हैं तो उनका पालन करें।

बरसात में करें इनसे परहेज – मसूर, मक्का, आलू, कटहल, मटर, उड़द, चने की दाल, मोठ जैसी भारी व गैस को बढ़ाने वाली चीजें नहीं खानी हैं। बासी और रूखा खाना भी न खाएं। अगर पत्तेदार सब्जियां बना रहे हैं तो उसके साथ दही का इस्तेमाल करें। रात के समय छाछ व दही का इस्तेमाल न करें। कलौंजी, जैम, मुरब्बा और अचार वगैरा से भी इन दिनों जरा दूरी बना कर रखें। नॉन वेज से जितना हो सके परहेज करें। साफ पानी पर सबसे ज्‍यादा जोर देना चाहिए। इस मौसम में सबसे पहले पानी में गड़बड़ पैदा होती है।
बरसात का मौसम जब जा रहा हो तो बहुत तेज मसाले वाली वस्तुएं, तली हुई चीजें, बेसन की पकौड़ियां, गर्म और खट्टी तासीर वाली चीजें न खाएं।

बरसात के मौसम में क्या खाएं
ये तो हम आपको पहले ही बता चुके हैं इस मौसम में हाजमे की ताकत कमजोर पड़ जाती है। इसलिए ऐसी चीजें खाएं जो आसानी से पच जाती हों। घीया, तोरी, टमाटर, भिंडी, प्याज और पुदीना शौक से खाएं। फलों में सेब, केला, आडू व अनार खा सकते हैं। मोटे अनाज में चावल, गेहूं, मूंग की दाल, खिचड़ी, दही, लस्सी, सरसों का सेवन करें। अगर चौलाई मिल जाए तो उसे खाने में जरूर शामिल करें। बरसात के मौसम में चौलाई खाना खासतौर पर फायदा पहुंचाता है। चौलाई अच्‍छी तरह से हजम हो जाती है और इससे गैस की दिक्‍कत भी घटती है। खाने में धनिया, अदरक, हींग, काली मिर्च डालें।

रहन सहन कैसा हो
इस मौसम में बॉडी पर उबटन लगाना, मालिश करना और सिकाई करना अच्‍छा रहता है। ढीले-ढाले कपड़े पहनने चाहिएं। कोशिश करें कि जहां आप सोएं वहां नमी न हो। नीम की पत्‍तियां, लोबान, हींग और गूगल को जलाकर धुंआ करेंगे तो मच्‍छर और मक्‍खियां कम परेशान करेंगे। हल्‍की फुल्‍की कसरत करें और सैर पर जाएं। बारिश के दिनों में दिन के वक्त सोना नहीं चाहिए और बहुत ज्यादा मेहनत वाला काम भी नहीं करना चाहिए।

हाजमा दुरुस्‍त कैसे करें
करें आपकी हाजमे की ताकत कमजोर है तो जाहिर तौर पर बरसात के दिनों में ये और कमजोर हो गई होगी और आपको गैस व बदहजमी की शिकायत हो रही होगी। इससे बचने का एक आसान सा उपाय है। खाने से पहले 5 से 10 ग्राम अदरक का टुकड़ा सेंधा नमक के साथ चबा चबाकर खाएं। इससे हाजमे की ताकत बढ़ेगी, भूख खुलकर लगेगी। मगर फिर भी इस बात का ध्‍यान रखें कि इस मौसम में बारबार खाना या जरूरत से ज्‍यादा ठीक नहीं है..
[विमारियां पर दो शब्द

 किसी भी चिकित्सा को करने के पूर्व विमारीयों के कारणों को जानना वेहद जरूरी होता है । चिकित्सा से श्रेष्ठ है कारण को जानना । आजकल नगरों शहरों में डॉक्टरों की लंबी कतारें हैं , अनगिनत हॉस्पिटल हैं , सोसल मीडिया पर भी सैकड़ो लेख हैं  लेकिन क्या उनसे रोगी स्वस्थय हो रहे हैं ..?

विमारियों के प्रकार : – विमारियां दो प्रकार की होती है । जबकि आयुर्वेद दृष्टिकोण से रोगियों को तीन श्रेणी में रखा गया है । जैसे –

(१) साध्य रोग :- जो रोग होते ही हमें पता चलती है और परहेज़ ओर सावधानी से जल्दी ठीक भी हो जाती हे
(२) कष्ट साध्य रोग :- वह होती है जो सह सह के ठीक करनी पड़ती बहुत यत्न करना पड़ता है ।
(३) असाध्य रोग :- जो कुछ भी कर लो ठीक ही नहीं होती अंत में प्राण चले जाते है ।

१. इलाज योग्य – जिन विमारियों पर अब तक शोध हो चुका है उन विमारीयों का इलाज संभव है । जिन वीमारीयों की उत्पत्ति जीवाणु , वैक्टीरिया , पैथोजन , वायरस , फंगस द्वारा होती है जैसे – टी बी , टायफाइड , टिटनेस , मलेरिया , न्यूमोनिया आदि । इन विमारीयों के कारणों का पता लगने के कारण इनकी दवाएं विकसित की जा चुकी हैं इसलिए इनका इलाज स्थायी रूप से संभव है ।

२. असाध्य विमारियां – इन विमारियों की उत्पत्ति किसी जीवाणु , बैक्टीरिया , पैथोजन , फंगस , वॉयरस आदि से नहीं होती इसलिए इनके कारणों का पता नहीं लग पाया है । जब इनके कारणों का ज्ञात नहीं हुआ तो इनकी दवायें भी विकसित नहीं हो पायी हैं । जैसे – अम्लपित्त ( Stomach Acidity ) , दमा ( Asthama ), गठिया , जोड़ों का दर्द (Arthritis ) , कर्क रोग ( Cancer ) , कब्ज , मधुमेह , बबासीर , भगन्दर , रक्तार्श ( Piles , Fistula ), आधाशीशी ( Migrain ), सिर -दर्द , प्रोस्टेट आदि ।

   इसे अनेक विमारियां है जिस दिन शुरू हो गयी मरने तक दवा खाते रहो तब भी ठीक नहीं होगी , कारण कोई जीवाणु व वायरस नहीं मिला जिससे दवा बन सके । इसीलिए यह आसध्य विमारियां (Chronic , Long term , Incurable Diseases ) की संज्ञा दी गयी ।

१. पेट की अम्लता – पाचन तंत्र की अम्लता पाचन तंत्र में किसी खास विकार के कारण के कारण उत्पन्न होता है । आधुनिक विज्ञान में इसको दूर करने के लिए क्षारीय गोलियां दी जाती है । यह गोलियां जाकर पेट में अम्ल को खत्म करता है, और हम सोचते हैं हम ठीक हो गए । इसे एक वैज्ञानिक Le Chatilier’s के एक सिद्धांत से समझा जा सकता है । In a system at equilibrium , if a constraint is brought, the equilibrium shift to a direction so as to annal the effect.
यानि जैसे -जैसे आप किसी दवाई द्वारा पेट की एसिडिटी मिटायेंगे वैसे – वैसे पेट एसिड बनाता जायेगा और वीमारी को दीर्घकालिक असाध्य रूप में बदलकर अल्सर का रूप ले लेगी ।

२. दमा / उच्च रक्तचाप : – ब्लडप्रेशर हो जाने पर इसमें जो भी दवायें दी जाती है उससे रक्तवाहनियां लचीली हो जाये या उनका व्यास बढ़ जाये । जैसे व्यास बढेगा वहाँ दूसरा सिद्धांत लागू हो जायेगा इससे रक्त का दबाव तो कम हो जायेगा क्योंकि फ्लो बढ़ गया , लेकिन इस दवा से रक्तवाहनियां जो की लचीली प्रवर्ति होती हैं वह फिर उसी अवस्था में आ जाती है लिहाजा फिर गोली लो , फिर धमनियां फैलाओ इस प्रकार यह क्रम दीर्घकालिक रोग रूप ले लेता है ।

हृदय रक्त वाहनियों के अवरोध ( Coronary Artery Blockin ) : – ऐसा होने पर डॉक्टर बलून एंजियोप्लास्टी करते हैं जिसमें जिस जगह ब्लॉक रहता है उस जगह स्टेंट डालकर रक्त के परिसंचरण के लिए खोला जाता है , अब रक्त उस स्टेंट यानि स्प्रिंग के भीतर से जाना शुरू करता है । यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि उस ब्लॉक को दूर करने के लिए कोई भी उपचार नही किया जाता है । लिहाजा 22% लोगों के रक्त नलिकाओं में फिर से ब्लॉक आ जाता है । जो कि Wound Healing व Foreign Body के कारण होता है । जब स्प्रिंग के आगे -पीछे पुनः ब्लॉक बन गए तो डॉक्टर के पास बायपास के अलावा कोई उपचार नहीं बचता है , लेकिन समस्या का स्थाई समाधान नहीं मिलता है ।

४. बबासीर / मूल व्याधि ( Piles ) :- यहां पर भी गुदा द्वार के बाहर आये हुए मस्सों को शल्य क्रिया द्वारा काट दिया जाता है जबकि गुदाद्वार के अंदर स्थति रक्तवाहनी के नर्व का कोई भी इलाज नहीं किया जाता जिससे यह समस्या पुनः आ जाती है ।

५. गठिया / जोड़ों का दर्द ( Arthritis ) :- आधुनिक विज्ञान के पास इस वीमारी के लिये या तो पेन किलर है या फिर पें किलर काम करना बंद कर दे तो डॉक्टर स्टेराइड देना शुरू कर देते हैं । स्टेराइड खुद 20 से 25 बीमारियों को जन्म देता है । ज्यादा घुटनो के दर्द में घुटना बदलकर कृतिम घुटना लगा दिया जाता है ।
इस प्रकार आप देखेंगे कि आसध्य विमारियों के इलाज में उत्पन्न कारणों को नजर-अंदाज करके वीमारी को आसध्य बना दिया जाता है ।

ऐसी स्थति क्यों ..?

जब जो शरीर भगवान ने मनुष्य को सतयुग में दिया था वही शरीर कलियुग में भी है वही श्वसन, वही रक्तपरिसंचरण, वही हँसना -रोना, मल-मूत्र विसर्जन उस समय भी था और आज के समय में भी है कहीं कोई अंतर नहीं है।

हम जब भी कोई भी मशीन लेते हैं बिना उसका मैनुअल पढ़े उसको ऑपरेट नहीं करते फिर यह कैसी विडम्बना है कि मानव जैसी जटिल मशीन को जो अपने जैसे मशीन को जन्म देने की क्षमता रखती हो उसको बिना किसी ऑपरेटिंग मैनुअल ( गीता, आयुर्वेद ) पढ़े चलाते हैं ।

ध्यान रहे किसी कुत्ते को, गाय को, बंदर को या अपने शिशु को कोई हानिकारक चीज खिलाइये वह तुरंत थूक देता है, या जबरदस्ती से खिलाया तो उल्टी कर देगा या फिर चमड़ी रोग, फोड़ा – फुंसी, मल -मूत्र , पसीने के रास्ते बाहर आ जायेगा। लेकिन जैसे – जैसे हम बड़े हो रहे हैं अपनी जीभ के सुख के लिये नित्य-प्रति हानिकारक पदार्थ को ग्रहण करते हुये प्रकृति के नियमो की उपेक्षा करते हुए दीर्घकालिक असाध्य विमारीयों के चक्रव्यूह में स्वतः फंसते जा रहे हैं ।।
: जोड़ो / घुटनों का दर्द / गठिया

. मेथी, सोंठ और हल्दी सामान मात्र में मिलकर, पीसकर नित्य सुबह शाम खाना खाने के बाद गरम पानी से दो – दो चम्मच फ़की लेने से लाभ होता हे.

. रोज सुबह भूखे पेट एक चम्मच कुटी हुई दाना मेथी में, १ ग्राम कलोंजी मिलकर एक बार फाकी ले.

. दाना मेथी हमेशा सुबह खली पेट, दोपहर और रत को खाना खाने के बाद आधा चम्मच पानी के साथ फाकने से सभी जोड़ मजबूत रहेंगे और जोड़ो का दर्द कभी नहीं होगा.

. हल्दी, गुड, पीसी दान मेथी और पानी सामान मात्र में मिलकर, गरम करके इनका लेप रत को घुटनों पर करे. इस पर पट्टी बांध कर रत भर बंधे रहने दे. सुबह पट्टी हटा कर साफ कर ले. कुछ ही में असर महसूस हो जयेग.

. अलसी के बीजो के साथ 2 अखरोट लेने से जोड़ो के दर्द से आराम मिलता हे.

मेथी के लड्डू खाने से हाथ पेरो के और जोड़ो के दर्दो में आराम मिलता हे.

30 के उम्र के बाद दाना मेथी की फाकी लेने से शरीर के जोड़ मजबूत बने रहते हे. बुढ़ापे तक मधुमेह, ब्लड प्रेशर और गठिया जेसे रोगों से बचाव होता हे.

मेथी दाने को तवे या कढ़ाही में गुलाबी होने तक सेके. ठंडा होने पर पीस ले. रोज सुबह आधा चम्मच , एक गिलास पानी के साथ ले.

. मेथी को दर्दारी कूट कर इसकी सर्दियों में २ चम्मच और गर्मी में एक चम्मच फाकी सुबह पानी के साथ ले.

. अंकुरित मेथी खाए और उसके खाने के बाद आधे घंटे तक कुछ न खये.

नीम का तेल एवं अरंडी का तेल बराबर मात्रा मे ले कर मिला लीजिए. इसकी मालिश कीजिए सुबेह शाम.

अगर केल्शियम की कमी से जोड़ों का दर्द हो तो चूना खाइए. पान वाले से चूना ले आइए. गेंहू के दाने के आकार का चूना दही या दूध मे घोल कर दिन मे एक बार 90 दिन लीजिए.( 90 दिन से अधिक नही लेना है)

अगर घुटनों की चिकनाई ख़तम हुई हो तो हारसिंगार ( पारिजात) पेड़ के 12 पत्ते लीजिए और कूट कर 1 गिलास पानी मे उबाल लीजिए. जब पानी एक चौथाई बच जाए तो बिना छाने ठंडा कर के पी लीजिए. 90 दिन मे चिकनाई पूरी बन जाएगी. कुछ कमी रह जाए तो 1 महीने का अंतर करके फिर से 90 दिन लीजिए. अगर किसी के जोड़ो के दर्द मे किसी दवा से आअराम ना मिलता हो तो वो भी इसे ले.
[ Health care
उबलतें दूध में जब डाली जाती हैं तुलसी की पतियाँ तो होता है चमत्कार – Tulsi with Milk
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घरेलू नुस्खे बिना किसी साइड इफेक्ट के कई बीमारियों को दूर करते हैं। पीढि़यों से चले आ रहे ये नुस्खे हमेशा से फायदेमंद साबित हुए है और शायद आगे भी होते रहेंगे। ऐसे ही कुछ टिप्स तुलसी को लेकर भी है। तुलसी एक ऐसा हर्ब है जो कई समस्याओं को आसानी से दूर कर सकती है। सर्दी जुकाम हो या सिरदर्द तुलसी का काढ़ा बनाकर पीने से लाभ मिलता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि तुलसी को अगर दूध के साथ मिला लिया जाये तो ये कई बीमारियों के लिए रामबाण साबित होती है।
आज हम आपको बता रहे हैं कैसे तुलसी की तीन से चार पत्तियां उबलते हुए दूध में डालकर खाली पेट पीने से आप सेहतमंद रह सकते हैं।
किडनी की पथरी में
यदि किडनी में पथरी की समस्या हो गई हो और पहले दौर में आपको इसका पता चलता है तो तुलसी वाला दूध का सेवन सुबह खाली पेट करना शुरू कर दें। इस उपाय से कुछ ही दिनों में किडनी की पथरी गलकर निकल जाएगी। आपको इस समस्या से छुटकारा मिल जाएगा।
दिल की बीमारी में
यदि घर में किसी को दिल से सबंधित कोई बीमारी है या हार्ट अटैक पड़ा हो तो आप तुलसी वाला दूध रोगी को सुबह के समय खाली पेट पिलाएं। इससे दिल से संबंधित कई रोग ठीक होते हैं।
सांस की तकलीफ में
सांस की सबसे खतरनाक समस्या है दमा। इस रोग में इंसान को सांस लेने में बड़ी परेशानी आती है। खासतौर पर तब जब मौसम में बदलाव आता है। इस
समस्या से बचने के लिए जरूरी है कि आप दूध और तुलसी का सेवन करें। नियमित इस उपाय को करने से सांस से संबंधित अन्य रोग भी ठीक हो जाएगें।
कैंसर की समस्या
एंटीबायोटिक गुणों की वजह से तुलसी कैंसर से लड़ने में सक्षम होती है। दूध में भी कई तरह के गुण होते हैं जब दोनों आपस में मिलते हैं तो इसका प्रभाव बेहद प्रभावशाली और रोग नाशक हो जाता है। यदि आप नियमित तुलसी वाला दूध पीते हैं तो कैंसर जैसी बीमारी शरीर को छू भी नहीं सकती है।
फ्लू
वायरल फ्लू होने से शरीर कमजोर हो जाता है। यदि आप दूध में तुलसी मिलाकर सुबह खाली पेट इसका सेवन करते हो ता आपको फ्लू से जल्दी से आराम मिल जाएगा।
टेंशन में
अधिक काम करने से या ज्यादा जिम्मेदारियों से अक्सर हम लोग टेंशन में आ जाते हैं एैसे में हमारा नर्वस सिस्टम काम नहीं कर पाता है और हम सही गलत का नहीं सोचते हैं। यदि इस तरह की समस्या से आप परेशान हैं तो दूध व तुलसी वाला नुस्खा जरूर अपनाएं। आपको फर्क दिखने लगेगा।
सिर का दर्द और माइग्रेन में
सिर में दर्द होना आम बात है। लेकिन जब यह माइग्रेन का रूप ले लेती है तब सिर का दर्द भयंकर हो जाता है। ऐसे में सुबह के समय तुलसी के पत्तों को दूध में डालकर पीना चाहिए। यह माइग्रेन और सिर के सामान्य दर्द को भी ठीक कर देती है। अक्सर हमारे घर में बहुत सी प्राकृतिक औषधियां होती है जिनके बारे में पता रहने से हम मंहगी दवाओं से होने वाले साइड इफेक्ट से बच सकते हैं।

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🔥 सिन्धु घाटी की लिपि :

क्यों अंग्रेज़ और कम्युनिस्ट इतिहासकार नहीं चाहते थे ,,, कि इसे पढ़ा जाए!

महान इतिहासकार
अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था –
विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है,,, तो वह भारत का इतिहास ही है.

भारतीय इतिहास का प्रारंभ
सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है,

इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है.

बताया जाता है कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी.

मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे.

पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था,

किन्तु
अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, पूरा पाकिस्तान व अफगानिस्तान तथा ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है.

अब इसका समय 7000 BC से भी प्राचीन पाया गया है.

इस प्राचीन सभ्यता
की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है
उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है.

इतिहासकारों का दावा है कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है और पढ़ी नहीं जा सकी. ⁉

जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे – इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं.

आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है.

सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया
और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए.

भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर कम्युनिस्टों का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी.

आखिर ऐसा क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में?🤔

अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?⁉⁉
🤔🤔🤔

अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में
निम्नलिखित खतरे थे –

1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी.
इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है.
भारत का महत्व बढेगा ,,, जो अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा.

  1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह वैदिक सभ्यता साबित हो गयी ..
    तो अंग्रेजो और कम्युनिस्टों द्वारा फैलाये गए आर्य- द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है.

3. अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी, वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा.

कुछ फर्जी इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे ..

तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से,
कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और,
कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे.

ये सारे प्रयास असफल साबित हुए.

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है –
सभी लिपियों में अक्षर कम होते है,
जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि,
मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं.

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है कि
इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है.

लेखक ने लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्षों का अवलोकन किया.

भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है.

इस लिपि से ही भारत की अन्य भाषाओँ की लिपियां बनी.

यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी.

संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है.

सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया.

सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए और सम्पूर्ण भारत में लगाये गए.

सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है.

साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है.

इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयास सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया.

सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है कि
इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं.
अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है.

विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा.

जिस प्रकार सिन्धु घाटी की लिपि पशु के मुख की ओर से अथवा दाएं सेबाएं लिखी जाती है,
उसी प्रकार ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है.

सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं.

इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है.

और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है. अब हम इन 39 अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45 अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि का पता लगा सकते हैं.

ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर सभी संस्कृत के शब्द आते है जैसे –
श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूषिका, पग, पंच मशक, पितृ, अग्नि, सिन्धु, पुरम, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र आदि.

निष्कर्ष यह है कि –

1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है.

2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है.

3. उस काल में संस्कृत भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था.

4. सिन्धु घाटी के लोग वैदिक धर्म और संस्कृति मानते थे.

5. वैदिक धर्म अत्यंत प्राचीन है, 7000 BC से भी अधिक पुराना.

हिन्दू सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, हिन्दुओं का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश ( सिन्धु सरस्वती क्षेत्र ) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था.

वैदिक धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे आक्रमणकारी थे.

आर्य-द्रविड़ जैसी कोई भी दो पृथक जातियाँ नहीं थीं जिनमे परस्पर युद्ध हुआ हो।

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वेद, वैदिक और भारतीय ज्योतिष साहित्य में पृथ्वी

प्रस्तुत लेख में ब्रह्माण्ड में अनेक पृथिवियों, पृथ्वी के गोल होने, पृथ्वी की गति, ऊपरी आवरण और गर्भ, आकर्षण-शक्ति, मूल तथा पृथ्वी पर समुद्र और हिन्दुओं के विभिन्न ग्रन्थों (शास्त्रों) में वर्णित वनस्पति के विषय में लेखन का प्रयास किया गया है।

अथर्ववेद (८/९/१) में ‘कतमस्या पृथिव्या:’ में हमें इस विराट नभोमण्डल में उक्त छन्दांश से ज्ञात होता है कि ब्रह्माण्ड में अनेक पृथ्वीलोक हैं। साथ ही यह भी कहा गया है कि ‘कालोऽमूंदिवमजनयत्काल इमा: पृथिवीरुत’ और काल ने इस ब्रह्माण्ड के सूर्य और टिमटिमाते तारों के विधान ने इन्हें जन्म दिया है। यहां यह स्पष्ट है कि इस ब्रह्माण्ड में अनेक पृथ्वीलोक हैं।

अथर्ववेद (२०/८१/१ तथा १३/२०) में तथा ऋग्वेद (८/७०/५) में यही तथ्य दुहराया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस पृथ्वी पर हम निवास कर रहे हैं वही नहीं इस नभमण्डल में ऐसी अनेक पृथिवियां हैं।

पृथ्वी गोल है-

दूसरी जानकारी जो हमें मिलती है वह है कि पृथ्वी गोलाकार है। हमें जो सूर्य, ग्रह, नक्षत्र इस नभमण्डल में दिखाई दे रहे हैं वे सभी गोल आकृति के हैं- अतः यह पृथ्वी जिस पर हम रह रहे हैं, भी गोलाकर ही होनी चाहिए। आर्य मनीषियों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही जान लिया था अतः ज्योतिष विज्ञान के ग्रन्थ पंच सिद्धान्तिका में इस रहस्य का लेखन बहुत पहले ही कर लिया था। पंच सिद्धान्तिका में कहा गया है कि-

पञ्च महाभूत मयस्तारागण: पञ्जरे महीगोल:।
खऽयस्कान्त: स्थोलोह इवास्थितो वृत।।

-त्रैलोक्य सिद्धान्त १३/१

पृथ्वी का यह गोलक, शून्य, वायु, जल और पृथ्वी इन पांचों तत्वों से निर्मित है। इन तत्वों से निर्मित यह गोलक लोह सन्दूक के समान चारों ओर से चुम्बक के समान बना है। अतः भारतीय मनीषियों ने यह ज्ञान अर्जित कर लिया था कि सभी ग्रह गोलकों के आधार पर यह ब्रह्माण्ड भी गोलाकार है। यह ब्रह्माण्ड दो अर्ध गोलकों में विभाजित है। कोलम्बस की यात्रा के उपरान्त ही यूरोपीय विद्वान् इस तथ्य से परिचित हो सके थे।

ऋग्वेद (१/९२/१) में कहा गया है कि यह पृथ्वी गोल है-
‘एता उ त्या उषस: केतुमक्रत पूर्वे … भानुमंजते’ अर्थात् जो उषायें (या उषा रश्मियां) अरुण वर्ण (लाल रंग) के प्रकाश का क्षेपण करती हैं, तब ये पृथ्वी के पूर्वी आधे भाग और ग्रहों का निर्माण करती हैं। प्रकाश शब्द से यहां दिन के प्रकाश से अर्थ है। ऐसा तभी सम्भव होता है जब पृथ्वी गोल हो। वेद में यहां स्पष्ट रूप से पृथ्वी की आकृति गोल कही है। आर्य भट्ट नाम के ज्योतिषी ने भी उपर्युक्त कथन की शिक्षा दी है।
उसने अपने ग्रन्थ में कहा है-

भूग्रहमाना गोलार्धानि स्वछाययानि वर्णानि।
अर्धानि यथा सारं सूर्याभिमुखानि दीव्यते।। -आर्यभट्ट ४/५

यह पृथ्वी गोल है अतः प्रत्येक मनुष्य स्वयं यह सोचता है कि वह स्वयं ऊपर की ओर है और पृथ्वी के दूसरी ओर का भाग मानो उसके अधीन है। वास्तविकता यह है कि पृथ्वी गोल होने से उसमें न तो कोई ऊपर है और न नीचे ही। पृथ्वी का व्यापन (व्यास) सूर्य सिद्धान्त के अनुसार १६०० योजन है जो एक योजन चार कोशों के हिसाब से ६४०० कोश होता है। एक कोश सवा मील का होने से पृथ्वी का कुल व्यास ८००० मील होता है।
पृथ्वी का व्यास ८००० मील होने से और इसकी परिधि २५०० मील होने से विद्यमानता दृढ़ होनी चाहिए कि क्या है वह जो हम सोचते हैं? पृथ्वी अपनी धुरी पर (कीली पर) चक्कर लगाती है यह सही है पर इसके लिए कुछ अवरोध है या आधार है जो इसको दूर नहीं जाने देता। इस विषय में वेद के मन्त्र में हमें इसके आधार के विषय में जानकारी देते हैं। यथा-

आधारयत्पृथिवीं विश्वधायसमस्तभ्नान्मायया द्यामवस्त्रस:।। -ऋग्वेद २/१७/५

अर्थात् सूर्य पृथ्वी को नियन्त्रित रखता है। इन्द्र (सूर्य) ने पृथ्वी को पकड़ रखा है जो समस्त संसार (निर्माण) को संलग्न ब्रह्माण्ड के साथ विराम देता है। अथर्ववेद भी यही कहता है कि समस्त विश्व (पृथ्वी सहित) सूर्य (अनड्वान) पर आश्रित है। सूर्य समस्त सृष्टि और आकाशीय दिशा में सूर्य के द्वारा संयोजित (संचालित) है।

दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखै:। -ऋग्वेद ७/९९/३, यजुर्वेद ५/१६
ऋग्वेद आगे और कहता है कि-
‘सविता यन्त्रै: पृथिवीमरम्णादस्कम्भने। -ऋग्वेद १०/१४९/१

अर्थात् सूर्य ने इस पृथ्वी को अपनी रश्मियों से नभ में बिना किसी की सहायता के पकड़ रखा है। इसकी परिधि ने इस पृथ्वी को गोल (या नभ) में लटका रखा है।

पृथ्वी का परिभ्रमण-

सभी ग्रहों का घूर्णन नहीं होते हुए भी वे चक्कर लगाते हैं। ये सभी आकाशीय पिण्डों के तीन केन्द्र हैं। अतः प्रत्येक गोलक के तीन तरह का घूर्णन होता है।
(प्रधयश्च क्रमेकं त्रीणि नभ्यानि) वे केन्द्र हैं।
१. पदार्थ (धातु) केन्द्रों पर पश्चिम से पूर्व की ओर
२. सूर्य के चारों ओर
३. इसके ध्रुव के साथ केन्द्र के रूप में भ्रमण करता है।
अक्ष गति या अक्ष चलन में तीन प्रकार के घूर्णन को हम सुगमता से नभ में ग्रह नक्षत्रों को देख सकते हैं पर हम यह नहीं देख सकते कि हमारे निवास स्थान युक्त यह पृथ्वी घूम रही है फिर भी यह पृथ्वी भी घूर्णाती (चक्कर लगाती) है।
यह पृथ्वी अपनी धुरी पर प्रतिदिन घूमती रहती है।
येषाम न्येषु पृथ्वी जुजर्वां इव विश्पति भिया यामेषु रेजते।
यह पृथ्वी गैसों, और तूफानों में आठों प्रहर किसी बूढ़े आदमी की तरह अपने पुत्रों और पौत्रों के साथ समान रूप से कमर झुकाये औए कांपते पांवों से अपने चारों ओर अपने ही मार्ग पर घूमती है। इन मन्त्र में यह स्पष्ट होता है कि पृथ्वी भ्रमण करती है। वेद में इसके लिए ‘रेजते’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसके साथ तीन और भी महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं-
पृथ्वी गैसों (तूफानों) के द्वारा भ्रमण करती है। जिस तरह कोई वस्तु पानी में तैरती है और उसी समय पानी का बहाव और उस बहती हुई वस्तु का बहाव एकसा होता है। यही कारण है कि दिनभर घूम-फिर कर रात को पक्षी अपने घोसलों में बिना किसी परेशानी के आ जाते हैं।

ये गैसें मारुत कही गई हैं। ये सात परतों में होती हैं जिनमें प्रत्येक में सात मारुत (गैसें) होती हैं। सब मिलाकर उनचास मारुत होते हैं। एक मारुत सात कोशों तक के वातावरण में फैला होता है। इस प्रकार पृथ्वी के चारों ओर सात गण उनचास (४९) योजन में होते हैं। इस प्रकार इस पृथ्वी की आकर्षण शक्ति २३९ मील तक उसके वातावरण में प्रभावित होती है। इस प्रकार प्रत्येक मारुत के आकर्षण का अपना प्रभाव एक योजन (५ मील) तक होता है। यही कारण है कि कोई भी पर्वत पांच मील से ऊंचा नहीं हो सकता है।
दूसरी बात जो कही गई है वह है पृथ्वी किसी बूढ़े आदमी के समान अपने पुत्र और पौत्रों के साथ कांपते हुए चलती है। अर्थात् वह सीधे मार्ग पर भ्रमण नहीं करती। यदि वह सीधे मार्ग पर भ्रमण करती होती तो बिना किसी लड़खड़ाहट के पृथ्वी पर रात और दिन का समय बराबर होता।
तीसरी बात यह है कि यह पृथ्वी याम या प्रहरों में भ्रमण करती है। दिन और रात में आठ याम या प्रहर होते हैं। अतः पृथ्वी अपनी कीली पर २३ घण्टे ५६ मिनट और ४ सेकण्ड में भ्रमण करती है। इसके प्रतिदिन के भ्रमण बराबर होते हैं।
अहोरात्रे पृथिवी नो दुहाताम्। -अथर्ववेद १२/२/३६
वायु की गैसों का प्रवाह पृथ्वी को भ्रमण कराता है। यह स्पष्टतः वात सूत्र और सूर्य सिद्धान्त के परिधि मण्डन को वर्णित करता है। वहां वायु का प्रवाह और रश्मियों का विवरण भ्रमण के कारण और सभी ग्रहों के भ्रमण में वर्णित किया गया है।
पृथ्वी अपनी धुरी पर भ्रमण करती है। आर्यभट्ट कहते हैं कि जिस प्रकार नाव में सवारी करते व्यक्ति वृक्षों और अन्य वस्तुओं को, जो नदी के किनारे पर स्थित होते हैं को दूसरी ओर विपरीत दिशा में चलते हुए देखते हैं उसी प्रकार भ्रमण करती हुई पृथ्वी पर रहते हुए व्यक्ति स्थित नक्षत्रों को ऐसे देखते हैं जैसे वे पश्चिम की ओर दौड़ रहे हैं।
जैसाकि कहा गया है कि सूर्यदेव पृथ्वी की पूर्व दिशा का कारण है, यह भी दिखाता है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर पूर्व की ओर भ्रमण करती है।

पृथ्वी का सूर्य के साथ अपने केन्द्र के समान भ्रमण करना-
अथर्ववेद ३/८/१ के अनुसार सूर्य पृथ्वी को विस्तर के समान समेट कर भ्रमण कर रहा है और अपनी रश्मियों से उन्हें आने वाली विभिन्न ऋतुओं को प्रदान करता है। यहां यह स्पष्ट है कि सूर्य अपनी रश्मियों के साथ पृथ्वी को भ्रमण कराता है और इसे ऋतुओं के साथ कर देता है यह पृथ्वी का वार्षिक परिभ्रमण ऋतुओं के परिभ्रमण के कारण है।

अथर्ववेद में कहा गया है कि ग्रीष्मऋतु आदि पृथ्वी की ऋतु से वार्षिक भ्रमण के कारण होती हैं।
पृथ्वी के तीसरे प्रकार का भ्रमण उसके ध्रुव के धुरी के केन्द्र के साथ होता है। यह २५९२० वर्ष पूर्ण भ्रमण कर लेता है। विष्णु चन्द्र कहते हैं कि वह २१००० वर्षों से अधिक समय लेता है।

पृथ्वी का आवरण और पृथ्वी-
वेद के अनुसार उसके विभाग, वस्तुएं, परतें आदि महाद्वीप, परते आदि होते हैं। अथर्ववेद (१२/१/११) में कहा है-
पृथ्वी वभ्रू (भूरे) रंग की, गहन (काले) रंग की, आरक्त (लाल) रंग की है और ये सभी रंग चमकीले श्वेत रंग के होते हैं ये सभी चार रंगों के अतिरिक्त, अधिक भी पृथ्वी के प्रायः सभी भागों में पाए जाते हैं। वेद में इसी कारण कहा गया है कि पृथ्वी अनेक आकृतियों वाली है। अथर्ववेद १२/१/२ के अनुसार यह ‘भूरिवर्णस्’ अर्थात् यह पृथ्वी अनेक रंगों वाली है।
अथर्ववेद १२/१/२ के अनुसार यह पृथ्वी सपाट न होकर ऊंची, ऊंडी (गहरी) या अधिक सपाट है। यह बताता है कि पृथ्वी का आवरण सपाट (समतल) नहीं है पर इसके ऊंचे और नीचे भाग भी होते हैं अधिकांशत: यह समतल है। इसका उच्चतम भाग पहाड़ की चोटियों और निम्नतम भाग समुद्र तल भाग है। उनके बीच में यह समतल होती है।
इसकी समतलीय भूमि तीन तरह की होती है। वे हैं-

गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु। -अथर्व० १२/१/११

पठार, पहाड़ियों और बर्फ से आवृत्त पर्वत। निम्नस्थ पृथिवियों, झीलें, ताल और समुद्र हैं।

भूप्रदेश विभाग-

तीन परतों वाली भूमि स्वाभाविक रूप से छः प्रकार की जानी जाती है।
ऋग्वेद ७/८७/५ में कहा है- तिस्रो … भमीरूपरा षड्विधाना।

वेद में पृथ्वी के छह महाद्वीपों की ओर संकेत किया गया है। ये छहों महाद्वीप सात महाद्वीपों की ओर संकेत करते हैं। ये ही छह महाद्वीप महाभाष्य व्याकरण १/११/११ में सात सात महाप्रदेश (द्वीपों) हैं। ये हैं १. जम्बू २. प्लक्ष ३. शाल्मल ४. कुश ५. क्रौंच ६. शोक और सातवां पुष्कर।

अथर्ववेद १२/१/४४ में कहा गया है कि भूमि की अपनी गुहों (गर्भों) में अनेक प्रकार के कोष निहित हैं ये मुझको स्वर्णादि बहुमूल्य धन दे।

तीसरे प्रकार की चट्टानों से सम्बन्धित गंधक, और अन्य पांच वस्तुएं निहित रहती हैं। अद्भुत ब्रह्माण्ड में कहा गया है कि-
पृथ्वी तटति, स्फुटती, कूजती, कम्पति।
ज्वलति, रुदति धूमायति।।

अर्थात् इस पृथ्वी में सात विकार होते हैं वे चट्टानी भागों में उत्पन्न होते हैं। ये सात विकार हैं-

तटति- अर्थात् पृथ्वी की परतें सात परतों या श्रेणियों में बदल कर ऊपर की ओर उठती हैं।

स्फुटति- पृथ्वी की परतों में स्फोटन होता है।

कूजति- यह पृथ्वी हर समय कुछ गर्जना करती रहती है।
कम्पति- यह पृथ्वी कांपती (कम्पन करती) रहती है।

रुदति- यह तरल पदार्थों (पेट्रोल, गैस आदि) को अपने से बाहर क्षेपण करती हुई रुदन करती है।

धूमायति- यह पृथ्वी गहरे काले धुएं और अन्य गैसों को अपने से दूर फेंकती है।

उपर्युक्त कारणों से पृथ्वी की तीन परतों में अनेक प्रकार के परिवर्तन हो जाते हैं। इन तीन परतों का ज्ञान सहज ही में हो जाता है। पर ये तीन परतें पृथ्वी में नहीं हैं। भू तांत्रिक (भूगर्भ विद्या विशारद) इन परतों को नहीं समझ सके हैं। पृथ्वी के अन्दर के भागों से उष्ण (गर्म) भाप से आग्न्यांतक लहर इन सात परतों में होकर निकलती है। अग्नि का प्रवाह (धारा) पृथ्वी की भीतर के निम्न भाग में इन सात धाराओं में गुजरती हुई बाहर निकलती है। यही बात ऋग्वेद के निम्न मन्त्र में कही गई है-

अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे।
पृथिव्या: सप्त धामभि:।। -ऋग्वेद १/२२/१६

भौतिक तत्त्व जो पृथ्वी के प्रमुख भीतरी भागों में हैं- वे सात परतों के द्वारा जो पृथ्वी के प्रत्येक भागों में विस्फोट करती है भगवान! ये वैज्ञानिक हमारी उस विशेष भाग से रक्षा करें।
यहां दर्शाया गया है कि पृथ्वी का लावा तरल पदार्थ पृथ्वी की उन सात परतों में से होता हुआ निकलता है और यह कतिपय दुर्घटनाओं को जन्म देता है। उस दुर्घटना के कारण पर्वतों की चोटियां गिरती हैं, झीलें, समुद्र और पृथ्वी पर कतिपय पठारों का जन्म होता है। कहा गया है कि पृथ्वी की ये सात परतें पृथ्वी में स्थित हैं।
: सम्वत्सर की वैज्ञानिकता प्रमाण
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बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक पश्चिमी देशों में उनके अपने धर्म-ग्रन्थों के अनुसार मानव सृष्टि को मात्र पांच हजार वर्ष पुराना बताया जाता था।

जबकि इस्लामी दर्शन में इस विषय पर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा गया है। पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिक भी अपने धर्म-ग्रन्थों की भांति ही यही राग अलापते रहे कि मानवीय सृष्टि का बहुत प्राचीन नहीं है। इसके विपरीत

हिन्दू जीवन-दर्शन के अनुसार इस सृष्टि का प्रारम्भ हुए १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, १२० वर्ष बीत चुके हैं और अब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से उसका १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार,१२१वां वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। भूगर्भ से सम्बन्धित नवीनतम आविष्कारों के बाद तो पश्चिमी विद्वान और वैज्ञानिक भी इस तथ्य की पुष्टि करने लगे हैं कि हमारी यह सृष्टि प्राय: २ अरब वर्ष पुरानी है।

अपने देश में हेमाद्रि संकल्प में की गयी सृष्टि की व्याख्या के आधार पर इस समय स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष नामक छह मन्वन्तर पूर्ण होकर अब वैवस्वत मन्वन्तर के २७ महायुगों के कालखण्ड के बाद अठ्ठाइसवें महायुग के सतयुग, त्रेता, द्वापर नामक तीन युग भी अपना कार्यकाल पूरा कर चौथे युग अर्थात कलियुग के ५१२१वें सम्वत्‌ का प्रारम्भ हो रहा है। इसी भांति विक्रम संवत्‌ २०७६ का भी श्रीगणेश हो रहा है।
विक्रम संवत् सम्राट विक्रमादित्य जी के वाद व्यातीत हुये वर्ष के परिप्रेक्ष्य में वने है।

हिन्दू जीवन-दर्शन की मान्यता है कि सृष्टिकर्ता भगवान्‌ व्रह्मा जी द्वारा प्रारम्भ की गयी मानवीय सृष्टि की कालगणना के अनुसार भारत में प्रचलित सम्वत्सर केवल हिन्दुओं, भारतवासियों का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार या समस्त मानवीय सृष्टि का सम्वत्सर है। इसलिए यह सकल व्रह्माण्ड के लिए नव वर्ष के आगमन का सूचक है।

व्रह्मा जी प्रणीत यह कालगणना निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित होने के कारण पूरी तरह वैज्ञानिक है। अत: नक्षत्रों को आधार बनाकर जहां एक ओर विज्ञानसम्मत चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कात्तिर्क, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन नामक १२ मासों का विधान एक वर्ष में किया गया है, वहीं दूसरी ओर सप्ताह के सात दिवसों यथा रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार तथा शनिवार का नामकरण भी व्रह्मा जी ने विज्ञान के आधार पर किया है।

आधुनिक समय में सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित ईसाइयत के ग्रेगेरियन कैलेण्डर को दृष्टिपथ में रखकर अज्ञानी जनों द्वारा प्राय: यह प्रश्न किया जाता है कि व्रह्मा जी ने आधा चैत्र मास व्यतीत हो जाने पर नव सम्वत्सर और सूर्योदय से नवीन दिवस का प्रारम्भ होने का विधान क्यों किया है? इसी भांति सप्ताह का प्रथम दिवस सोमवार न होकर रविवार ही क्यों निर्धारित किया गया है? जैसा ऊपर कहा जा चुका है, व्रह्मा जी ने इस मानवीय सृष्टि की रचना तथा कालगणना का पूरा उपक्रम निसर्ग अथवा प्रकृति से तादात्म्य रखकर किया है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि ‘चैत्रमासे जगत्‌ व्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि, शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदय सति।‘ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस को सूर्योदय से कालगणना का औचित्य इस तथ्य में निहित है कि सूर्य, चन्द्र, मंगल, पृथ्वी, नक्षत्रों आदि की रचना से पूर्व सम्पूर्ण त्रैलोक्य में घटाटोप अन्धकार छाया हुआ था। दिनकर की सृष्टि के साथ इस धरा पर न केवल प्रकाश प्रारम्भ हुआ अपितु भगवान्‌ आदित्य की जीवनदायिनी ऊर्जा शक्ति के प्रभाव से पृथ्वी तल पर जीव-जगत का जीवन भी सम्भव हो सका। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वर्ष का आरम्भ, अर्द्धरात्रि के स्थान पर सूर्योदय से दिवस परिवर्तन की व्यवस्था तथा रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस घोषित करने का वैज्ञानिक आधार तिमिराच्छन्न अन्धकार को विदीर्ण कर प्रकाश की अनुपम छटा बिखेरने के साथ सृजन को सम्भव बनाने की भगवान्‌ भुवन भास्कर की अनुपमेय शक्ति में निहित है। वैसे भी
इंग्लैण्ड के ग्रीनविच नामक स्थान से दिन परिवर्तन की व्यवस्था में अर्द्ध रात्रि के १२ बजे को आधार इसलिए बनाया गया है; क्योंकि जब इंग्लैण्ड में रात्रि के १२ बजते हैं, तब भारत में भगवान्‌ सूर्यदेव की अगवानी करने के लिए प्रात: ५.३० बजे होते हैं।

वारों के नामकरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया में व्रह्मा जी ने स्पष्ट किया कि आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमश: बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों को साथ लेकर व्रह्मा जी ने सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पृथ्वी अपने उपग्रह चन्द्रमा सहित स्वयं एक ग्रह है, किन्तु पृथ्वी पर उसके नाम से किसी दिवस का नामकरण नहीं किया जायेगा; किन्तु उसके उपग्रह चन्द्रमा को इस नामकरण में इसलिए स्थान दिया जायेगा; क्योंकि पृथ्वी के निकटस्थ होने के कारण चन्द्रमा आकाशमण्डल की रश्मियों को पृथ्वी तक पहुँचाने में संचार उपग्रह का कार्य सम्पादित करता है और उससे मानवीय जीवन बहुत गहरे रूप में प्रभावित होता है। लेकिन पृथ्वी पर यह गणना करते समय सूर्य के स्थान पर चन्द्र तथा चन्द्र के स्थान पर सूर्य अथवा रवि को रखा जायेगा।

हम सभी यह जानते हैं कि एक अहोरात्र या दिवस में २४ होरा या घण्टे होते हैं। व्रह्मा जी ने इन २४ होरा या घण्टों में से प्रत्येक होरा का स्वामी क्रमश: सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु और मंगल को घोषित करते हुए स्पष्ट किया कि सृष्टि की कालगणना के प्रथम दिवस पर अन्धकार को विदीर्ण कर भगवान्‌ भुवन भास्कर की प्रथम होरा से
क्रमश: शुक्र की दूसरी, बुध की तीसरी, चन्द्रमा की चौथी, शनि की नौवीं, गुरु की छठी तथा मंगल की सातवीं होरा होगी। इस क्रम से इक्कीसवीं होरा पुन: मंगल की हुई। तदुपरान्त सूर्य की बाईसवीं, शुक्र की तेईसवीं और बुध की चौबीसवीं होरा के साथ एक अहोरात्र या दिवस पूर्ण हो गया।

इसके बाद अगले दिन सूर्योदय के समय चन्द्रमा की होरा होने से दूसरे दिन का नामकरण सोमवार किया गया। अब इसी क्रम से चन्द्र की पहली, आठवीं और पंद्रहवीं, शनि की दूसरी, नववीं और सोलहवीं, गुरु की तीसरी, दशवीं और उन्नीसवीं, मंगल की चौथी, ग्यारहवीं और अठ्ठारहवीं, सूर्य की पाचवीं, बारहवीं और उन्नीसवीं, शुक्र की छठी, तेरहवीं और बीसवीं, बुध की सातवीं, चौदहवीं और इक्कीसवीं होरा होगी। बाईसवीं होरा पुन: चन्द्र, तेईसवीं शनि और चौबीसवीं होरा गुरु की होगी। अब तीसरे दिन सूर्योदय के समय पहली होरा मंगल की होने से सोमवार के बाद मंगलवार होना सुनिश्चित हुआ। इसी क्रम से सातों दिवसों की गणना करने पर वे क्रमश: बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा शनिवार घोषित किये गये; क्योंकि मंगल से गणना करने पर बारहवीं होरा गुरु पर समाप्त होकर बाईसवीं होरा मंगल, तेईसवीं होरा रवि और चौबीसवीं होरा शुक्र की हुई। अब चौथे दिवस की पहली होरा बुध की होने से मंगलवार के बाद का दिन बुधवार कहा गया। अब बुधवार की पहली होरा से इक्कीसवीं होरा शुक्र की होकर बाईसवीं, तेईसवीं और चौबीसवीं होरा क्रमश: बुध, चन्द्र और शनि की होगी। तदुपरान्त पांचवें दिवस की पहली, होरा गुरु की होने से पांचवां दिवस गुरुवार हुआ। पुन: छठा दिवस शुक्रवार होगा; क्योंकि गुरु की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के पश्चात्‌ तेईसवीं होरा मंगल और चौबीसवीं होरा सूर्य की होगी। अब छठे दिवस की पहली होरा शुक्र की होगी। सप्ताह का अन्तिम दिवस शनिवार घोषित किया गया; क्योंकि शुक्र की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के उपरान्त बुध की तेईसवीं और चन्द्रमा की चौबीसवीं होरा पूर्ण होकर सातवें दिवस सूर्योदय के समय प्रथम होरा शनि की होगी।

संक्षेप में व्रह्मा जी प्रणीत इस कालगणना में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों, दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित वैज्ञानिक रूप से किया गया है। दिवसों के नामकरण को प्राप्त विश्वव्यापी मान्यता इसी तथ्य का प्रतीक है।
जय पर्शुराम
जय सनातन धर्म
जय हिंदू संस्कार
साल 2019 में कब लगेगा पंचक ?

ज्योतिष में अशुभ समय होने पर शुभ कामों को करने की मनाही होती है। इसी के चलते पंचक के समय हर किसी को शुभ करने से रोका जाता है। देखो-देखी लोग इस बात को अपना तो लेते हैं, परंतु पंचक है क्या और इसे अशुभ क्यों माना जाता है इसके बारे में किसी को नहीं पता। तो आइए आज जानते हैं कि आखिर क्यों पंचक को अशुभ कहा जाता है और साल 2019 में पंचक कब पढ़ने वाला है। बता दें कि ज्योतिष में पांच नक्षत्रों के मेल से बनने वाले योग को पंचक कहा जाता है। जब चंद्रमा कुंभ और मीन राशि पर रहता है तो उस समय को पंचक कहा जाता है। ज्योतिष के अनुसार चंद्रमा एक राशि में लगभग ढाई दिन रहता है इस तरह इन दो राशियों में चंद्रमा पांच दिनों तक भ्रमण करता है। इन पांच दिनों के दौरान चंद्रमा पांच नक्षत्रों धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती से होकर गुजरता है। अतः ये पांच दिन पंचक कहे जाते हैं।
पंचक
इतना तो सब जानते ही हैं कि हिंदू संस्कृति में प्रत्येक काम को करने से पहले मुहूर्त देखा जाता है, जिसमें पंचक सबसे महत्वपूर्ण है। जब भी कोई काम प्रारंभ किया जाता है तो उसमें शुभ मुहूर्त के साथ पंचक का भी विचार किया जाता है। नक्षत्र चक्र में कुल 27 नक्षत्र होते हैं। इनमें अंतिम के पांच नक्षत्र दूषित माने गए हैं। ये नक्षत्र धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र चार चरणों में विभाजित रहता है। पंचक धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से प्रारंभ होकर रेवती नक्षत्र के अंतिम चरण तक रहता है। हर दिन एक नक्षत्र होता है इस लिहाज से धनिष्ठा से रेवती तक पांच दिन हुए। ये पांच दिन पंचक होता है।
पंचक यानि पांच। माना जाता है कि पंचक के दौरान यदि कोई अशुभ काम हो तो उनकी पांच बार आवृत्ति होती है। इसलिए उसका निवारण करना आवश्यक होता है। पंचक का विचार खासतौर पर किसी की मृत्यु के समय किया जाता है। माना जाता है कि यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु पंचक के दौरान हो तो घर-परिवार में पांच लोगों पर मृत्यु के समान संकट रहता है। इसलिए जिस व्यक्ति की मृत्यु पंचक में होती है उसके दाह संस्कार के समय आटे-चावल के पांच पुतले बनाकर साथ में उनका भी दाह कर दिया जाता है। इससे परिवार पर से पंचक दोष समाप्त हो जाता है।  शास्त्रों में पंचक के दौरान कुछ कामों को करने की मनाही रहती है। उन्हें भूलकर भी इस दौरान नहीं करना चाहिए।
2019 में पंचक-
हर 27 दिन बाद नक्षत्र की पुनरावृत्ति होती है इस लिहाज से पंचक हर 27 दिन बाद आता है। यहां आगामी महीनों में आने वाले पंचकों की जानकारी दी जा रही है।
9 जनवरी दोपहर 1.15 से 14 जनवरी दोपहर 12.53 तक
5 फरवरी सायं 7.35 से 10 फरवरी सायं 7.37 तक
4 मार्च रात्रि 12.09 से 9 मार्च रात्रि 1.18 तक
1 अप्रैल प्रातः 8.21 से 5 अप्रैल तड़के 5.55 तक
28 अप्रैल दोपहर 3.43 से 3 मई दोपहर 2.39 तक
25 मई रात्रि 11.43 से 30 मई रात्रि 11.03 तक
22 जून प्रातः 7.39 से 27 जून प्रातः 7.44 तक
19 जुलाई दोपहर 2.58 से 24 जुलाई दोपहर 3.42 तक
15 अगस्त रात्रि 9.28 से 20 अगस्त को सायं 6.41 तक
11 सितंबर रात्रि 3.26 से 17 सितंबर रात्रि 1.53 तक
9 अक्टूबर प्रातः 9.39 से 14 अक्टूबर प्रातः 10.21 तक
5 नवंबर सायं 4.47 से 10 नवंबर 5.17 तक
2 दिसंबर रात्रि 12.57 से 7 दिसंबर रात्रि 1.29 तक
ऊपर दी गई पंचक सारी जानकारी कुछ पंचांगों के अनुसार है। परंतु देशभर में प्रचलित पंचांगों में स्थानीय सूर्यादय, सूर्यास्त के अनुसार इन समयों में परिवर्तन संभव है। इसलिए पंचक का विचार करते समय स्थानीय पंचांगों और ज्योतिषियों की सलाह ज़रूर लें।

महाभारत में मांस-भक्षण-निषेध

महाभारत में कहा गया है–

धनेन क्रयिको हन्ति खादकश्चोपभोगतः।
घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः॥

आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादकाः सर्व एव ते॥
–महा० अनु० ११५।४०, ४९

’मांस खरीदनेवाला धन से प्राणी की हिंसा करता है, खानेवाला उपभोग से करता है और मारनेवाला मारकर और बाँधकर हिंसा करता है, इस पर तीन तरह से वध होता है । जो मनुष्य मांस लाता है, जो मँगाता है, जो पशु के अंग काटता है, जो खरीदता है, जो बेचता है, जो पकाता है और जो खाता है, वे सभी मांस खानेवाले (घातकी) हैं ।’

अतएव मांस-भक्षण धर्म का हनन करनेवाला होने के कारण सर्वथा महापाप है । धर्म के पालन करनेवाले के लिये हिंसा का त्यागना पहली सीढ़ी है । जिसके हृदय में अहिंसा का भाव नहीं है वहाँ धर्म को स्थान ही कहाँ है?

भीष्मपितामह राजा युधिष्ठिर से कहते हैं-

मां स भक्षयते यस्माद्भक्षयिष्ये तमप्यहम ।
एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्ध्यस्व भारत ॥
–महा० अनु० ११६।३५)

‘ हे युधिष्ठिर ! वह (मांस खाने वाला) मुझे खाता है इसलिये मैं भी उसे खाऊँगा। यह मांस शब्द का मांसत्व है ऐसा समझो ।’

इसी प्रकार की बात मनु महाराज ने कही है –

मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्तिं मनीषणः

                   –मनु0 , 5/55

‘मैं यहाँ जिसका मांस खाता हूँ, वह परलोक में मुझे (मेरा मांस) खायेगा। मांस शब्द का यही अर्थ विद्वान लोग किया करते हैं ।’

आज यहाँ जो जिस जीव के मांस खायेगा किसी समय वही जीव उसका बदला लेने के लिये उसके मांस को खानेवाला बनेगा । जो मनुष्य जिसको जितना कष्ट पहुँचाता है समयान्तर में उसको अपने किये हुए कर्म के फलस्वरूप वह कष्ट और भी अधिक मात्रा में (मय व्याज के) भोगना पड़ता है, इसके सिवा यह भी युक्तिसंगत बात है कि जैसे हमें दूसरे के द्वारा सताये और मारे जाने के समय कष्ट होता है वैसा ही सबको होता है । परपीड़ा महापातक है, पाप का फल सुख कैसे होगा? इसलिये पितामह भीष्म कहते हैं –

कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागताः ।
आक्रम्य मार्यमाणाश्च भ्राम्यन्ते वै पुनः पुनः ॥
–महा० अनु० ११६।२१

‘ मांसाहारी जीव अनेक योनियों में उत्पन्न होते हुए अन्त में कुम्भीपाक नरक में यन्त्रणा भोगते हैं और दूसरे उन्हें बलात दबाकर मार डालते हैं और इस प्रकार वे बार- बार भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं ।’

इमे वै मानवा लोके नृशंस मांसगृद्धिनः ।
विसृज्य विविधान भक्ष्यान महारक्षोगणा इव ॥
अपूपान विविधाकारान शाकानि विविधानि च ।
खाण्डवान रसयोगान्न तथेच्छन्ति यथामिषम ॥

     –महा० अनु०,116/1-2 

‘ शोक है कि जगत में क्रूर मनुष्य नाना प्रकार के पवित्र खाद्य पदार्थों को छोड़कर महान राक्षस की भाँति मांस के लिये लालायित रहते हैं तथा भाँति-भाँति की मिठाइयों, तरह-तरह के शाकों, खाँड़ की बनी हुई वस्तुओं और सरस पदार्थों को भी वैसा पसन्द नहीं करते जैसा मांस को।’

इससे यह सिद्ध हो गया कि मांस मनुष्य का आहार कदापि नहीं है।

नक्षत्र चरण फल : प्रत्येक नक्षत्र मे चार चरण होते है और एक चरण 3 अंश 20 कला का होता है। यह नवमांश जैसा ही है यानि इससे राशि के नौ वे भाग का फलित मिलता है। प्रत्येक चरण मे तीन ग्रह का प्रभाव होता है 1- राशि स्वामी, 2- नक्षत्र स्वामी, 3- चरण स्वामी।

अश्वनी नक्षत्र चरण फल:

प्रथम चरण : इसमे मंगल, केतु और मंगल का प्रभाव है। मेष 00 अंश से 03 अंश 20 कला। इसका स्वामी मंगल है। यह शारारिक क्रिया, साहस, प्रेरणा, प्रारम्भ का द्योतक है। जातक मध्यम कद, बकरे जैसा मुंह, छोटी नाक और भुजा, कर्कश आवाज, संकुचित नेत्र, कृश, धायल अथवा नष्ट अंग वाला होता है।
इसके गुणदोष – शारारिक सक्रियता, साहस, प्रोत्साहन, आवेगी बली. भावनावश परिणाम की बिना चिंता कार्य है। जातक नृप सामान, निर्भीक, साहसी, अफवाहो के प्रति आकर्षित, मितव्ययी, वासनायुक्त, भावुक होता है।

द्वितीय चरण : इसमे मंगल, केतु और शुक्र का प्रभाव है। मेष 03 अंश 20 कला से 06 अंश 40 कला। इसका स्वामी शुक्र है। यह अवबोध, अविष्कार, साकार कल्पना का द्योतक है। जातक श्याम वर्णी, चौड़े कन्धे, लम्बी नाक, लम्बी भुजा, छोटा ललाट, खिले नेत्र, मधुर वाणी, कमजोर जोड़ वाला होता है।
इसके गुणदोष – अवबोध, आविष्कारी, अश्विनीकुमार जैसी सदभावना, कल्पनाओ (भौतिक) को साकार करना है। जातक धार्मीक, हंसमुख, धनवान होता है।

तृतीय चरण : इसमे मंगल, केतु और बुध का प्रभाव है। मेष 06|40 से 10|00 अंश। इसका स्वामी बुध है। यह विनोद, संचार, फुर्ती, व्यापकता का द्योतक है। जातक काले बिखरे बाल, सुन्दर नेत्र व नाक, गौर वर्ण, वाकपटु, पतले जांध व नितम्ब वाला होता है।
इसके गुणदोष – विनोद, आदान-प्रदान, विस्तीर्ण योग्यता, दिमागी फुर्ती है। जातक विद्वान, ज्ञानवान, भोजन प्रेमी, भौतिकवादी, अशांत, तर्क आधारी, साहसिक होता है।

चतुर्थ चरण : इसमे मंगल, केतु और चन्द्र का प्रभाव है। मेष 10|00 से 13|20 अंश , इसका स्वामी चन्द्र है। यह चेतना, भावुकता, सहानुभूति का द्योतक है। जातक व्याकुल नेत्र, साहसी, ठिगना, नट अथवा नृत्यक, भ्रमणशील; खुरदरे नख, विरल कड़े रोम, कृश, भाई हीन होता है।
इसके गुणदोष – सामूहिक चेतना, महत्व, जानकारी, भावुकता है। जातक ईश्वर से डरने वाला, धार्मिक, पौरुषयुक्त, स्त्री संग प्रेमी, चरित्रवान, गुरुभक्त होता है।

भरणी नक्षत्र चरण फल
प्रथम चरण – इसका स्वामी सूर्य है। इसमे मंगल, शुक्र सूर्य का प्रभाव है। राशि मेष 13।20 से 16।40 अंश। नवमांश – सिंह। सृजन, स्वकेन्द्रित, संकल्प, दृढ़ निश्चय इसके गुणधर्म है।
जातक सिंह के सामान आँखे, मोटी नाक, छोड़ा ललाट, घनी भोंहे, घने पतले रोम, आगे का फैला शरीर होता है।
इसकी शिक्षा अच्छी होती है, यह ज्योतिषी, न्यायाधीश, आध्यात्म अध्यापक, नर्सरी टीचर आदि हो सकता है। जातक अहंकारी, कठोर प्रकृति वाला, शत्रुओ से रक्षा करने वाला, विशाल, चोरी की प्रवृत्ति वाला होता है।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी बुध है। इसमे मंगल, शुक्र, बुध का प्रभाव है। राशि मेष 16।40 से 20।00 अंश। नवमांश कन्या। सेवा, संगठन कार्य प्रबंध, धैर्य, निस्वार्थता, परोपकार की भावना इसके गुणधर्म है।
जातक श्याम वर्ण, मृग सामान नेत्र, पतली कमर, कठोर पैर के पंजे, मोटा-लटकता पेट, मोटी भुजा व कंधे, डरपोक, बकवादी, सुयोग्य नृत्यक, डांस टीचर होता है।
जातक विपरीत लिंग का आशिक़, चतुर, मूर्तिकला का ज्ञानी, धर्मिक होता है। इस पाद मे प्रेम विवाह की सम्भावना रहती है।

तृतीय चरण – इसका स्वामी शुक्र है। इसमे मगल, शुक्र, शुक्र का प्रभाव है। राशि मेष 20।00 से 23।20 अंश। नवमांश तुला। समय मे सहमत होना या एक ही समय मे अनेक कार्य होना, अवधि विहीन प्रेम और रति, विपरीत लिंग का अत्यधिक आकर्षण, अभिलाषा की पूर्ति इसके गुणधर्म है।
जातक कड़े रोम वाला, चंचल, धवल नेत्र, रति निरत, कुलटा स्त्री का पति, हत्यारा, विशाल शरीर वाला होता है।जातक घमंडी, योगीन्द्र, पंडित, सामान्य स्वभावी, स्वयं का उद्योग करने वाला, अत्यधिक कामुक और कामातुर, वाचाल होता है।
✽ इस चरण मे मगल, + शुक्र, + शुक्र का प्रभाव वश यौन आकर्षण, यौनाचार, यौनक्रीड़ा, यौनकर्म, रति इत्यादि की बहुलता होती है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी मंगल है। इसमे मंगल, शुक्र, मंगल का प्रभाव है। राशि मेष 23।20 से 26।40 अंश। नवमांश वृश्चिक। अत्यधिक ऊर्जा, रूकावट इसके गुणधर्म है।
जातक वानर मुखी, भूरे केश, गुप्तरोग रोगी, हिंसक, असत्यवादी, धातादिक योग, मित्र से सदव्यवहारी होता है। यह विस्फोटक ऊर्जावान होता है, यदि ऊर्जा का प्रवाह ठीक हो, तो जातक अन्वेषक या अविष्कारक, स्त्री रोग विशेषज्ञ, छायाकार, पैथालॉजिस्ट, जासूस होता है।
जातक कुसत्संगी, क्रूर, अहंकारी, दुर्दम, झूठा, स्वेच्छाचारी, वाचाल, कुछ अच्छी आदते वाला होता है।

आचार्यो ने चरण फल सूत्रो मे बताया है परतु फलित मे बहुत अंतर है।
मानसागराचार्य : भरणी के पहले चरण मे चोर, दूसरे चरण मे काल भाषा हीन, तीसरे चरण मे योगीन्द्र, चौथे चरण मे निर्धन होता है।
यवनाचार्य : भरणी के पहले चरण मे त्यागी, दूसरे चरण मे धनी व सुखी, तीसरे चरण मे क्रूर कर्म करने वाला, चौथे चरण मे दरिद्र होता है।

कृतिका नक्षत्र चरण फल ।

प्रथम चरण – इसका स्वामी गुरु है। इसमे मंगल, सूर्य, गुरु, का प्रभाव है। राशि मेष 26।40 से 30।00 अंश। नवमांश धनु। यह परोपकार, निस्वार्थ, महानता, उदारता, इच्छाशक्ति, ताकत, सेना अनुशरण, शुभ लक्षणो का द्योतक है।
जातक लम्बा, क्रश, चौड़ा ललाट, लम्बे कान, अश्व मुखी, धूमने-फिरने वाला, ज्ञानी, निर्मम, बहुरुपिया होता है। जातक बुद्धिमान, अनुशासित, रोगी किन्तु दीर्घायु, अनेक प्रकार से संतोषी, अनेक उपाधिया प्राप्त होता है।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी शनि। इसमे शुक्र, सूर्य, शनि का प्रभाव है। राशि वृषभ 30।00 से 33।20 अंश। नवमांश मकर। यह सदाचार, नीति, भौतिकता, मातृपक्ष का द्योतक है।
जातक श्यामवर्णी, विषम नेत्र, क्रूरदृष्टि, नीच, प्रकृति विरुद्ध, वैर-विरोध करने वाला होता है। जातक की मृत्यु मघा के अंत मे या रेवती नक्षत्र मे होती है।
जातक आध्यत्मिक व्यक्ति से नफरत करने वाला, धार्मिक साहित्य का विरोधी, दूसरो को धार्मिक ग्रंथो का विरोध करने के लिए प्रेरित करने वाला, यदाकदा यशस्वी होता है।

तृतीय चरण – इसका स्वामी शनि है। इसमे शुक्र, सूर्य, शनि का प्रभाव है। राशि वृषभ 33।20 से 36।40 अंश। नवमांश कुम्भ। यह मानवता, भविष्यवाद, प्राचीन सत्ता, कर्तव्य, ज्ञान का द्योतक है।
जातक गंभीर नेत्र वाला, टेड़े सर व मुख वाला, आत्मा से द्रवित, अल्पबुद्धि, प्रतिकूल कर्मी, असत्य और अधिक बोलने वाला होता है। जातक वीर, अभिमानी, शीघ्र गर्म होने वाला, वेश्यागामी, तुच्छ जीवन वाला होता है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी गुरु है। इसमे शुक्र, सूर्य, गुरु, का प्रभाव है। राशि वृषभ 36।40 से 40।00 अंश। नवमांश मीन। यह शीलता, सूक्ष्म ग्राह्यता, परोपकारिता, रचना का द्योतक है।
जातक कोमल अंग, सुन्दर शरीर व नाक, बड़े नेत्र, यज्ञ व धर्म कार्यो में रुचिवान, स्थिर, शुभ लक्षण वाला, पालन-पौषण करने वाला, चोरी की आदत वाला, नम्र किन्तु घमंडी, चिंतित, व्याकुल, कष्टमय, रोगी, मानसिक मुसीबतो से त्रस्त रहता है।

आचार्यों ने चरण फल सूत्र रूप मे कहा है किन्तु फलादेश मे अंतर बहुत है।
यवनाचार्य : प्रथम चरण मे तेजश्वी, दूसरे मे शास्त्र विज्ञानी, तीसरे मे शूर, चौथे मे दीर्घायु व पुत्रवान होता है।
मानसागराचार्य : प्रथम पाद मे शुभ लक्षणो से युक्त, द्वितीय मे यशस्वी, तृतीय मे पुत्रवान, चतुर्थ मे वीर होता है।

रोहिणी नक्षत्र चरण फल ।

प्रथम चरण – इसका स्वामी मंगल है। इसमे शुक्र, चंद्र, मंगल का प्रभाव है। राशि वृषभ 40।00 से 43।20 तक। नवमांश मेष। यह शरीरिक सुख, आध्यात्म, भोग का द्योतक है।
जातक छोटा उदर वाला, मेढे के सामान नेत्र, पिंगल वर्ण, क्रोधी, दूसरो के धन को हड़पने वाला होता है।
जातक वासना युक्त, लालची, कटुभाषी, देखने में सुन्दर तीखे नाक-नक़्शे वाला होता है।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी शुक्र है। इसमे शुक्र, चंद्र, शुक्र का प्रभाव है। राशि वृषभ 43।20 से 46।40 तक। नवमांश वृषभ। यह विषम स्थति, भौतिकवाद, क्रांति का द्योतक है।
जातक बड़ी आँखोवाला, भैसा जैसा मुंह वाला, ऊँची नाक, घने केश, वृहद कंधे व भुजा तथा कमर, गौरवर्णी, भद्र आदतो वाला, सुवक्ता, रोगी जैसा किन्तु जितेन्द्रिय होता है।

तृतीय चरण – इसका स्वामी बुध है। इसमे शुक्र, चंद्र, बुध का प्रभाव है। राशि वृषभ 46।40 से 50।00 तक। नवमांश मिथुन। यह वाणिज्य, रचना, लचीलापन, नम्यता, कर्कशता, सम्पत्ति का द्योतक है।
जातक स्थिर, सुन्दर नेत्र, कोमल शरीर, मोहक वाणी, माधुर्य और हास्य रस मे रत, निपुण, बातूनी होता है।
जातक ठोस भक्त, प्रशंसा के योग्य, दानी, अंकगणित निपुण, धार्मिक और प्रसन्न होता है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी चन्द्र है। इसमे शुक्र, चंद्र, चन्द्र का प्रभाव है। राशि वृषभ 50।00 से 53।20 तक। नवमांश कर्क। यह भौतिक सुरक्षा, मातृपक्ष, स्वामित्व का द्योतक है।
जातक मृत पुत्र वाला, युवतियो मे रत, लम्बी नाक, विशाल नेत्र, बड़े अंग, बड़े पैर, स्वजनो का द्वेषी होता है।
जातक धनवान, दूसरो का मन समझने मे सशक्त, भविष्यवक्ता, बुद्धिमान, सन्तुलित जीवन वाला होता है।

आचर्यों ने चरण फल सूत्ररूप में कहा है लेकिन उसमे बहुत अंतर है।
यवनाचार्य : पहले चरण मे सौभाग्य, दूसरे चरण मे पीड़ा, तीसरे मे डरपोकपन, चौथे मे सत्यवादी होता है।
मानसागराचार्य : प्रथम चरण मे शुभ लक्षणवाला, द्वितीय मे विद्वान, तृतीय मे सौभाग्यशाली, चतुर्थ मे कुलभूषण होता है।

मर्गशिरा नक्षत्र चरण फल ।

प्रथम चरण – इसका स्वामी सूर्य है। इसमे शुक्र, मंगल, सूर्य का प्रभाव है। राशि वृषभ 53।20 से 56।40 अंश। नवमांश सिंह। यह स्थायीकरण, स्वयोजना, रचना का द्योतक है।
जातक व्याघ्र के सामान नेत्र, सुन्दर दांत, चौड़ी नाक, भूरे बाल, कड़े नख, अहंकारी, अल्पकर्मी बातूनी होता है।
जातक शिक्षित, मेघावी, होशियार, भावुक, अन्वेषक, आवेगी, सृजनात्मक होता है। पुरुष संतति की दुविधा होती है, कन्या संतति होती है। दाम्पत्य जीवन साधारण होता है।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी बुध है। इसमे शुक्र, मंगल, बुध का प्रभाव है। राशि वृषभ 56।40 से 60।00 अंश। नवमांश कन्या। यह परिकलन, गणना, भेदभाव, फर्क, व्यंग का द्योतक है।
जातक सम्मानीय, अल्प साहसी, डरपोक, दुबला-पतला, जुआरी, कुंठाग्रस्त, धन संचयी दुःख से प्रलाप करने वाला होता है।
इस चरणोत्पन्न जातक प्रायोगिक, सामाजिक, गणितज्ञ, मनोरंजक, गायन और संगीत में रुचिवान अच्छा सैनिक होता है। यदि यह चरण पाप प्रभाव मे हो, तो जातक अपमिश्रण करने वाला होता है। परिवार मे छोटे-मोटे विरोधाभास होते रहते है। इसके साथ धोखा हो सकता है।

तृतीय चरण- इसका स्वामी शुक्र है। इसमे बुध, मंगल, शुक्र का प्रभाव है। राशि मिथुन 60।00 से 63।20 अंश। नवमांश तुला। यह दिमागी दौड़, सामाजिकता का द्योतक है।
जातक लम्बे धने रोम, बड़े ऊँचे कंधे व भुजा, ऊँची नाक, मयूर समान नेत्र, दूर्वा (घास) के सामान अस्तिया, श्याम वर्ण, पतले हस्त वाला होता है। टांगे लम्बी और पतली होती है।
जातक ज्यादा सोच-विचार करने वाला, सामाजिक रोमांटिक (प्रणय प्रेमी, कल्पना जीवी) उच्च जन संपर्क अधिकारी होता है। इनके एक से अधिक स्त्रियो से प्रेम प्रसंग होते है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी मंगल है। इसमे बुध, मंगल, मंगल का प्रभाव है। राशि मिथुन 63।20 से 66।40 अंश। नवमांश वृश्चिक। यह विद्ववता पूर्ण बहस, शक या अविश्वास, आध्यात्मिक उन्नति का द्योतक है।
जातक घट के सामान सिर वाला, नासिका के मध्य मे चोट लगना, धार्मिक, वाचाल, क्रियाशील, हिंसक, सेनापति होता है।
जातक अच्छा अन्वेषक, अत्यधिक सन्देह करने वाला, आवेगी होता है। इन्हे अच्छे परामर्शदाता की महत्वपूर्ण निर्णय लेने मे आवश्यकता होती है। यदि ये अपनी ऊर्जा का सदुपयोग करे तो ज्योतिषी, निवेशक, रचनात्मक लेखक, पादरी या पुरोहित हो सकते है।

आचर्यो ने चरण फल सूत्र रूप में कहा है लेकिन उसमे अन्तर बहुत है।
यवनाचार्य : मृगशीर्ष प्रथम चरण मे राजा, द्वितीय मे तस्कर, तृतीय मे भोगी, चतुर्थ मे धन-धान्य युक्त होता है।
मानसागराचार्य : पहले मे धनधान्यापार्जक, दूसरे मे पर स्त्री गामी, तीसरे मे भाग्यवान, चौथे मे निर्धन होता है।

⃝ इसके प्रथम और द्वितीय चरण वृषभ मे आते है अतएव जातक की संतान सुन्दर, मेघावी, सृजनात्मक, प्रचुर भौतिकता लाने वाली होती है।
⃝ इसके तृतीय और चतुर्थ चरण मिथुन मे आते है अतएव लेखन, जनवक्ता, प्रभावपूर्ण भाषण, जिज्ञासावृत्ति, अक्ल खोज प्रकट करते है।
⃝ स्त्री जातक गलत विचारो को व्यक्त करने में भी नही हिचकिचाति है इस कारण मित्र भी शत्रु बन जाते है।

आर्द्रा चरण फल
प्रथम चरण – इसका स्वामी गुरु है। इसमे बुध, राहु, गुरु का प्रभाव है। राशि मिथुन 66।40 से 70।00 अंश। नवमांश धनु। यह खोज-बीन, भौतिकवाद, प्रसन्नता का द्योतक है।
जातक रक्त वर्ण, समशरीर, सुन्दर नाक, लम्बा चेहरा, घनी तीखी भौहे वाला होता है। वाणी प्रभावी व चातुर्यपूर्ण होती है। जातक के मन मे हमेशा संक्षोभ होता है जिससे दुविधा के कारण कुछ निश्चित नही कर पता है अतः इस तूफान के निवारण के लिए ध्यान करना चाहिए।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी शनि है। इसमे बुध, राहु, शनि का प्रभाव है। राशि मिथुन 70।00 से 73।20 अंश। नवमांश मकर। यह भौतिकवाद, निराशा, कष्ट का द्योतक है।
जातक की भौंहे सुन्दर, बदन इकहरा, हल्का कृष्ण वर्ण, छोटा चहेरा, दीर्घ वक्ष, यौन वासना युक्त होता है। यह चरण अत्यधिक भ्रष्टाचार का द्योतक है। आर्द्रा नक्षत्र की ऋणात्मक विशेषता इस चरण मे सबसे ज्यादा होती है परन्तु जातक व्यवहारिक और भौतिक होता है। बुध और शनि शुभ स्थान में हो, तो भौतिकता कड़ी मेहनत के 32 वर्ष की उम्र पश्चात प्राप्त होती है।

तृतीय चरण – इसका स्वामी शनि है। इसमे बुध, राहु, शनि का प्रभाव है। राशि मिथुन 73।20 से 76।40 अंश। नवमांश कुम्भ। यह विज्ञान, शोध, प्रोत्साहन, मानसिक गतिविधि का द्योतक है।
जातक बड़ा मुंह, बड़ा वक्ष, मोटी कमर, लम्बी भुजा वाला, स्थूल सर वाला, कपटी, दुष्ट, उभरी शिराएं वाला, आँखो से मन की बात जानना कठिन होता है। जातक सामाजिक कार्यकर्त्ता, व्यक्तियो का शरीरिक रूप से मददगार, कर्मठ, तेज दिमाग वाला होता है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी गुरु है। इसमे बुध, राहु, गुरु का प्रभाव है। राशि मिथुन 76।40 से 80।00 अंश। नवमांश मीन। यह संवेदना, अनुकम्पा, शांति का द्योतक है।
जातक मादक नयन, वाचाल, चौड़ा ललाट, बलिष्ठ शरीर, गुलाबी होंठ, पीले दांत, जुआरी, दुष्ट व निरर्थक प्रलापी होता है। जातक भावुक, हास्यास्पद, दानी, बिना हिचकिचाहट के दूसरो धन से मददगार, स्थिर दिमाग, लाभदायक गतिविधियो मे सलग्न रहता है।
आचार्यो ने चरण फल सूत्र रूप मे कहा है परन्तु फलित मे अंतर बहुत है।
यवनाचार्य : आर्द्रा के प्रथम चरण मे खर्चीला, द्वितीय मे दरिद्री, तृतीय मे अल्पायु, चतुर्थ मे तस्कर होता है।
मानसागराचार्य : आर्द्रा के पहले पाद मे कटुभाषी, दूसरे मे धनवान, तीसरे मे भाग्यवान चौथे मे धन-धन्य भोगी होता है।

पुनर्वसु नक्षत्र चरण फल ।

प्रथम चरण – इसके स्वामी मंगल है। इसमे बुध, गुरु, मंगल का प्रभाव है। मिथुन 80।00 से 83।20 अंश । नवमांश मेष। यह गति, साहसिक / जोखिम के काम, दर्शन, आध्यात्मिक मार्ग, मित्रता का द्योतक है।

जातक ताम्र वर्ण, अरुण और समुन्नत नेत्र, विशाल वक्ष, शिक्षा व कला मे निपुण, मज़ाकी स्वाभाव का होता है।

जातक कुशल, गुणी, सृजनात्मक होता है। कार्य प्रारम्भ मे जल्दबाज बाद मे सामान्य और सफल होता है। ये आसानी से मित्र और महिला मित्र बना लेते है। इनकी संतान समर्पित होती है। बिना ओरो को नुकसान पहुंचाये धन कमाने मे माहिर होते है।

द्वितीय चरण – इसके स्वामी शुक्र है। इसमे बुध, गुरु, शुक्र का प्रभाव है। मिथुन 83।20 से 86।40 अंश। नवमांश वृषभ। यह स्थाईत्व, भौतिकता, यात्रा का द्योतक है।

जातक श्याम वर्णी, मोटा शरीर, लम्बे श्वेत नेत्र, मनस्वी (मनन, चिंतन, विचार) मधुर भाषी कलाविद होता है। जातक संपत्ति का संग्रहक, बिना मेहनत किये कमाने मे कलाविद, संचार कुशल, सफल व्यापारी होता है।

तृतीय चरण – इसके स्वामी बुध है। इसमे बुध, गुरु, बुध का प्रभाव है। मिथुन 86।40 से 90।00 अंश। नवमांश मिथुन। यह कल्पना, मानसिक केंद्र, विज्ञान का द्योतक है।
जातक गोल श्वेत नेत्र, सुन्दर देह निपुण, मेघावी, रति क्रीड़ा दक्ष, कला साहित्य विज्ञान का ज्ञाता होता है। इस चरण मे धन अर्जित करने की ऊर्जा होती है। जातक उच्च शिक्षा प्राप्त, साहित्य प्रेमी, संधर्ष से धनी होता है।

चतुर्थ चरण – इसके स्वामी चन्द्र है। इसमे चन्द्र, गुरु,चंद्र का प्रभाव है। कर्क 90।00 से 93।00 अंश। नवमांश कर्क। यह माँ बनना, मातृत्व, फैलाव, पोषण का द्योतक है।
जातक स्वच्छ, सुन्दर गौर वर्ण, बड़ा पेट अथवा कमर. दिव्य आभा युक्त मुखड़ा, बड़े नेत्र, छोटी भुजा होती है। इस पाद में पुनर्वसु के सबसे घनात्मक प्रभाव होते है। जातक अत्यधिक देख-भाल करने वाला, दानी, आध्यत्मिक ज्ञान के लिए परिश्रमी, रचनात्मक लेखक, नाम और शोहरत वाला होता है।

आचर्यों ने चरण फल सूत्र रूप मे कहा है परन्तु अंतर बहुत है।

यवनाचार्य : पुनर्वसु के प्रथम चरण मे सुखी, द्वितीय मे विद्वान, तृतीय मे रोगी, चतुर्थ में मृदुभाषी होता है।

मानसागराचार्य : पुनर्वसु के पहले चरण मे चोर, दूसरे मे महात्मा, तीसरे मे देव-गुरु भक्त, चौथे मे धनी होता है।

पुष्य नक्षत्र चरण फलादेश।

प्रथम चरण – इसका स्वामी सूर्य है। इसमे चन्द्र, शनि, सूर्य का प्रभाव है। कर्क 93।20 से 96।40 अंश। नवमांश सिंह। यह तीव्र प्रकाश का आकर्षण, उपलब्धता, सम्पदा, सकारात्मकता, पैतृक गर्व का द्योतक है।

जातक लाल गुलाबी कान्ति वाला, बिलाव (बिल्ली) के सामान चेहरा वाला, लम्बे हाथ तथा पैर, विवाह के लिए प्रवासी, कला प्रिय होता है।

जातक जबाबदारी के लिए विश्वनीय, व्यवसायिक जीवन के लिए गंभीर, परिवार के प्रति चिन्तित, विवाह मे अड़चन, दाम्पत्य जीवन दुःखद होता है। कोई-कोई जातक मजदुर होता है।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी बुध है। इसमे चन्द्र, शनि, बुध का प्रभाव है। कर्क 96।40 से 100।00 अंश। नवमांश कन्या। यह धैर्य, निरतन्तर उद्योग, शुक्र के आलावा सभी ग्रहो के लाभ का द्योतक है।

जातक सुन्दर नेत्र, सुकुमार कोमल देह, गौर वर्ण, युवती के सामान सुडोल व पुष्ट अंगो वाला, मधुर वाणी युक्त, बुद्धिमान, अालसी लेकिन प्रभावी वक्ता होता है।

नौकर समान कार्यकारी, स्त्री या पुरुष जातक निज सचिव या शासकीय नौकर होते है। स्वास्थ सम्बन्धी बाधा और शरीरिक गड़बड़ी होती है।

तृतीय चरण – इसका स्वामी शुक्र है। इसमे चन्द्र, शनि, शुक्र का प्रभाव है। कर्क 100।00 से 103।20 अंश। नवमांश तुला। यह आराम, सुविधा, समाज प्रियता, अनुकूलता, अनुरूपता, सतही प्रगाढ़ता का द्योतक है।
जातक श्याम वर्णी, स्थूल देह, धनुषाकार भौंहे, सुंदर नाक व आंख, विलासी, क्षीणभाग्य, जाति बन्धु का हित करने वाला होता है।
जातक सामाजिक, यौन क्रिया का इच्छुक, पारिवारिक जीवन की अपेक्षा व्यावसायिक जीवन चाहने वाला, जीवन मे आराम और सुविधा भोगने वाला कार्य के प्रति लगनशील होता है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी मंगल है। इसमे चन्द्र, शनि, मंगल का प्रभाव है। कर्क 103।20 से 106।40 अंश। नवमांश वृश्चिक। यह स्वर्गीय ज्ञान, अत्याचार, जुल्म, निर्भरता का द्योतक है।
जातक घड़ियाल / घंटे के समान सिर वाला, बाकी तिरछी भौंहे, लंबी भुजाए, सेवारत, अल्पबुद्धि, दुष्कर्मी, असहनशील होता है।
यह चरण विशेष शुभ नही होता, इसमे नक्षत्र के सभी ऋणात्मक लक्षण होते है। जातक की प्रारम्भिक शिक्षा मे स्वास्थ के कारण व्यवधान, युवावस्था मे प्रेम प्रसंग के कारण शिक्षा मे परेशानी होती है। 36 वर्ष की उम्र तक व्यवसाय मे रूकावट अड़चने आती है।

आचार्यो ने चरण फल सूत्र रूप मे कहा है, लेकिन अंतर बहुत है।

यवनाचार्य : पुष्य के पहले चरण मे दीर्घायु, दूसरे मे तस्कर, तीसरे मे योगी, चौथे मे बुद्धिमान होता है।

मानसागराचार्य : पुष्य पहले चरण मे राजा, दूसरे में मुनियो मे श्रेष्ट, तीसरे मे विद्वान, चौथे मे धर्मात्मा होता है।

आश्लेषा नक्षत्र चरण फल ।

प्रथम चरण – इसका स्वामी गुरु है। इसमे चन्द्र, बुध, गुरु का प्रभाव है। कर्क 106।40 से 110।00 अंश। नवमांश धनु। यह भय, रोग, शत्रु का द्योतक है। जातक लम्बा, स्थूल देह, सुन्दर नेत्र और नाक, गौर वर्ण, लबे-चौड़े दांत, वक्ता प्रतापी होता है।
स्त्री अथवा पुरुष जातक लक्ष्य पाने के लिए मेहनती होते है। ये शत्रु को वश मे करने की कला के ज्ञाता, साथियो और वरिष्ठो से प्रतिस्पर्धा मे विशिष्ट होते है।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी शनि है। इसमे चन्द्र, बुध, शनि का प्रभाव है। कर्क 110।00 से 113।20 अंश। नवमांश मकर। यह तृप्ति, लोगो से सौदा या व्यवहार, ठगबाजी, ईच्छा, स्वत्व उन्मुखता, वित्त का द्योतक है। जातक छितरे अल्प रोम युक्त, स्थूल देह, दीर्घ सर व जांघ, रक्षक अथवा चौकीदार, कौआ के सामान चौकन्ना, स्फूर्तिवान होता है।
नक्षत्र के नकारात्मक लक्षण इस चरण मे देखे जाते है। जातक अत्यधिक मक्कार, बेहिचक दूसरो के लक्ष्य को रोकने वाला, अविश्वनीय होता है। जातक को काबू मे रखना अत्यंत दुष्वार होता है। इसका खुद का मकान नही होता है यदि होता भी है तो किराये के मकान मे रहता है।

तृतीय चरण – इसका स्वामी शनि है। इसमे चन्द्र, बुध, शनि का प्रभाव है। कर्क 113।20 से 116।40 अंश। नवमांश कुम्भ। यह गोपनीयता, छुपाव, योजना, माता पर कुप्रभाव का द्योतक है। जातक घड़ियाल के सामान सिर वाला, सुन्दर मुख व भुजा, कछुवे के समान गति, चपटी नाक, श्यामवर्णी, कुशिल्पी होता है। इस पाद मे जातक विश्वनीय होता है। परन्तु दूसरे सभी लक्षण दूसरे पाद जैसे ही होते है। इन्हे चर्म रोग रहता है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी गुरु है। इसमे चन्द्र, बुध, गुरु का प्रभाव है। कर्क 116।40 से 120।00 अंश। नवमांश मीन। यह भ्रम, अति प्रयास या संघर्ष (ग्रीक पौराणिकता अनुसार इसमे सर्प का कत्ल किया जाता है) खतरनाक धोखा, आमना-सामना, पिता के स्वास्थ पर दुष्प्रभाब का द्योतक है। जातक गौरवर्ण, मस्य सामान नेत्र, कोमल उदर, बड़ा वक्ष, लम्बी दाड़ी, पतले होंठ, बड़ी जांघे पतले घुटने वाला होता है।
इस पाद का जातक दूसरो को शिकार बनाने के बजाय खुद शिकार होता है। जीवन में सम्बन्ध बनाये रखने के लिये कठिन परिश्रम करता है। नक्षत्र दुष्प्रभाव मे हो, तो गंभीर मनोरोग होते है।

नक्षत्रो के चरण फल आचर्यों ने सूत्र रूप मे कहे है लेकिन अंतर बहुत है।

यवनाचार्य : आश्लेषा के प्रथम चरण मे संतान हीन, द्वितीय मे पराया काम करने वाला, नौकर या एजेन्ट, तृतीय मे रोगी, चतुर्थ मे गण्डांत रहित भाग मे सुभग या सौभाग्यशाली होता है। गण्डान्त मे अल्पायु होता है।
मनसागराचार्य : पहले चरण मे चोर, दूसरे मे निर्धन, तीसरे मे देश मे पूज्य, चौथे मे कुल भूषण होता है।

मघा नक्षत्र चरण फल ।

प्रथम चरण – इसका स्वामी मंगल है। इसमे सूर्य, केतु, मंगल का प्रभाव है। सिंह 120।00 से 123।20 अंश। नवमांश मेष। यह शक्ति, शूरता, नेतृत्व, दया का द्योतक है।
जातक मंदाग्नि से ग्रस्त, साहसी, नाशिक का अग्र लाल भाग, बड़ा सिर, उन्नत मांशल वक्ष, शूरवीर होता है।
यह पाद जातक का बहुत मजबूत स्वभाव दर्शाता है। जातक अत्यंत शक्तिशाली, अहंमानी, उच्च स्थिति प्राप्तक, विख्यात न्यायाधीश या अभिभाषक, अधिकार युक्त होता है। इसे कट्टर दुश्मनी कारक अधिक शक्ति के उपयोग पर नियंत्रण रखना चाहिए।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी शुक्र है। इसमे सूर्य, केतु, शुक्र का प्रभाव है। सिंह 123।20 से 126।40 अंश। नवमांश वृषभ। यह चेतना, कर्तव्य, संगठन, अनुग्रह का द्योतक है।
जातक चौड़ा ललाट, चार कोने वाला शरीर, छोटे नेत्र, लम्बी भुजा, उन्नत वक्ष, लम्बी ऊंची नाक वाला, अल्प क्रोधी होता है। यह पाद व्यवहार मे शालीनता और निम्न स्तरीय अहंकार को दर्शाता है। इसके पास अधिकार और शक्ति होते हुए भी कूटनीति से भौतिक लक्ष्य को प्राप्त करता है। इस कारण जातक कुटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, प्रबंधक, प्रशासक आदि होता है।

तृतीय चरण – इसका स्वामी बुध है। इसमे सूर्य, केतु, बुध का प्रभाव है। सिंह 126।40 से 130।00 अंश। नवमांश मिथुन। यह विद्ववता, खोज, रचनात्मकता का द्योतक है।
जातक घने रोम वाला, चकोर, ऊंची नाक, लम्बी भुजा, गोल गले वाला, मोह ममता से परे होता है। जातक अत्यंत मेघावी, समय निकाल कर मित्रो मे व्यतीत करने वाला, कार्यालय समय बाद तनाव मुक्ति का ज्ञाता होता है। यह अति उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धि जीवी होता है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी चन्द्र है। इसमे सूर्य, केतु, चन्द्र का प्रभाव है। सिंह130।00 से 133।20 अंश। नवमांश कर्क। यह संस्कार, पैतृकता, खुशहाली, दान का द्योतक है।
जातक चिकनी तैलीय त्वचा वाला, गौर वर्ण, लम्बे सुन्दर नेत्र, बेसुरी आवाज वाला, कोमल केश, मेढक के सामान पेट, कम खुराक वाला होता है। अधिकार प्राप्त जातक के लिए यह शुभ नही है। महत्वपूर्ण निर्णय के समय यह भावुक होकर अपने लगाव के प्रति झुक जाता है। यह छान-बीन करने वाला पुरातत्ववेत्ता होता है।

आचर्यों ने चरण फल सूत्र रूप मे कहा है परन्तु फलादेश मे बहुत अंतर है।
यवनाचार्य : मघा के पहले चरण मे पुत्रहीन, दूसरे मे पुत्रवान, तीसरे मे रोगी, चौथे मे विद्वान, बुद्धिमान होता है।
मानसागराचार्य : पहले चरण मे राजमान्य, दूसरे मे धनवान, तीसरे मे तीर्थयात्री, चौथे मे पुत्रवान होता है।

पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र चरण फल ।

प्रथम चरण – इसका स्वामी सूर्य है। इसमे सूर्य, शुक्र, सूर्य का प्रभाव है। सिंह 133।20 से 136।40 अंश। नवमांश सिंह। यह स्व प्रतिष्ठा, वैभव, शान का द्योतक है। जातक घड़ियाल समान सिर, अल्प केश, श्वेत आंखे, लोमड़ी सामान शरीर, लम्बा पेट, साहसी, मोटे चौड़े तीखे दांत वाला होता है।

जातक साहसी, पत्नी युक्त, माता का भक्त होता है। विपरीत लिंग से अड़चन, रसायन या हॉस्पिटल से आजीविका होती है। पुरुष जातक कच्चे माल का व्यापारी, जीवन के उत्तरार्ध मे सुखी, धनार्जन और व्यापार के लिए यात्राएं करने वाला होता है।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी बुध है। इसमे सूर्य, शुक्र, बुध का प्रभाव है। सिंह 136।40 से 140।00 अंश। नवमांश कन्या। यह धैर्य, संयम, व्यापार, उद्योग का द्योतक है। जातक अल्प रोम, कोमल मटमैले नेत्र, लम्बा, श्याम वर्णी, स्त्री सुलभ सौन्दर्य युक्त, चतुर, शेखी मारने वाला, कार्य साधने में निपुण होता है।

जातक महा क्रोधी, जीवन के मध्य मे वासना युक्त, जीवन के अंत मे शांत और चिंता मुक्त होता है। पुरुष जातक नम्र, स्त्रियो का शौकीन, शराबी, नृत्य संगीत में रुचिवान, शिल्पकार, परिवार से दूर रहने वाला होता है।

तृतीय चरण – इसका स्वामी शुक्र है। इसमे सूर्य, शुक्र, शुक्र का प्रभाव है। सिंह 140।00 से 143।20 अंश। नवमांश तुला। यह सृजन, तनाव मुक्ति, समान विचार, यात्रा, परिष्कृत, प्रशंसा, परामर्श का द्योतक है। जातक लम्बा मुंह, लम्बा मोटा सिर, हृष्ट-पुष्ट, मांसल देह, श्याम वर्ण, घने रोम, स्त्रियो से कपटी, कूटनीतिज्ञ, ठग, कठोर भाषी होता है।
जातक आक्रामक, संताप रहित, अनेक जबाबदारियो से परिपूर्ण होता है। घर मे चोरी होती है, परन्तु नुकसान कम होता है या चोरी गया मॉल मिल जाता है। पुरुष जातक प्रहार का शौकीन, बॉक्सर या पहलवान, वंश परम्परा का आदर करने वाला, परिवार और रिस्तेदारो का घनिष्ट, जीवन के अंत मे अकेला होता है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी मंगल है। इसमे सूर्य, शुक्र, मंगल का प्रभाव है। सिंह 143।20 से 146।40 अंश। नवमांश वृश्चिक। यह लालसा, वीरता, रंग रूप का द्योतक है। जातक के जीवन मे कलह विशेष होता है। यदि जन्मांग मे सूर्य गुरु अच्छी स्थति मे हो, तो कलह कम होता है। जातक शिष्ट भाषी, स्थिर अंग, गंभीर स्वभाव, कपट दृष्टि, निषिद्ध कार्य करने वाला, गुप्तचर, कुशल होता है।

आचार्यो ने चरण फल सूत्र रूप में कहा है परन्तु अन्तर बहुत है।

यवनाचार्य : पहले पाद मे समर्थ व धार्मिक राजा, दूसरे मे रोगी, तीसरे मे क्रूर, चौथे मे अल्पायु होता है।

मानसागराचार्य : पूर्वा फाल्गुनी के पहले पाद मे स्वपक्ष जन हीन , दूसरे मे माता-पिता का भक्त, तीसरे मे राजमान्य चौथे मे धनी होता है।

उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र चरण फल।

प्रथम चरण – इसका स्वामी गुरु है। इसमे सूर्य, सूर्य, गुरु का प्रभाव है। सिंह 146।40 से 150।00 अंश। नवमांश धनु। यह आचार, नियम, सलाह, भाग्य, भौतिक फैलाव का द्योतक है। जातक अश्व मुखी, मटमैले नेत्र, लम्बी भुजा, सुन्दर एड़ी और जांघ, पतली कमर, दमा रोग से पीड़ित होता है।
जातक धनी, प्रसिद्ध, बहादुर, सृमद्ध, पारिवारिक, सुकार्यकर्ता, साफ-स्वच्छ, वश मे करने वाला, क्ले या प्लास्टिक वस्तुए के मॉडल निर्माता होता है। जातक परिवार से 22 या 36 वे वर्ष से अलग रहता है।

द्वितीय चरण – इसका स्वामी शनि है। इसमे सूर्य, बुध, शनि का प्रभाव है। कन्या 150।00 से 153।20 अंश। नवमांश मकर। यह आयोजन तथा भौतिक सफलता का द्योतक है। जातक मृगनयनी, सुन्दर, लम्बा कद, वक्ता, दान का उपभोग करने वाला, धनवान, सहृदयी होता है।
जातक मिश्रित स्वभाव वाला, भारी नुकसान से पीड़ित, कन्या बहुल, नेक और धर्मत्मा, रहस्यवादी, वातावरण मे हमेशा परिवर्तन का इच्छुक, निर्धन, क्रूर, अनिर्णीत होता है।
कोई-कोई जातक छिद्रान्वेषी, अस्थिर, भिक्षुक, कृषि मे आंशिक सफल, दुश्चरित्र होते है। पुरुष जातक काश्य शिल्पकार, अहंकार रहित, गणितज्ञ, कोशिश और योग्यता से कमाने वाला, सामान्य धनी होता है।

तृतीय चरण – इसका स्वामी शनि है। इसमे सूर्य, बुध, शनि का प्रभाव है। कन्या 153।20 से156।40 अंश। नवमांश कुम्भ। यह बुद्धि, विश्व प्रेम या मानव प्रेम, गुलामी, सामाजिक जबाबदारियो का द्योतक है। जातक गोल मुख, सुन्दर नेत्र, लम्बोदर, मोटी जांघे, कोमल शरीर और वाणी, चंचल, जिंदादिल होता है।
जातक कृतघ्न, झगड़ालू, विनोदी, दिखावटी, वासना युक्त, स्वच्छ, महाज्ञानी होता है। यह कन्या सन्तति वाला, भाई बहनो से कटु सम्बन्ध वाला, कार्य करने मे चतुर, लालच रहित, धार्मिक साहित्य और धार्मिक लेखन मे रुचिवान तथा 40 वर्ष पश्चात इसी क्षेत्र मे प्रसिद्द होता है।

चतुर्थ चरण – इसका स्वामी गुरु है। इसमे सूर्य, बुध, गुरु का प्रभाव है। कन्या 156।40 से 160।00 अंश। नवमांश मीन। यह बुद्धि, विस्तृत क्षितिज, आध्यात्म, भौतिक सफलता का द्योतक है। जातक चौड़ी नाक, उभार युक्त रंध्र, खूबसूरत पैर, लम्बे हाथ व पैर, गौर वर्ण, उच्च स्वर, प्रत्यक्ष कांतिवान होता है।
जातक खुशहाली युक्त, ज्ञानी और पंडित, पुत्रवान सुस्वभावी, विनोदी, एहशान फरामोश, अपराधी, प्रभावी, धनाढ्य, लोभ-लालच रहित, अल्प लाभ पाने वाला होता है।

आचार्यो ने चरण फल सूत्र रूप में कहा है लेकिन अंतर बहुत है।

यवनाचार्य : उत्तरा फाल्गुनी के पहले चरण मे पण्डित, दूसरे मे राजा या जमींदार, तीसरे मे विजयी और सफल, चौथे में धार्मिक होता है।
मानसागराचार्य : उ. फा. प्रथम चरण मे निर्धन, दूसरे मे धन हीन, तीसरे मे पुत्र हीन, चौथे मे शत्रुहंता होता है।
: स्वस्थ रहने के साधारण उपाय
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1– 90 प्रतिशत रोग केवल पेट से होते हैं। पेट में कब्ज नहीं रहना चाहिए। अन्यथा रोगों की कभी कमी नहीं रहेगी।

2– कुल 13 अधारणीय वेग हैं !

3–160 रोग केवल मांसाहार से होते है !

4– 103 रोग भोजन के बाद जल पीने से होते हैं। भोजन के 1 घंटे बाद ही जल पीना चाहिये।

5– 80 रोग चाय पीने से होते हैं।

6– 48 रोग ऐलुमिनियम के बर्तन या कुकर के खाने से होते हैं।

7– शराब, कोल्डड्रिंक और चाय के सेवन से हृदय रोग होता है।

8– अण्डा खाने से हृदयरोग, पथरी और गुर्दे खराब होते हैं।

9– ठंडे जल (फ्रिज) और आइसक्रीम से बड़ी आंत सिकुड़ जाती है।

10– मैगी, गुटका, शराब, सूअर का माँस, पिज्जा, बर्गर, बीड़ी, सिगरेट, पेप्सी, कोक से बड़ी आंत सड़ती है।

11– भोजन के पश्चात् स्नान करने से पाचनशक्ति मन्द हो जाती है और शरीर कमजोर हो जाता है।

12– बाल रंगने वाले द्रव्यों (हेयरकलर) से आँखों को हानि (अंधापन भी) होती है।

13– दूध (चाय) के साथ नमक (नमकीन पदार्थ) खाने से चर्म रोग हो जाता है।

14– शैम्पू, कंडीशनर और विभिन्न प्रकार के तेलों से बाल पकने, झड़ने और दोमुहें होने लगते हैं।

15– गर्म जल से स्नान से शरीर की प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाती है और शरीर कमजोर हो जाता है। गर्म जल सिर पर डालने से आँखें कमजोर हो जाती हैं।

16– टाई बांधने से आँखों और मस्तिष्क को हानि पहुँचती है।

17– खड़े होकर जल पीने से घुटनों (जोड़ों) में पीड़ा होती है।

18– खड़े होकर मूत्र-त्याग करने से रीढ़ की हड्डी को हानि होती है।

19– भोजन पकाने के बाद उसमें नमक डालने से रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) बढ़ता है।

20– जोर लगाकर छींकने से कानों को क्षति पहुँचती है।

21– मुँह से साँस लेने पर आयु कम होती है।

22– पुस्तक पर अधिक झुकने से फेफड़े खराब हो जाते हैं और क्षय (टीबी) होने का भी डर रहता है।

23– चैत्र माह में नीम के पत्ते खाने से रक्त शुद्ध हो जाता है, मलेरिया नहीं होता है।

24– तुलसी के सेवन से मलेरिया नहीं होता है।

25– मूली प्रतिदिन खाने से व्यक्ति अनेक रोगों से मुक्त रहता है।

26– अनार आंव, संग्रहणी, पुरानी खांसी व हृदय रोगों के लिए सर्व श्रेष्ठ है।

27– हृदय-रोगी के लिए अर्जुन की छाल, लौकी का रस, तुलसी, पुदीना, मौसमी, सेंधा नमक, गुड़, चोकर-युक्त आटा, छिलके-युक्त अनाज औषधियां हैं।

28– भोजन के पश्चात् पान, गुड़ या सौंफ खाने से पाचन अच्छा होता है। अपच नहीं होता है।

29– अपक्व भोजन (जो आग पर न पकाया गया हो) से शरीर स्वस्थ रहता है और आयु दीर्घ होती है।

30– मुलहठी चूसने से कफ बाहर आता है और आवाज मधुर होती है।

31– जल सदैव ताजा (चापाकल, कुएं आदि का) पीना चाहिये, बोतलबंद (फ्रिज) पानी बासी और अनेक रोगों के कारण होते हैं।

32– नीबू गंदे पानी के रोग (यकृत, टाइफाइड, दस्त, पेट के रोग) तथा हैजा से बचाता है।

33– चोकर खाने से शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। इसलिए सदैव गेहूं मोटा ही पिसवाना चाहिए।

34– फल, मीठा और घी या तेल से बने पदार्थ खाकर तुरन्त जल नहीं पीना चाहिए।

35– भोजन पकने के 48 मिनट के अन्दर खा लेना चाहिए। उसके पश्चात् उसकी पोशकता कम होने लगती है। 12 घण्टे के बाद पशुओं के खाने लायक भी नहीं रहता है।

36– मिट्टी के बर्तन में भोजन पकाने से पोष्कता 100%, कांसे के बर्तन में 97%, पीतल के बर्तन में 93%, अल्युमिनियम के बर्तन और प्रेशर कुकर में 7-13% ही बचते हैं।

37– गेहूँ का आटा 15 दिनों पुराना और चना, ज्वार, बाजरा, मक्का का आटा 7 दिनों से अधिक पुराना नहीं प्रयोग करना चाहिए।

38– 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को मैदा (बिस्कुट, ब्रैड, समोसा आदि) कभी भी नहीं खिलाना चाहिए।

39– खाने के लिए सेंधा नमक सर्वश्रेष्ठ होता है उसके बाद काला नमक का स्थान आता है। सफेद नमक जहर के समान होता है।

40– जल जाने पर आलू का रस, हल्दी, शहद, घृतकुमारी में से कुछ भी लगाने पर जलन ठीक हो जाती है और फफोले नहीं पड़ते।

41– सरसों, तिल, मूंगफली या नारियल का तेल ही खाना चाहिए। देशी घी ही खाना चाहिए है। रिफाइंड तेल और वनस्पति घी (डालडा) जहर होता है।

42– पैर के अंगूठे के नाखूनों को सरसों तेल से भिगोने से आँखों की खुजली लाली और जलन ठीक हो जाती है।

43– पान खाने का चूना 70 रोगों को ठीक करता है।

44– चोट, सूजन, दर्द, घाव, फोड़ा होने पर उस पर 5-20 मिनट तक चुम्बक रखने से जल्दी ठीक होता है। हड्डी टूटने पर चुम्बक का प्रयोग करने से आधे से भी कम समय में ठीक होती है।

45– मीठे में मिश्री, गुड़, शहद, देशी (कच्ची) चीनी का प्रयोग करना चाहिए सफेद चीनी जहर होता है।

46– कुत्ता काटने पर हल्दी लगाना चाहिए।

47– बर्तन सदा मिटटी के ही प्रयोग करने चाहिए।

48– टूथपेस्ट और ब्रुश के स्थान पर दातुन और मंजन करना चाहिए दाँत मजबूत रहेंगे। (आँखों के रोग में दातुन नहीं करना)

49– यदि सम्भव हो तो सूर्यास्त के पश्चात् न तो पढ़े और लिखने का काम तो न ही करें तो अच्छा है।

50– निरोग रहने के लिए अच्छी नींद और अच्छा (ताजा) भोजन अत्यन्त आवश्यक है।

51– देर रात तक जागने से शरीर की प्रतिरोधक शक्ति कमजोर हो जाती है। भोजन का पाचन भी ठीक से नहीं हो पाता है आँखों के रोग भी होते हैं।

52– प्रातः का भोजन राजकुमार के समान, दोपहर का राजा और रात्रि का भिखारी के समान करना चाहिये ।

आशा है आप स्वयं अपने परिवार में भी इसे लागू करेंगे।
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🌻भारतीय ज्योतिष 🌻
ग्रहो का प्रभाव और उनका निर्धारण —

भारतीय आचार्यो ने ग्रहो से फल ज्ञात करने से पूर्व ग्रहो को सगुण रूप मे मान लिया ।सूर्य चन्द्र गुरू शुक। बुध और शनि को देवता के रूप मे माना और —
सूर्य –चन्द्रमा –राजा माना गया
मंगल –सेनापति
बुध —युवराज
गुरू -शुक —मंत्री
राहु -केतु —-सेना का प्रतिनिधित्व और शनि को भृत्य माना है ।
पांच तत्वो भी इनका सम्बन्ध जोड़ा गया है ।यह ग्रह हमारे शरीर का भी संचालन करते है ।जिससे हमारे शरीर पर भी इनका प्रभाव पडता है ।ग्रहो के द्वारा हमारे शरीर का संचालन होता है । सूर्य। –आंखो मे स्थित होकर देखने की शक्ति देता है ।आमाशय मे बैठकर पाचन क्रिया संचालित करता है ।
चन्द्रमा —प्रभाव क्षेत्र मन है।यह जल तत्व को संचारित करता है । मंगल –रक्त संचार की क्रिया संपादित करता है ।
बुध–जीव की बुद्धि तथा हृदय का नियंत्रक है । शुक्र–का निवास जीभ तथा जननेन्द्रिय पर है ।
शनिराहु और केतु -इन तीनो का नियंत्रण उदर की क्रिया संचालित करने मे रहता है । _शनि–प्राणवायु के स्नायु मंडल का स्वामी होता है । राहु–का स्थान नाभि से चार अंगुल नीचे है । जंहा पिंडलियो मै बैठकर चलने की शक्ति प्रदान करता है ।
केतु–का निवास पाचन तंत्र और पांव के तलवो मे होता है ।इस प्रकार यह पाचन शक्ति और चलने की शक्ति को नियंत्रित करता है ।

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ध्यान क्या है और क्यों जरूरी है

जैसे जैसे हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनाई देना बंद होती है वैसे वैसे हमारा स्वंय पर नियंत्रण नहीं रहता और हम सही गलत को पहचानना नहीं पाते| ऐसी स्थिति मैं हम खुद को नियंत्रित नहीं करते बल्कि परिस्थितियां हमें नियंत्रित करती है| हम वो करने लगते है जो आलस्य, डर, तनाव, लालच, क्रोध, घमंड और इर्ष्या हमसे करवाते है|

मैडिटेशन खुद पर नियंत्रित रखने एंव Self Realization की एक पद्धति है जो हमारी जिंदगी को आसान एंव खुशमय बनाता है| मैडिटेशन से हमारा आत्मविश्वास और Concentration बढ़ता है जिससे हमारा समस्याओं के प्रति नजरिया बदल जाता है| हम समस्याओं को रचनात्मक तरीकों से बड़ी आसानी हल कर पाते है जिससे तनाव कम होता है|

सभी महान लोगों ने यह माना है कि हमारी अंतरात्मा में एक अद्भुत शक्ति होती है | हम भी कभी कभी महसूस करते है कि शायद हमारी अंतरात्मा एक ईश्वरीय अंश है या फिर हमारी अंतरात्मा ईश्वर से हमेशा जुड़ी रहती है तभी तो वो हर परिस्थिति में सही होती है|

स्वामी विवेकानंद ने कहा है –

“आप ईश्वर में तब तक विश्वास नहीं कर पाएंगे जब तक आप अपने आप में विश्वास नहीं करते|”
इसलिए ईश्वर से जुड़ने से पहले हमें अपनी अंतरात्मा से जुड़ना होता है या यूं कहें कि जब हम अपनी अंतरात्मा से जुड़ जाते है तो उस अद्भुत ईश्वरीय शक्ति से स्वत: ही जुड़ जाते है और मैडिटेशन हमें अपनी अंतरात्मा से जोड़ता है|

लगातार रोज ध्यान करने पर हमें अद्भुत अनुभव होने लगते है जिसे शब्दों द्वारा नहीं बताया जा सकता| हमें उन सवालों के जवाब मिलने लगते है जो अभी तक अनसुलझे थे| हमें ऐसा लगता है जैसे हमारे साथ एक शक्ति है जो हमेशा हमारी मदद करेगी|

मन को शांत करने के लिए प्रयास करने की नहीं बल्कि प्रयास छोड़ने जरूरत होती है और यही ध्यान का उद्देश्य होता है|

मैडिटेशन मन की एक सहज अवस्था है जिससे हमारे भीतर का खालीपन दूर होता है| यह हमारी जिंदगी को बदल देता जिससे हम भौतिक वस्तुओं में खुशियाँ ढूँढना छोड़कर खुश रहना सीख जाते है| हमारे जीवन का हर पल खुशनुमा हो जाता है और हम वर्तमान में जीना सीख जाते है|

जब हमारा मन शांत एंव संतुष्ट होता है तो हमारा Concentration बढता है जिससे हम समस्याओं को बेहतर तरीके से हल कर पाते है और उन्ही समस्याओं में हमें संभावनाएं दिखने लगती है|

यह कहा जाता है कि ज्यादातर रोगों का कारण चिंता या तनाव (Stress) होता है| ध्यान के माध्यम से हम मन को सकारात्मक एंव तनावमुक्त बना सकते है जिससे की सकारात्मक उर्जा हमारे शरीर हमारे शरीर में प्रवेश करती है और हमारा शरीर स्वस्थ बनता है|

शोध में यह बात सामने आयी है कि Meditation और Healing Power कैंसर समेत कई रोगों में लाभकारी है और मैडिटेशन से कई तरह के रोगों को दूर किया जा सकता है क्योंकि ज्यादातर रोग Stress or Anxiety की वजह से होते है और मैडिटेशन Stress or Tension को दूर करता है|

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1 .अधिक क्रोध के लिये आँवले का मुरब्बा और गुलकंद

बहुत क्रोध आता हो तो सुबह आँवले का मुरब्बा एक नग प्रतिदिन खाएँ और शाम को गुलकंद एक चम्मच खाकर ऊपर से दूध पी लें . क्रोध आना शांत हो जाएगा .

2 .पेट में कीड़ों के लिये अजवायन और नमक

आधा ग्राम अजवायन चूर्ण में स्वादानुसार काला नमक मिलाकर रात्रि के समय रोजाना गर्म जल से देने से बच्चों के पेट के कीडे नष्ट होते हैं . बडों के लिये – चार भाग अजवायन के चूर्ण में एक भाग काला नमक मिलाना चाहिये और दो ग्राम की मात्रा में सोने से पहले गर्म पानी के साथ लेना चाहिये .

3
.घुटनों में दर्द के लिये अखरोट

सवेरे खाली पेट तीन या चार अखरोट की गिरियाँ खाने से घुटनों का दर्द मैं आराम हो जाता है .

4 .पेट में वायु – गैस के लिये मट्ठा और अजवायन –

पेट में वायु बनने की अवस्था में भोजन के बाद 125 ग्राम दही के मट्ठे में दो ग्राम अजवायन और आधा ग्राम काला नमक मिलाकर खाने से वायु – गैस मिटती है . एक से दो सप्ताह तक आवश्यकतानुसार दिन के भोजन के पश्चात लें .

5 .काले धब्बों के लिये नीबू और नारियल का तेल
चेहरे व कोहनी पर काले धब्बे दूर करने के लिये आधा चम्मच नारियल के तेल में आधे नीबू का रस निचोड़ें और त्वचा पर रगड़ें , फिर गुनगुने पानी से धो लें .

6 . शारीरिक दुर्बलता के लिये दूध और दालचीनी

दो ग्राम दालचीनी का चूर्ण सुबह शाम दूध के साथ लेने से शारीरिक दुर्बलता दूर होती है और शरीर स्वस्थ हो जाता है . दो ग्राम दालचीनी के स्थान पर एक ग्राम जायफल का चूर्ण भी लिया जा सकता है .

7 .मसूढ़ों की सूजन के लिये अजवायन
मसूढ़ों में सूजन होने पर अजवाइन के तेल की कुछ बूँदें पानी में मिलाकर कुल्ला करने से सूजन में आराम आ जाता है .

8 .हृदय रोग में आँवले का मुरब्बा

आँवले का मुरब्बा दिन में तीन बार सेवन करने से यह दिल की कमजोरी , धड़कन का असामान्य होना तथा दिल के रोग में अत्यंत लाभ होता है , साथ ही पित्त , ज्वर , उल्टी , जलन आदि में भी आराम मिलता है .

9 .सरसों का तेल केवल पाँच दिन –
रात में सोते समय दोनों नाक में दो दो बूँद सरसों का तेल पाँच दिनों तक लगातार डालें तो खाँसी – सर्दी और साँस की बीमारियाँ दूर हो जाएँगी . सर्दियों में नाक बंद हो जाने के दुख से मुक्ति मिलेगी और शरीर में हल्कापन मालूम होगा .

10 .अजवायन का साप्ताहिक प्रयोग –

सुबह खाली पेट सप्ताह में एक बार एक चाय का चम्मच अजवायन मुँह में रखें और पानी से निगल लें . चबाएँ नहीं . यह सर्दी , खाँसी , जुकाम , बदनदर्द , कमर – दर्द , पेटदर्द , कब्जियत और घुटनों के दर्द से दूर रखेगा . 10 साल नीचे के से बच्चों को आधा चम्मच 2 से 10 ग्राम और से ऊपर सभी को एक चम्मच यानी 5 ग्राम लेना चाहिए

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अच्छे स्वास्थ्य के लिए प्रातः के समय प्रतिदिन मल विसर्जन अनिवार्य है।

हालांकि जीवन शैली को आयुर्वेद के नियमानुसार ढालने पर आंतें स्वतः ही प्रातः के समय मल विसर्जन के लिए अनुकूल हो जाती हैं, फिर भी आरम्भ में कोष्ठबद्धता (कब्ज) को दूर करने के लिए आप कुछ अन्य उपाय भी कर सकते हैं।

पेट की स्वस्थ क्रिया प्रणाली के लिए दिन की सही शुरुआत परम आवश्यक है| प्रातः सूर्य उग जाने के बाद मल निष्कासन का कार्य धीमा होने लगता है। ब्रह्ममुहूर्त से लेकर सूर्योदय तक शरीर मल को बाहर निकालने का कार्य अधिक सुगमता से करता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रातः पांच बजे से सात बजे तक रक्त का प्रवाह बड़ी आंत में सबसे अधिक होता है जो मल विसर्जन के लिए सबसे अधिक अनुकूल है। अतः इस समय का लाभ उठाने के लिए सूर्योदय से पूर्व ही उठें। रात्रि में अधिकतम १० बजे तक सोना भी इसी बात से जुडा हुआ है। प्रातः उठते ही सर्वप्रथम गुनगुना पानी पियें, 18 से कम एवं 60 वर्ष से अधिक आयु के सभी व्यक्ति 750 ml पानी पियें, 18 से 60 वर्ष के व्यक्ति एक से सवा लीटर पानी पियें, बैठ कर (चौकड़ी मारकर) पानी पियें, बिना मंजन/ब्रश करे पानी पियें तथा हर घूँट को 10 से 20 सेकेण्ड मुख में रखकर कुल्ला करने की भाँति घुमा घुमाकर पियें। यदि आप की प्रातः के समय पानी पीने की आदत नहीं है तो एक ग्लास पानी पीने से ही आरम्भ कर दें। इसके पश्चात ग्रीवा-कटि व्यायाम करें (देखें पोस्ट )। ध्यान रहे इस व्यायाम क्रम में पहले कटि और फिर गर्दन के व्यायाम करें क्यूंकि यह क्रम मल विसर्जन के लिए आँतों को अधिक सक्रिय करता है। इतना करने पर भी यदि मल विसर्जन की इच्छा न हो तो स्नान के बाद की तैयारियों में लग जाएँ (कपडे आदि तैयार करना) चाहें तो कुछ देर घूम भी सकते हैं। परन्तु स्नान करने में कुछ विलम्भ करें क्यूंकि स्नान कर लेने पर मल विसर्जन का वेग लगभग समाप्त हो जाता है। फिर भी मल विसर्जन के लिए वेग न बने तो स्नान कर लें और अन्य दैनिक कार्यों में लग जाएँ परन्तु शौचालय में जाकर जोर न लगायें क्यूंकि ऐसा करने से बवासीर रोग होने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं और मल विसर्जन के लिए आंतो की स्वभाविक शक्ति क्षीण होती है। दिन में अन्य किसी समय मल विसर्जन की इच्छा होने पर मल त्याग करें। इस प्रकार करने से सामान्यतः एक सप्ताह के भीतर ही प्रातः के समय आंतें मल विसर्जन के लिए अनुकूल हो जाती हैं। प्रतिदिन ऐसा करने पर पानी पीते समय, ग्रीवा-कटि व्यायाम करते समय या व्यायाम के पश्चात या पानी पीने से पूर्व, जिस भी समय मल विसर्जन की इच्छा हो, उस कार्य को बीच में छोड़कर पहले मल विसर्जन के लिए जाएँ। पश्चिमी शैली की शौचालय सीट पर शौच करने के लिए अनुकूल स्थिति नहीं बन पाती। भारतीय शैली की शौचालय सीट पर ही मल विसर्जन के लिए अनुकूल स्थिति बनती है क्यूंकि इस स्थिति में पेट पर उचित दबाव पड़ता है।

आँतों की मल विसर्जन की स्वभाविक शक्ति बढाने एवं पाचन तंत्र को सुदृढ़ करने के लिए अग्निसार एवं उड्डयान बंध का अभ्यास करें। ध्यान रहे, इन दोनों अभ्यास (अग्निसार, उड्डयान बंध) के लिए पहले मल विसर्जन अनिवार्य है। अतः जब तक प्रातः के समय आंतें स्वतः ही (प्रातः के नियमों द्वारा) साफ़ होना आरम्भ न हो जाए तब तक त्रिफला चूर्ण या इसबगोल की भूसी या दूध में घी लेना पड़ेगा। तत्पश्चात आयुर्वेद के नियम एवं व्यायाम पर्याप्त हैं।

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वाराणसी – एक यंत्र है, यह एक असाधारण यंत्र है।

ऐसा यंत्र इससे पहले या फिर इसके बाद कभी नहीं बना।
इसे केवल एक नगर समझने का भूल न करना।

मानव शरीर में जैसे नाभी का स्थान है, वैसे ही पृथ्वी पर वाराणसी का स्थान है।
शरीर के प्रत्येक अंग का संबंध नाभी से जुड़ा है और पृथ्वी के समस्त स्थान का संबंध भी वाराणसी से जुड़ा है।

इस यंत्र का निर्माण एक ऐसे विशाल और भव्य मानव शरीर को बनाने के लिए किया गया, जिसमें भौतिकता को अपने साथ लेकर चलने की मजबूरी न हो, शरीर को साथ लेकर चलने से आने वाली जड़ता न हो और जो हमेशा सक्रिय रह सके… और जो सारी आध्यात्मिक प्रक्रिया को अपने आप में समा ले।

काशी की रचना सौरमंडल की तरह की गई है, क्योंकि हमारा सौरमंडल कुम्हार के चाक की तरह है।

आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।

इसमें एक खास तरीके से मंथन हो रहा है। यह घड़ा यानी मानव शरीर इसी मंथन से निकल कर आया है, इसलिए मानव शरीर सौरमंडल से जुड़ा हुआ है और ऐसा ही मंथन इस मानव शरीर में भी चल रहा है।

सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सूर्य के व्यास से 108 गुनी है। आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।

अगर आप इन 108 चक्रों को विकसित कर लेंगे, तो बाकी के चार चक्र अपने आप ही विकसित हो जाएंगे।

हम उन चक्रों पर काम नहीं करते। शरीर के 108 चक्रों को सक्रिय बनाने के लिए 108 तरह की योग प्रणालियां है।

पूरे काशी यनी बनारस शहर की रचना इसी तरह की गई थी। यह पांच तत्वों से बना है, और आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि शिव के योगी और भूतेश्वर होने से, उनका विशेष अंक पांच है।

इसलिए इस स्थान की परिधि पांच कोश है। इसी तरह से उन्होंने सकेंद्रित कई सतहें बनाईं।

यह आपको काशी की मूलभूत ज्यामिति बनावट दिखाता है।

गंगा के किनारे यह शुरू होता है, और ये सकेंद्रित वृत परिक्रमा की व्याख्यां दिखा रहे हैं।

सबसे बाहरी परिक्रमा की माप 168 मील है।

यह शहर इसी तरह बना है और विश्वनाथ मंदिर इसी का एक छोटा सा रूप है।

असली मंदिर की बनावट ऐसी ही है। यह बेहद जटिल है। इसका मूल रूप तो अब रहा ही नहीं।

वाराणसी को मानव शरीर की तरह बनाया गया थायहां 72 हजार शक्ति स्थलों यानी मंदिरों का निर्माण किया गया।

एक इंसान के शरीर में नाडिय़ों की संख्या भी इतनी ही होती है। इसलिए उन लोगों ने मंदिर बनाये, और आस-पास काफी सारे कोने बनाये – जिससे कि वे सब जुड़कर 72,000 हो जाएं।

यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं – इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए

तो यह नाडिय़ों की संख्या के बराबर है।

यह पूरी प्रक्रिया एक विशाल मानव शरीर के निर्माण की तरह थी।

इस विशाल मानव शरीर का निर्माण ब्रह्मांड से संपर्क करने के लिए किया गया था

इस शहर के निर्माण की पूरी प्रक्रिया ऐसी है, मानो एक विशाल इंसानी शरीर एक वृहत ब्रह्मांडीय शरीर के संपर्क में आ रहा हो।

काशी बनावट की दृष्टि से सूक्ष्म और व्यापक जगत के मिलन का एक शानदार प्रदर्शन है

कुल मिलाकर, एक शहर के रूप में एक यंत्र की रचना की गई है

रोशनी का एक दुर्ग बनाने के लिए, और ब्रह्मांड की संरचना से संपर्क के लिए, यहां एक सूक्ष्म ब्रह्मांड की रचना की गई।

ब्रह्मांड और इस काशी रुपी सूक्ष्म ब्रह्मांड इन दोनों चीजों को आपस में जोडऩे के लिए 468 मंदिरों की स्थापना की गई।

मूल मंदिरों में 54 शिव के हैं, और 54 शक्ति या देवी के हैं। अगर मानव शरीर को भी हम देंखे, तो उसमें आधा हिस्सा पिंगला है और आधा हिस्सा इड़ा

दायां भाग पुरुष का है और बायां भाग नारी का। यही वजह है कि शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में भी दर्शाया जाता है – आधा हिस्सा नारी का और आधा पुरुष का।

यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं – इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए।

आपके स्थूल शरीर का 72 फीसदी हिस्सा पानी है, 12 फीसदी पृथ्वी है, 6 फीसदी वायु है और 4 फीसदी अग्नि। बाकी का 6 फीसदी आकाश है

सभी योगिक प्रक्रियाओं का जन्म एक खास विज्ञान से हुआ है, जिसे भूत शुद्धि कहते हैं

इसका अर्थ है अपने भीतर मौजूद तत्वों को शुद्ध करना।

अगर आप अपने मूल तत्वों पर कुछ अधिकार हासिल कर लें, तो अचानक से आपके साथ अद्भुत चीजें घटित होने लगेंगी।

मैं आपको हजारों ऐसे लोग दिखा सकता हूं, जिन्होंने बस कुछ साधारण भूतशुद्धि प्रक्रियाएं करते हुए अपनी बीमारियों से मुक्ति पाई है।

इसलिए इसके आधार पर इन मंदिरों का निर्माण किया गया। इस तरह भूत शुद्धि के आधार पर इस शहर की रचना हुई।

यहां एक के बाद एक 468 मंदिरों में सप्तऋषि पूजा हुआ करती थी और इससे इतनी जबर्दस्त ऊर्जा पैदा होती थी, कि हर कोई इस जगह आने की इच्छा रखता था

भारत में जन्मे हर व्यक्ति का एक ही सपना होता था – काशी जाने का।

यह जगह सिर्फ आध्यात्मिकता का ही नहीं, बल्कि संगीत, कला और शिल्प के अलावा व्यापार और शिक्षा का केंद्र भी बना।

इस देश के महानतम ज्ञानी काशी के हैं। शहर ने देश को कई प्रखर बुद्धि और ज्ञान के धनी लोग दिए हैं।

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, ‘पश्चिमी और आधुनिक विज्ञान भारतीय गणित के आधार के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता था।’ यह गणित बनारस से ही आया।

इस गणित का आधार यहां है। जिस तरीके से इस शहर रूपी यंत्र का निर्माण किया गया, वह बहुत सटीक था।

ज्यामितीय बनावट और गणित की दृष्टि से यह अपने आप में इतना संपूर्ण है, कि हर व्यक्ति इस शहर में आना चाहता था। क्योंकि यह शहर अपने अन्दर अद्भुत ऊर्जा पैदा करता था।

वाराणसी का इतिहास

यह हमारी बदकिस्मती है कि हम उस समय नहीं थे जब काशी का गौरव काल था। हजारों सालों से दुनिया भर से लोग यहां आते रहे हैं। गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश यहीं दिया था।

गौतम के बाद आने वाले चीनी यात्री ने कहा, ‘नालंदा विश्वविद्यालय काशी से निकलने वाली ज्ञान की एक छोटी सी बूंद है।’ और नालंदा विश्वविद्यालय को अब भी शिक्षा का सबसे महान स्थान माना जाता है।

आज भी यह कहा जाता है कि ‘काशी जमीन पर नहीं है। वह शिव के त्रिशूल के ऊपर है।’ लोगों ने एक भौतिक संरचना बनाई, जिसने एक ऊर्जा संरचना को उत्पन्न किया

नमःपार्वति पतये हरहर महादेव काशी विश्वनाथ गंगे

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फल खाने के विशेष नियम

अकसर कई लोग खाने के तुरंत बाद फलो का सेवन करना पसंद करते है जो की पूर्णतः गलत है। फलो को गलत समय खाने से फलो को खाने से होने वाले लाभ की जगह, शरीर में अपचन, Acidity और कब्ज इत्यादि समस्या निर्माण हो जाती है।

फलो का 100% लाभ लेने के लिए फलो के खाने के कुछ नियम पालना बेहद जरुरी है। फलो को खाने का सही तरीका निचे दिया गया है :

  1. फलो का सबसे ज्यादा लाभ उन्हें खाली पेट खाए जाने पर ही मिलता है। फल खाने के 30 मिनिट बाद तक कुछ न खाए। अपने खाने के कम से कम 2 से 2.30 घंटे बाद ही कोई फल खाना चाहिए। खाना पचने को 2 से 2.30 घंटे का समय लगता है और इतने समय में फल खाने पर फल पेट में सड़ने लगता है। इस वजह से अपचन और अम्लपित्त / Acidity बढ़ने का खतरा रहता है।
  2. फल खाते समय कुछ और नहीं खाना चाहिए। फलो को अकेले खाना ही सबसे बेहतर उपाय है। फल खाने पर उसकी पाचन प्रक्रिया जल्द शुरू हो जाती है। फल में उपलब्ध शर्करा और fiber का पाचन जल्द हो जाता है। अगर फल के साथ हम कुछ और खाते है जिसे पचने में समय लगता है तो फिर फल भी उनके साथ आमाशय में पड़ा रहने के कारन सड़ने लगता है। इसलिए अकसर आपने अनुभव किया होगा कि फल के साथ कुछ और भारी आहार लेने पर अपचन या अम्लपित्त होकर पेट फूलना, डकार आना जैसी समस्या निर्माण हो जाती है।
  3. खाना खाने के 1 घंटा पहले या खाना खाने के 2 से 2.30 घंटे बाद ही कोई फल खाना चाहिए। सुबह नाश्ते के समय फल खाना सबसे बेहतर उपाय है।
  4. Processed, Canned या Cooked fruit / फल की जगह स्वच्छ और ताजे फल खाना चाहिए।
  5. ज्यादातर फलो का पोषक तत्व उनके छिलको में ही होता है। इसलिए सेब, चीकू जैसे फल खाते समय उन्हें स्वच्छ पानी से साफ़ कर छिलको के साथ ही खाना चाहिए।
  6. कुछ लोगो का यह मानना है कि, फल खाने के लिए कोई नियम पालने की कोई जरुरत नहीं होती है क्योंकि फल एक श्रेष्ट आहार पदार्थ है जिसका सेवन हम कभी भी कर सकते है। अगर हम तुलना करे तो पता चलता है कि, खाना खाने के 1 घंटा पहले या खाना खाने के 2 से 2.30 घंटे बाद फल खाने से होनेवाले लाभ खाना खाने के बाद फल खाने से होनेवाले लाभ से कई ज्यादा है।
  7. फलो का पाचन आमाशय में न होकर हमारे आंत / intestine में होता है। यह पाचन प्रक्रिया तुरंत आधे घंटे में हो जाती है।
  8. योग्य मात्रा में और सही तरीके से फलाहार लेने से शरीर को तुरंत ऊर्जा और पोषण मिल जाता है। फलाहार सही तरीके से लेने से हमारी पाचन संस्था अच्छी रहती है और भूक भी काबू में रहती है जो की हमारे वजन को नियंत्रण में रखने के लिए बेहद जरुरी है।
  9. हफ्ते में एक दिन एक समय के खाने में केवल फलाहार लेने वालो को वजन नियंत्रण रखने में या वजन कम / weight loss करने में सफलता मिलती है।

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टमाटर करेगा कई रोगों का उपचार, जानिए क्यों ये है हेल्थ के लिए वरदान

1 टमाटर में भरपूर मात्रा में कैल्शियम, फास्फोरस और विटामिन सी पाया जाता है। एसिडिटी की समस्या होने पर टमाटरों की खुराक बढ़ाने से इस समस्या से निजात मिलता है।

2 टमाटर में काफी मात्रा में विटामिन ‘ए’ पाया जाता है, जो हमारी आंखों के लिए बहुत फायदेमंद होता है।

3 टमाटर खाने से पाचन शक्ति बढ़ती है और गैस की समसा भी दूर होती है।

4 डॉक्टरो के अनुसार टमाटर के नियमित सेवन से श्वास नली बिल्कुल साफ रहती है और खांसी, बलगम की शिकायत खत्म होती है। 

5 बच्चों को सूखा रोग होने पर टमाटर का रस पिलाने से फायदा होता है। साथ ही ये उनके तेजी से विकास में भी मदद करता है।

6 गर्भवती महिलाओं के लिए भी सुबह एक गिलास टमाटर के रस का सेवन फायदेमंद होता है।

7 डाइबिटीज व दिल के मरिजों की सेहत के लिए टमाटर बहुत उपयोगी होता है।

8 अगर पेट में कीड़े होने की शिकायक हो, तो सुबह खाली पेट टमाटर में पिसी हुई काली मिर्च लगाकर खाने से कीड़े मर कर निकल जाते हैं। आप चाहे तो काली मिर्च डले हुए टमाटर का सूप पी सकते हैं।

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: कब्ज को दूर कर पेट हल्का करना है? तो ये 12 उपाय आजमाएं

  1. कब्ज होने के कारण में गलत खानपान, ठीक समय पर शौच न जाना, व्यायाम न करना और शारीरिक काम न होना शामिल हैं।
  2. इस समस्या से निजात पाने के लिए आप चोकर समेत आटे की रोटी खाएं और मीठा दूध पियें।
  3. शकर-गुड़ प्राय: पेट साफ रखते हैं, इसलीए खाने के बाद इसका सेवन करें। 
  4. सब्जियों में पत्ती समेत मूली, काली तोरई, घीया, बैंगन, गाजर, परवल, पपीता, टमाटर आदि खाएं।
  5. दालों का सेवन छिल्के समेत ही करें।
  6. अगर दवा की जरूरत हो तो थोड़ा-सा खाने का सोडा पानी में घोलकर पी जाएं तो पेट हल्का रहेगा और शौच भी।
  7. इमली में गुड़ डालकर मीठी चटनी बनाएं और इसका सेवन करें। इससे पेट साफ रहेगा।
  8. भोजन के साथ सलाद में नमक डले टमाटर जरूर लें। नमक भी पेट साफ रखता है। कभी-कभी थोड़ा-सा पंचसकार चूर्ण भी ले लें।
  9. भोजन के बाद सौंफ-मिस्री चबाने से भी पेट ठीक रहता है।
  10. आधिक कब्ज होने पर त्रिफला, अभयारिष्ट बहुत अच्‍छे विकल्प है। इनसे पेट हल्का हो जाता है।
  11. रात को सोने से पहले गुनगुना दूध पी कर सोएं।
  12. अमरूद, पका हुआ केला, बेर, परवल, बैंगन, पपीता, अंगूर, अंजीर, आलू बुखारा, मुनक्का, आडू, उन्नाभ आदि का सेवन करें, कब्ज दूर रहेगा।

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जन्म वार व जन्म तारिख से जाने जातक के लक्षण।

रविवार: यह सूर्य का वार है। सर्वप्रथम इसका नंबर एक है। जिसका जन्म 1, 10, 19 और 28 तारीख में हो तो उस जातक पर सूर्य का प्रभाव रहेगा। सूर्य ग्रहों का राजा है और आत्मा का कारक है। इस वार को जन्मे जातक का सिर गोल, चैकोर, नाटे और मोटे शरीर वाला, शहद के समान मटमैली आंखें, पूर्व दिशा का स्वामी होने के कारण, इसे पूर्व में शुभ लाभ मिलते हैं। सूर्य के इन जातकों का 22-24वें वर्ष में भाग्योदय होता है। सूर्य मेष राशि में उच्च का और तुला राशि में नीच का होता है। इन जातकों की प्रकृति पितृ प्रधान है। दिल का दौरा, फेफड़ों में सूजन, पेट संबंधी बीमारियां हो सकती हैं। चेहरे में गाल के ऊपर दोनों हड्डियां उभरी हुई होती हैं। जब सूर्य 00 से 10 अंश तक हो तो अपना प्रभाव देता है क्योंकि यह ग्रहों का राजा है इसलिए इन जातकों में राजा के समान गुण होने के कारण पल में प्रसन्न और पल में रुष्ट होने की आदत होती है, ये जातक शक्की स्वभाव के होते हैं। गंभीर वाणी, निर्मल दृष्टि और रक्त श्याम वर्ण इनका स्वरूप होता है। गांठ के पक्के और प्रतिशोध लेने की भावना तीव्र होती है।

सोमवार: यह चंद्रमा का वार है,इसका अंक दो अर्थात् जिन जातकों का जन्म सोमवार 2, 11, 20, 29 तारीखों में हो तो चंद्रमा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा गया है ‘स्वज्ञं प्राज्ञौः गौरश्चपलः, कफ वातिको रुधिसार, मृदुवाणी प्रिय सरवस्तनु, वृतश्चचंद्रमाः हाशुः।। अर्थात् सुंदर नेत्र वाला, बुद्धिमान, गौर वर्ण, चंचल स्वभाव, चंचल प्रकृति, कफ, वात प्रकृति प्रधान, मधुरभाषी, मित्रों का प्रिय, होता है। ऐसा जातक हर समय अपने आप को सजाने में रहता है चंद्रमा मन का कारक है। 24 से 25 वर्ष में यह अपना प्रभाव पाता है। रक्त और मुख के आस-पास इसका अधिकार रहता है। ऐसे जातक के केश घने, काले, चिकने और घुंघराले होते हैं। सोच समझकर बात करते हैं। परिस्थतियों को मापने की इनमें क्षमता होती है। ये भावुक भी होते हैं। बात-चीत करने में कुशल और विरोधी को अपने पक्ष में करने की इनमें क्षमता होती है। इस दिन जन्मी स्त्रियां प्यार में धोखा खाती हैं। ये जातक कल्पना में अधिक रहते हैं। ये प्रेमी, लेखक, शौकीन, पतली वाणी वाले होते हैं। वात् और कफ प्रकृति के कारण जीवन के अंतिम दिनों में फेफड़ों की परेशानी, हार्ट की बीमारियां संभव हैं। चर्म और रक्त संबंधी बीमारियां अक्सर होती रहती हैं।

मंगलवार: यह हनुमान जी का वार है इसका नंबर नौ है। 9, 19, 27 तरीख को जन्मे जातक का स्वामी मंगल ग्रह है इस दिन जन्मे जातक का सांवला रंग, घुंघराले बाल, लंबी गर्दन, वीर, साहसी, खिलाड़ी, भू-माफिया पुलिस के अधिकारी, सेनाध्यक्ष स्वार्थी होते हैं। इनकी आंखों में हल्का-हल्का पीलापन और आंखों के चारों ओर हल्की सी कालिमा या छाई रहती है। इनका चेहरा तांबे के समान चमकीला होता है। प्रत्येक कार्य करने से पहले हित-अहित का विचार कर लेते हैं। यदि मंगल उच्च का अर्थात मकर राशि का हो तो जातक डाक्टर, ठेकेदार, खेती का व्यापार करने वाला होता है। यदि मंगल अकारक हो तो जातक चोर, डाकू भी हो सकते हैं। मंगल दक्षिण दिशा का स्वामी होता है। ऐसा जातक किसी पर विश्वास नहीं करता। शर्क प्रधान प्रकृति है यहां तक मां-बाप, पति-पत्नी और संतान पर भी शक करता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में यह जातक विचलित नहीं होता। राजनीतिक क्षेत्र में अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा कार्य कर सकता है। एक बार जो काम हाथ में ले ले उसे पूरा करके छोड़ता है। बहुत साहसी, खतरों की जिंदगी में इन्हें आनंद मिलता है। शत्रुओं से लड़ना इनका स्वभाव होता है। मज्जा और मुख के आस-पास इसका अधिकार क्षेत्र है। 28 से 32वें वर्ष में यह फल देता है। महिलायें चिड़चिड़ी और कटुभाषी होती हैं। रक्त एवं चर्म रोग से ग्रस्त रहते हैं।

बुधवार: गणेश जी इसके स्वामी हैं। इसका अंक पांच है जो जातक 5, 14, 23 तारीखों में जन्मा हो वह जातक ठिगना, सामान्य रंग, फुर्तीला, बहुत बोलने वाला, दुर्बल शरीर, छोटी आंखें, क्रूर दृष्टि, पि प्रकृति, चंचल स्वभाव द्विअर्थक बात करने वाला, हास्य प्रिय, शरीर के मध्य भाग में संदा दुर्बल, उर दिशा का स्वामी, माता-पिता से प्रेम करने वाला, चित्रकार, 8वें और 22वें वर्ष में अरिष्ट 32वें वर्ष में भाग्योदय, त्वचा और नाभि के निकट स्थल पर अधिकार, वाणी, वात-पि का कारक होता है। यह जातक अधिकतर बैंकर्स, दलाल, संपादक, इस जातक को देश, काल और पात्र की पहचान होती है। वातावरण के अनुकूल बातचीत करने में होशियार होते हैं। बुध ग्रह जिस जातक का कारकत्व होता है उसका रंग गोरा, आंखें सुंदर और त्वचा सुंदर और मजबूत होती है, ये अच्छे गुप्तचर या राजदूत बन सकते हैं। यह जातक स्पष्ट वक्ता होता है और मुंह पर खरी-खरी कहता है और इस प्रकार से बात करता है कि दूसरे को बुरा न लगे। सफाई प्रिय होता है कफ-पि-वात प्रकृति प्रधान होने से बाल्यावस्था में जीर्ण ज्वर से पीड़ित रहता है। वृद्धावस्था में अनेक रोगों से पीड़ित रहता है। यौवनावस्था में प्रसन्नचि रहता है। सफल व्यापारी के इसमें गुण होते हैं। अनेक रंगों का शौकीन होता है। हरा रंग इसे प्रिय होता है और वह शुभ भी होता है। ज्योतिष या ग्रह नक्षत्रों का ज्ञान, गणितज्ञ, पुरोहित का कार्य करना, लेखाधिकारी। इस वार में जन्मी महिलाएं शीघ्र रूठने वाली, चुगली, निंदा करने वाली और पति से इनकी अनबन रहती है।

गुरुवार: यह समस्त देवताओं का गुरु है। इसका अंक तीन है अर्थात् 3, 12, 21, 30 तारीखों में जन्मे जातक स्वस्थ शरीर, लंबा कद, घुंघराले बाल, तीखी नाक, बड़ा शरीर, ऊंची आवाज, शहद के समान नेत्र वाले ऐसे जातक सच्चे मित्रों के प्रेमी, कानून जानने वाले अधिकारी, जज, खाद्य सामग्री के व्यापारी, नेता अभिनेता भी होते हैं। ऐसे जातक बोलते समय शब्दों का चयन सावधानी पूर्वक करते हैं। आंखों से झांकने की ऐसी प्रवृ होती है कि मानो समस्त संसार की शांति और करुणा इसमें आकर भर गई हो, जीव हिंसा और पाप कर्म से बचते हैं। महिलाएं चरित्रवान, पति की सेविका, पति को वश में रखने वाली सद्गुणी, कुशल अध्यापिकाएं होती हैं। पुजारी, आश्रम चलाना, सरकारी, नौकरी, पुराण, शास्त्र वेदादि, नीतिशास्त्र, धर्मोपदेश से ब्याज पर धन देने से जीविका होती है। ऐसे जातक शत्रु से भी बातचीत करने में नम्रता रखते हैं। चर्बी-नाक के मध्य अधिकर क्षेत्र है। 16-22 या 40वें वर्ष में सफलता मिलती है। उर-पूर्व (ईशान) इस ग्रह का स्वामी है कर्क राशि में यह ग्रह उच्च का होता है। पीला रंग इनके लिए शुभ होता है। यह एक राशि में एक वर्ष रहता है। यह 11 अंश से 20 अंश में अपने फल देता है, 7, 12, 13, 16 और 30 वर्ष की आयु में कष्ट पाता है। दीर्घ आयु कारक है। यह गुल्म और सूजन वाले रोग भी देता है। चर्बी और कफ की वृद्धि करता है। नेतृत्व की शक्ति इसमें स्वाभाविक रूप से होती है।

शुक्रवार: यह लक्ष्मी का वार है। इसका अंक छः है अर्थात् 6, 15, 24 तारीखों में जन्म लेने वाले जातक पर शुक्र ग्रह का प्रभाव होता है। इस दिन जन्मे जातकों का सिर बड़ा, बाल घुंघराले, शरीर पतला, दुबला, नेत्र बड़े, रंग गोरा, लंबी भुजाएं, शौकीन, विनोदी, चित्रकलाएं, चतुर, मिठाई फिल्ममेकर, आभूषण विक्रेता होते हैं। शुक्र तीक्ष्ण बुद्धि, उभरा हुआ वक्षस्थल और कांतिमान चेहरा होता है। वीर्य प्रधान ऐसा व्यक्ति स्त्रियों में बहुत प्रिय होता है। यह जातक मुस्कुराहट बिखेरने वाला सर्वदा प्रसन्नचित रहने वाला होता है। शुक्र ग्रह स्त्री कारक होता है और नवग्रहों में सबसे अधिक प्रिय होता है। ऐसे जातक कामुक और शंगार प्रिय होते हैं, इस दिन जन्मा जातक विपरीत लिंग को आकर्षित करता है। ऐसे व्यक्ति सफल होते हैं, विपक्षी को किस प्रकार से सम्मोहित करना चाहिए आदि गुण इनमें जन्मजात होते हैं। मित्रों की संख्या बहुत होती है और मित्रों में लोकप्रिय होते हैं। वात-कफ प्रधान इनकी प्रकृति है और वृद्धावस्था में जोड़ों में दर्द और हड्डियां में पीड़ा होती है। प्रेम के बदले प्रेम चाहते हैं। नृत्य संगीत में रुचि रखते हैं। आग्नेय दिशा का स्वामी है।

शनिवार: शनि को काल पुरुष का दास कहा गया है। इसका अंक आठ है। दिनांक 8, 17, 26 को जन्मे जातकों का स्वामी शनि है। यह अपने पिता सूर्य का शत्रु है। तुला में शनि उच्च का होता है तथा 21 अंश से 30 अंश तक अपना फल शुभ-अशुभ देता है, इस दिन जन्मा जातक सांवला रंग नसें उभरी हुई, चुगलखोर, लंबी गर्दन, लंबी नाक, जिद्दी, कर्कश आवाज, घोर मेहनती, मोटे नाखून, छोटे बाल, आलसी, अधिक सोने (नींद) वाला, गंदी राजनीति वाला होता है छोटी आयु में कष्ट पाने वाला, दूसरों की भलाई से प्रसन्न न होने वाला, परिवार का शत्रु, 20-25-45वें वर्ष में कष्ट भोगने वाला, स्नायु (नसंे) पेट पर अधिकार 36-42वें वर्ष में शुभ या अशुभ प्रभाव, निर्दयी, दूसरों को विप में डालने वाला और इन्हें परेशान करने में आनंद आता है, शिक्षण काल में काफी रुकावटें, अपशब्द कहने में प्रसन्नता मिलती है। महिलाएं कटुभाषी, पति से नित्य तकरार करने वाली, दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं होता, शुद्धता का ध्यान कम होता है। स्वभाव, क्रोधी, आर्थिक मामलों में यह सामान्य होता है। लोहा आदि या काले रंग के उद्योगों में सफलता मिलती है, वायु प्रधान, मूर्ख, तमोगुणी, आयु से अधिक दिखने वाला, कबाड़ी का काम, कुर्सी बुनना, मजदूरी करना, पति-पत्नी के विचारों में मतभेद। यह तुला राशि में उच्च और मेष राशि में नीच का होता है। 21 अंश से 30 अंश में इस जातक के जीवन पर प्रभाव डालता है। दांत का दर्द, नाक संबंधी तकलीफें, लकवा, नामर्दी, कुष्ठ रोग, कैंसर, दमा, गंजापन रोग संभव हो सकते हैं। इन जातकों को पश्चिम दिशा में लाभ मिल सकता है।
[28/07, 16:40] Daddy: वेदों में नारी
वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं| वेदों में स्त्रियों की शिक्षा- दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो सुन्दर वर्णन पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं है| वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं|
वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय| वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख – समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं|
वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है – उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है| वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी| जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी| कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं|
अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि |
तथापि, जिन्होनें वेदों के दर्शन भी नहीं किए, ऐसे कुछ रीढ़ की हड्डी विहीन बुद्धिवादियों ने इस देश की सभ्यता, संस्कृति को नष्ट – भ्रष्ट करने का जो अभियान चला रखा है – उसके तहत वेदों में नारी की अवमानना का ढ़ोल पीटते रहते हैं |
आइए, वेदों में नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें –
अथर्ववेद ११.५.१८
ब्रह्मचर्य सूक्त के इस मंत्र में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है | यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है |
कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें |
अथर्ववेद १४.१.६
माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धीमत्ता और विद्याबल का उपहार दें | वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें |
जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे |
अथर्ववेद १४.१.२०
हे पत्नी ! हमें ज्ञान का उपदेश कर |
वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे |
अथर्ववेद ७.४६.३
पति को संपत्ति कमाने के तरीके बता |
संतानों को पालने वाली, निश्चित ज्ञान वाली, सह्त्रों स्तुति वाली और चारों ओर प्रभाव डालने वाली स्त्री, तुम ऐश्वर्य पाती हो | हे सुयोग्य पति की पत्नी, अपने पति को संपत्ति के लिए आगे बढ़ाओ |
अथर्ववेद ७.४७.१
हे स्त्री ! तुम सभी कर्मों को जानती हो |
हे स्त्री ! तुम हमें ऐश्वर्य और समृद्धि दो |
अथर्ववेद ७.४७.२
तुम सब कुछ जानने वाली हमें धन – धान्य से समर्थ कर दो |
हे स्त्री ! तुम हमारे धन और समृद्धि को बढ़ाओ |
अथर्ववेद ७.४८.२
तुम हमें बुद्धि से धन दो |
विदुषी, सम्माननीय, विचारशील, प्रसन्नचित्त पत्नी संपत्ति की रक्षा और वृद्धि करती है और घर में सुख़ लाती है |
अथर्ववेद १४.१.६४
हे स्त्री ! तुम हमारे घर की प्रत्येक दिशा में ब्रह्म अर्थात् वैदिक ज्ञान का प्रयोग करो |
हे वधू ! विद्वानों के घर में पहुंच कर कल्याणकारिणी और सुखदायिनी होकर तुम विराजमान हो |
अथर्ववेद २.३६.५
हे वधू ! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुमने स्वयं पसंद किया है, संसार – सागर के पार पहुंचा

वेदों में नारी का सम्मान;

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: !
यत्रेतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया: !!
जहां महिलाओं को सम्मान मिलता है वहां समृद्धि का राज्य होता है.
जहां महिलाऑ का अपमान होता है, वहां की सब योजनाएं/ कार्य विफल हो जाते हैं.
यह वैदिक काल की विशिष्ट रूप से एक भारतीय परंपरा है, जो विश्व की किसी अन्य सभ्यता में नहीं मिलती.
आधुनिक विश्व समाज जब किसी महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता है, तब उस मुद्दे पर एक दिवस निर्दिष्ट कर के समाज का ध्यान उस ओर आकर्षित किया जाता है.. इसी कडी में ‘एक दिवस बाल कन्याके नाम भी निश्चित किया गया है. इस दिवस को समाज में कन्याओं की परिस्थिति पर आत्मचिंतन करने का अवसर मिलता है. पश्चिम की नकल में संभ्रांत शिक्षित वर्ग की महिलाओं के लिए भारतीय समाज में पुरुषों से समान अवसर प्राप्त करने के लिए आंदोलन करना भी एक मुद्दा बन जाता है.
. स्वामी विवेकानंद जी से 1890 के अमेरिका के प्रवास में एक अमेरिकन ने पूछा, कि क्या भारत में महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा दिया जाता है ? वाक्‌पटु स्वामी जी का उत्तर था नहीं.
उन के इस उत्तर को सुन कर अनेक श्रोतागण आश्चर्यचकित रह गए. तब स्वामी जी ने कहा नही, भारत में महिलाओं को पुरुषों से बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता, महिलाओं को तो भारत मे पुरुषों से उच्च स्थान दिया जाता है.
आधुनिक भारतीय समाज की स्थिति का अवलोकन करने पर आज, हम देखते हैं कि

  1. महिलाओं पर अत्याचार, कन्या भ्रूण हत्या, महिलाओं के अभद्र प्रदर्शन का आर्थिक लाभ के लिए दुरुपयोग एक साधारण बात है.
  2. हमारे निर्वाचित नेता, प्रिय नेता, अभिनेता सब हमारे अपने समाज के सदस्यों द्वारा लगातार हिंसक हमलों के डर से उच्च सुरक्षा से घिरे रहते हैं ,
  3. सरकारों के सब प्रयासों के बावजूद भूख, गरीबी, सामाजिक मूल्यों का ह्रास, चरित्र और जीवन यापन में शिक्षा की अनुपयोगिता, शैक्षणिक, आर्थिक असमानता बढती जा रही है.
  4. सब वस्तुओं खाद्य पदार्थों मे मिलावट, और खाद्य उत्पादन की लगातार घटती स्थिति,और उस से प्रभावित समाज मी नए नए रोगों की महामारी बड़ी चिंता के विषय हैं.
  5. प्रतिकूल जलवायु परिवर्तन हमारे नियंत्रण से बाहर होते लगते हैं.
  6. पारिवारिक सम्बंध समाप्त होते जा रहे हैं.
  7. वृद्धों की, ग़रीबी की , बेरोज़गारी की समस्याओं का कोई समाधान नही दीखता.
  8. सभी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के आधुनिकतम अच्छे इरादों योजनाओं के बावजूद, स्थिति नियंत्रण से बाहर होती दीखती है.
  9. सरकारी कर्मचारियों के वेतन और सुविधाओं में लगातार वृद्धि के बावजूद ईमानदारी से अपना अपना कार्य कर के समाज में अपना दायित्व निभाता कोई नही दिखता.
    10.सत्य कहने जानने के साधन उपलब्ध नही हैं,
    11.योग्य शिक्षित वर्ग की उपेक्षा एक नियम बन गई है,
  10. दैनिक निर्दोष लोग हिंसा और दूसरे अपराधों को झेलते हैं.
  11. विज्ञापनों मे झूठी बातों का प्रचार आज हमारे समाज के सब कार्य और योजनाओं को विफल करते दीखते हैं
    बडा विस्मयकारी होगा यदि यह बताया जाए कि जिस समाज मे कन्याओं महिलाओं का शोषण होता है उस समाज ही में ऐसी स्थिति का पाए जाने का वेदों में पूर्ण रूपेण वर्णन मिलता है.
    . वेदों के अनुसार समाजिक मूल्यों के विघटन का कारण, समाज निर्माण के कार्य में महिलाओं की भूमिका को न समझना और महिलाओं की उपेक्षा होता है.
    मातृशक्ति की भूमिका संतान के मानसिक और शारीरिक निर्माण में गर्भ से ही आरम्भ होती है. संतान में बाल्यकाल से समाजिक मूल्यों की अवधारणा, प्राकृतिक सौन्दय के प्रति चेतना, श्रेयस में रुचि मातृ शक्ति की ही समाज को देन होती है. प्रकृति ने जन्म से ही स्त्री जाति को अपने इस सामाजिक दायित्व को निभाने के लिए सक्षम बनाया है.
    कोई भी शिक्षण संस्था मातृशक्ति की राष्ट्र निर्माण मे इस भूमिका की कमी का पूरक कभी नही हो सकती.
    वेदों से

मूलत: इस विषय को ब्रह्मवाणी के रूप मे ऋग्वेद के 7 मन्त्रों के 10/109 सूक्त में ऋषि जुहूर्नामब्रह्मवादिनी/ब्रह्मपुत्र ऊर्ध्वनमवा ब्राह्मा,देवता विश्वेदेवा द्वारा प्रतिपादित किया गया है.उसी विषय को सविस्तार ऋषि मयोभू: ने 11 मन्त्र और जोड कर अथर्व वेद के 18 मन्त्रों के सूक्त 5/17 मे प्रस्तुत किया है.

1.मूल में स्त्री जाति की संरचना में परमेश्वर की योजना
1.तेS वदन् प्रथमा ब्रह्मकिल्विषे S कूपार: सलिलो
मातरिश्वा ! वीडुहरास्तप उग्रं मयोभूरापो देवी: प्रथमजा: ऋतस्य !! ऋ10/109/1, अथर्व 5/17/1

प्रथमा = आरम्भ में, at the very beginning ब्रह्मकिल्विषे = परमेश्वर द्वारा सृष्टि उत्पत्ति के पुण्य कार्य की, समाज/संसार की अवनति को रोकने के लिए, देवी: प्रथमजा = परमेश्वर ने प्रथम उत्पन्न कन्या की आवश्यकता प्रतीत की ऋतस्य = ऋत द्वारा सम्पन्न इस के लिए सृष्टि उत्पन्न करने वाले परमेश्वर के प्रतिनिधि, अकूपार:, सलिल:, मातरिश्वा:=आदित्य, सलिल, और वायु ते S वदन् = (ने नवजात कन्या को विशेष सामर्थ्य प्रदान करने के बारे) में मन्त्रणा की वेद के अनुसार “वीडुतापउग्रं ” = तप द्वारा अर्जित बलवानों की उग्रता, जैसे रामायण काल मे उग्र बलशाली रावण जैसे राक्षसों का अहंकार भरा मतान्ध आचरण, या महाभारत काल मे दुर्योधन का आचरण , या आधुनिक काल मे बलशाली तानाशाहों के दमनाचार,अपने बल पौरुष के अहंकार मे अंधे पापाचारियो द्वारा कन्या भ्रूण हत्या, महिलाओं का अपहरण, बलात्कार और स्वार्थ वश , अल्पबुद्धि, समाज का शोषण इत्यादि ही समाज की अवनति का कारण होते हैं.

वीडुहरास्तप उग्रं = इस उग्र पापाचारी शक्ति को हरने के लिए ‘उन की गर्मी’ को ठन्डा करने के लिए मयोभूरापो = जल की शीतलता जैसे गुणों से संसार मे सुख प्रदान करने के लिए ( उग्र हिंसक वृत्ति की दावानल जैसी पापाचारी अग्नि रूप शक्तियों को जल से शान्त कर करने के लिए) परमेश्वर ने देवी: प्रथमजा प्रथम मे कन्या girl child रूपि देवी को बनाया.

2- सोमो राजा प्रथमो ब्रह्मजायां पुनः प्रायच्छदहृणीयमानः ।
अन्वर्तिता वरुणो मित्र आसीदग्निर्होता हस्तगृह्या निनाय॥
ऋ10-109-2,अथर्व 5-17-2
सोमस्य जाया प्रथमं गन्धर्वस्तेऽपरः पतिः।
तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः॥ अथर्व 14-2-3,
सोमस्य प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तर: ।
तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा ॥ ऋ 10-85-40
सोमो ददद्‌ गन्धर्वाय गन्धर्वो ददग्नये।
रयिं च पुत्रश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम्‌॥ अथर्व14-2-4, ऋ10-85-41

इन तीन वेद मन्त्रों में कन्याओं के मनोवैज्ञानिक एवम शारीरिक विकास की क्रमश: तीन अवस्थाओं के बारे मे बताया है.

  1. मानसिक विकास चरण :लगभग 4से 5 वर्ष की आयु तक बच्चों की शारीरिक विकास से पूर्व मानसिक विकास अधिक होता है. इस अवस्था मे विज्ञान के अनुसार मानव शरीर मे “ रुधिर मस्तिष्क बान्ध” (blood brain barrier) का विकास अभी पूरा नही होता. अपनी माता से शिषु द्वारा ग्रहण किया गया सारा पोषण बच्चे के मस्तिष्क और ज्ञानेन्द्रियों का ही मुख्यत: विकास करता है. इस अवस्था मे वेदों मे अलन्कारिक भाषा मे सोम को कन्या प्रथम (अमूर्त) पति बताया है.
    ( सोम यहां मस्तिष्क और बुद्धिजन्य सब इन्द्रियों का प्रेररक है)
  2. शारीरिक विकास चरण :
    “ रुधिर मस्तिष्क बान्ध” (blood brain barrier) बन जाने के बाद और यौवन विकास से पहले बच्चे का आहार मुख्यत: उस के शारीरिक विकास मे जाता है.
    यहां जैमनीय ब्राह्मण में मिलता “गन्धो मे मोदो प्रमोदो मे । तन्मे युष्मासु(गन्धर्वेषु)”॥ इस अवस्था मे कन्याओं मे स्वाभाविक ललित कलाओं मे रुचि जागृत होती है. गायन, नृत्य, कविता, नाट्य मंच, हस्तकला, मूर्ति कला, प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति संवेदना, माधुर्य, सौन्दर्य प्रेम, सजावट, सुख सुविधा सौम्यता, इत्यादि. गुण कन्याओं मे स्वभाविक रूप से विकसित होते हैं.
    इस अवस्था मे वेदों ने गन्धर्वों को कन्या का दूसरा अमूर्त पति बताया है.
  3. कौमार्यवस्था ;
    रजोदर्शन के पश्चात कुमारियों मे कामाग्नि का विकास होता है.
    इस अवस्था में अग्नि कामाग्नि कन्या को अमूर्त पति माना.
  4. तुरीय चौथी अवस्था में मनुष्य भौतिक पति के रूप में प्राप्त होता है. इस अवस्था को प्राप्त करने पर कन्या मूर्त रूप पति प्राप्त करने की स्थिति प्राप्त करती है.

3-हस्तेनैव ग्राह्यआधिरस्या ब्रह्मजायेयमिति चेदवोचन्‌ ।
न दूताय प्रह्ये तस्थ एषा तथा राष्ट्रं गुपितं क्षत्रियस्य॥
ऋ 10-109-3अथर्व 5-17-3
तीसरी अवस्था में कौमार्यावस्था के आरम्भ मे, कन्याओं को (पापाचारियों से) सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने को क्षत्रियों द्वारा राष्ट्र की सुरक्षा जितना महत्व दिया है.

4-यामाहुस्तारकैषा विकेशीति दुच्छनां ग्राममवपद्यमानाम्‌ ।
जाया वि दुनोति राष्ट्रं यत्र प्रापादि शश उल्कुषीमान्‌ ॥ अथर्व-5-17-4
पथ भ्रष्ट, अनुशासनहीन-अनैतिक और अज्ञानी, समाज मे उपेक्षित,वंचित महिलाओं के मैले खुले बाल एक प्रतीक हैं कि वे माताएं बन कर अपनी संतान को ज्ञानवान और अच्छे संस्कार नहीं दे पाएंगी. इस का दुष्प्रभाव एक महान संकट के रूप में समाज पर विनाशकारी बादल या आकाश से गिरने वाली प्रलयंकारी उल्काओं जैसा होता है.
6-ब्रह्मचारी चरति वेविषद्विषः स-देवानां भवत्येकमङ्‌गम्‌ ।
तेन जायामन्वविदद्‌बृहस्पतिः सोमेन नीतां जुह्वं ने देवाः ॥ ऋ 10-109-5 अथर्व 5-17-5
. युवा सुशिक्षित ब्रह्मचारी ही पथभ्रष्ट महिलाओं का उद्धार कर के समाज मे पुन: स्थापित करने की क्षमता रखते है . इस प्रकार युवतियों को, उनकी छिपी मातृशक्ति पुन: मिल सकती है, जैसा परमेश्वर ने आरम्भ मे अपेक्षा की थी .उस रूप में वे मानव जाति के विकास के लिए समाज को अच्छी संतान प्रदान कर सकती हैं.
6-देवा वा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तऋषयस्तपसे ये निषेदुः ।
भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधाति परमे व्योमन्‌ ॥ ऋ 10-109-4 अथर्व 5-17-6
इस विषय पर वेद सप्तऋषियों की बात कर रहा है . (विश्वामित्र, वशिष्ट, कश्यप, अत्रि, भारद्वाज,जमदग्नि,गौतम) ये सात ऋषि समाज की परिस्थिति पर ध्यान देते थे. आधिभौतिक अर्थ मे , दो आंख, दो कान , दो नसिका छिद्र, एक मुख ये सात मानव शरीर के सप्त ऋषि कहाते हैं. आधुनिक काल मे हमारा मीडिया टेलिविजन,समाचार पत्र, रेडियो समाज की समस्त स्थिति का अवलोकन और जानकारी दे कर सप्त ऋषि के रूप मे समाज मे जागरुकता दे ते हैं. मूल रूप से ‘कहा जा सकता है मीडिया’ रिपोर्ट, यह व्यक्त करते हैं कि महिलाओं को जो अपहरण या सम्मोहन की शिकार हो कर भटक गयी हैं उन पर क्या क्या अत्याचार हो रहे हैं. महिलाएं समाज किन भारी आपदाओं से कष्ट मे है .इन बातों की जान कारी देना मीडिया का एक दायित्व है, जैसा पूर्वकाल मे सप्त ऋषियों का था.

7- ये गर्भा अवपद्यन्ते जगद्‌ यच्चापलुप्यते। वीरा ये तृह्यन्ते मिथो ब्रह्मजाया हिनस्ति तान्‌॥ अथर्व 5-17-7
कन्या भ्रूण हत्याएं जो समाज मे महिलाओं को नष्ट करती हैं, आगे बड़े पैमाने पर हिंसा का माहौल उत्पन्न करते हैं. समाज मे आपस मे हिंसा लडाइ का वातावरण कन्या भ्रूणा हत्या का ही अभिशाप होता है.
8-उत यत्‌ पतयो दश स्त्रियाः पूर्वे अब्राह्मणाः।
ब्रह्मा चे द्वस्तमग्रहीत्‌ स एव पतिरेकधा ॥ अथर्व-5-17-8
. लेकिन एक पतित महिला जिस का अनेक पुरुषों द्वारा शोषण किया गया हो, वह भी अंत में उचित शादी से एक धार्मिक अच्छे आदमी को स्वीकार हो कर समाज मे अपना दायित्व निभाने के लिए पुन:प्रतिष्ठित हो जाती है,
9.ब्राह्मण एव पतिर्न राजन्यो3 न वैश्यः।
तत्‌ सूर्यः प्रब्रुवन्नेति पञ्चभ्यो मानवेभ्यः ॥ अथर्व 5-17-9

पृथ्वी पर सूर्य के प्रकाश की तरह, इस तथ्य को भी बहुत अच्छी तरह से दुनिया को जानना चाहिए कि सब मनुष्यों को अपनी बुद्धि का सम्पूर्ण विकास करना उचित है. केवल एक उच्च शासनधिकारी, या एक बड़ा योद्धा या जीवन में एक बड़ा धनी बन कर कोई भी पुरुष एक पत्नी को लेकर अच्छा पिता बन कर अच्छे संतान का जनक नही होता.

10-पुनर्वै देवा अददुः पुनर्मनुष्या उत ।
राजानः सत्यं कृण्वाना ब्रह्म जायां पुनर्ददुः ॥
ऋ 10-109-6 अथर्व 5-17-10
किसी भी महिला का अगर अपहरण या शोषण, हुवा हो तो यह राज्य का दायित्व हो जाता है और उसे रक्षा प्रदान करा के समाज में उसका सम्मान के साथ पुनर्वास करे..
11-पुनर्दाय ब्रह्मजाया कृत्वी देवैर्निल्बिषम्‌ ।
ऊर्जं पृथिव्या भक्तवायो रुगायमुपासते ॥
ऋ 10-109-7 अथर्व 5-17-11
ऐसी महिलाओं जो किसी भी अपराध से निर्दोष हैं, और यदि उनके पुनर्वास की जरूरत पैदा होती है तो यह राज्य खर्च से होना चाहिए.

12-नास्य जाया शतवाही कल्याणी तल्पमा शये ।
यस्मिन राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-12
जहां महिलाओं का शोषण होता है, / उनकी मर्जी के खिलाफ मजबूर किया.
वहां के शासक चारों ओर से सुरक्षा बलों से घिरे होने पर भी अपने अंत:वास मे भी अपने सुरक्षित नही पाते.
13-न विकर्णः पृथुशिरास्तस्मिन्वेश्मनि जायते ।
यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-13
जहां महिलाओं का शोषण होता है, / उनकी मर्जी के खिलाफ मजबूर किया.
उस देश के समाज मे बुद्धिजीवियों की आवाज नही सुनी जाती. अज्ञानियों का विस्तार और बौद्धिक विद्वानों का विकास रुक जाता है,
14-नास्य क्षत्ता निष्कग्रीवः सूनानामेत्यग्रतः ।
यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-14
जहां महिलाओं का शोषण होता है, / उनकी मर्जी के खिलाफ मजबूर किया.
आभूषणों से (धन धान्य से) सुसज्जित कर्मचारी, शूरवीर क्षत्रिय सैनिक भी अपना दायित्व नही निभाते..
15-नास्य श्वेतः कृष्णकर्णो धुरि युक्तो महीयते ।
यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-15
जहां महिलाओं का शोषण होता है, / उनकी मर्जी के खिलाफ मजबूर किया.
अश्वमेध यज्ञ के लिए राजा अपने अश्व पर भी नही चढ पाता और उस का अपने पडोसी देशों मे सम्मान नही होता..
16-नास्य क्षेत्रे पुष्करिणी नाण्डीकं जायते बिसम्‌ ।
यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-16
जहां महिलाओं का शोषण होता है, / उनकी मर्जी के खिलाफ मजबूर किया.
वहां जल निकायों मे कमल के फूल नही खिलते, वनस्पतियों के बीज स्वयं नही अंकुरित होते. पर्यावरण की अवनति होती है.
17-नास्मै पृश्नि वे दुहन्ति ये ऽस्या दोहमुपासते ।
यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-17
जहां महिलाओं का शोषण होता है, / उनकी मर्जी के खिलाफ मजबूर किया.
गाएं दुधारु नही होती
18-नास्य धेनुः कल्याणी नानड्‌वान्त्सहते धुरम्‌ । विजानिर्यत्र ब्राह्मणो रात्रिं वसति पापया ॥ अथर्व-5-17-18
समाज न ही गाय बैलों से कल्याण ले पाता है ( जैविक कृषि नही प्राप्त होती) और महिलाओं की समाज में सक्रिय भागीदारी के बिना, पुरुष रात्रि मे अपराध करने के लिए मुक्त फिरते हैं.

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स्वभावेन हि तुष्यन्ति
देवाः सत्पुरुषाः पिता।
ज्ञातयः स्वन्नपानाभ्यां
वाक्यदानेन पण्डिताः॥
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भावार्थ👉 सद्व्यवहार और उत्तम स्वभाव का महत्व बताते हुए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि देवता , सज्जन और पिता — ये सब स्वभाव से ही सन्तुष्ट होते हैं। इसी प्रकार मित्रों, बन्धु-बान्धव उत्तम खान-पान और विद्वान लोग मृदु वाणी से प्रसन्न होते हैं। अर्थात् श्रेष्ठ स्वभाव और मधुर वाणी से युक्त मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं होता।
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Describing the importance of good behavior and good nature, Acharya Chanakya says that God, gentleman and father – all are satisfied only by nature. In the same way, friends, Bandh-Bandhva pleased with good food and scholars are pleased with soft voice. That is, nothing is impossible for a person with a superior nature and sweet voice.
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आपका आज का दिन मंगलमय हो।
🙏🌻🚩सुप्रभातम्🚩🌻🙏

महर्षि अगस्त्य का विद्युत्-शास्त्र | Electricity Formula by Maharishi Agastya:7323BC
महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ॠषि थे। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। ये वशिष्ठ मुनि (राजा दशरथ के राजकुल गुरु) के बड़े भाई थे। वेदों से लेकर पुराणों में इनकी महानता की अनेक बार चर्चा की गई है | इन्होने अगस्त्य संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमे इन्होने हर प्रकार का ज्ञान समाहित किया |
इन्हें त्रेता युग में भगवान श्री राम से मिलने का सोभाग्य प्राप्त हुआ उस समय श्री राम वनवास काल में थे |
इसका विस्तृत वर्णन श्री वाल्मीकि कृत रामायण में मिलता है | इनका आश्रम आज भी महाराष्ट्र के नासिक की एक पहाड़ी पर स्थित है |

राव साहब कृष्णाजी वझे ने १८९१ में पूना से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। भारत में विज्ञान संबंधी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी के पास अगस्त्य संहिता के कुछ पन्ने मिले। इस संहिता के पन्नों में उल्लिखित वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल से मिलता-जुलता है। अत: उन्होंने नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को वह दिया और उसे जांचने को कहा।
श्री अगस्त्य ने अगस्त्य संहिता में विधुत उत्पादन से सम्बंधित सूत्रों में लिखा :

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
-अगस्त्य संहिता

अर्थात
एक मिट्टी का पात्र (Earthen pot) लें, उसमें ताम्र पट्टिका (copper sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगायें, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो, उससे मित्रावरुणशक्ति का उदय होगा।

अब थोड़ी सी हास्यास्पद स्थति उत्पन्न हुई |

उपर्युक्त वर्णन के आधार पर श्री होले तथा उनके मित्र ने तैयारी चालू की तो शेष सामग्री तो ध्यान में आ गई, परन्तु शिखिग्रीवा समझ में नहीं आया। संस्कृत कोष में देखने पर ध्यान में आया कि शिखिग्रीवा याने मोर की गर्दन। अत: वे और उनके मित्र बाग गए तथा वहां के प्रमुख से पूछा, क्या आप बता सकते हैं, आपके बाग में मोर कब मरेगा, तो उसने नाराज होकर कहा क्यों? तब उन्होंने कहा, एक प्रयोग के लिए उसकी गरदन की आवश्यकता है। यह सुनकर उसने कहा ठीक है। आप एक अर्जी दे जाइये। इसके कुछ दिन बाद एक आयुर्वेदाचार्य से बात हो रही थी। उनको यह सारा घटनाक्रम सुनाया तो वे हंसने लगे और उन्होंने कहा, यहां शिखिग्रीवा का अर्थ मोर की गरदन नहीं अपितु उसकी गरदन के रंग जैसा पदार्थ कॉपरसल्फेट है। यह जानकारी मिलते ही समस्या हल हो गई और फिर इस आधार पर एक सेल बनाया और डिजीटल मल्टीमीटर द्वारा उसको नापा। परिणामस्वरूप 1.138 वोल्ट तथा 23 mA धारा वाली विद्युत उत्पन्न हुई।

प्रयोग सफल होने की सूचना डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को दी गई। इस सेल का प्रदर्शन ७ अगस्त, १९९० को स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था (नागपुर) के चौथे वार्षिक सर्वसाधारण सभा में अन्य विद्वानों के सामने हुआ।

आगे श्री अगस्त्य जी लिखते है :
अनने जलभंगोस्ति प्राणो
दानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥

सौ कुंभों की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदल कर प्राण वायु (Oxygen) तथा उदान वायु (Hydrogen) में परिवर्तित हो जाएगा।

आगे लिखते है:
वायुबन्धकवस्त्रेण
निबद्धो यानमस्तके
उदान : स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्‌। (अगस्त्य संहिता शिल्प शास्त्र सार)

उदान वायु (H2) को वायु प्रतिबन्धक वस्त्र (गुब्बारा) में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है।
प्राचीन भारत में विमान विद्या थी | विमान शास्त्र की रचना महर्षि भरद्वाज ने की जिसके बारे में हम पहले ही देख चुके है | पढने के लिए यहाँ क्लिक करें|

राव साहब वझे, जिन्होंने भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथ और प्रयोगों को ढूंढ़ने में अपना जीवन लगाया, उन्होंने अगस्त्य संहिता एवं अन्य ग्रंथों में पाया कि विद्युत भिन्न-भिन्न प्रकार से उत्पन्न होती हैं, इस आधार पर
उसके भिन्न-भिन्न नाम रखे गयें है:

(१) तड़ित्‌ – रेशमी वस्त्रों के घर्षण से उत्पन्न।
(२) सौदामिनी – रत्नों के घर्षण से उत्पन्न।
(३) विद्युत – बादलों के द्वारा उत्पन्न।
(४) शतकुंभी – सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न।
(५) हृदनि – हृद या स्टोर की हुई बिजली।
(६) अशनि – चुम्बकीय दण्ड से उत्पन्न।

अगस्त्य संहिता में विद्युत्‌ का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पालिश चढ़ाने की विधि निकाली। अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।

आगे लिखा है:
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते। -शुक्र नीति

यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रं
स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं
शातकुंभमिति स्मृतम्‌॥ ५ (अगस्त्य संहिता)

अर्थात्‌-
कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।

उपरोक्त विधि का वर्णन एक विदेशी लेखक David Hatcher Childress ने अपनी पुस्तक ” Technology of the Gods: The Incredible Sciences of the Ancients” में भी लिखा है । अब मजे की बात यह है कि हमारे ग्रंथों को विदेशियों ने हम से भी अधिक पढ़ा है । इसीलिए दौड़ में आगे निकल गये और सारा श्रेय भी ले गये ।

आज हम विभवान्तर की इकाई वोल्ट तथा धारा की एम्पीयर लिखते है जो क्रमश: वैज्ञानिक Alessandro Volta तथा André-Marie Ampère के नाम पर रखी गयी है |
जबकि इकाई अगस्त्य होनी चाहिए थी ।

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