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ज्योतिषकेउपायमेंजपक्योंएवंमंत्रोच्चारणकालाभकैसे –

जब मनुष्य अपने मुख से किसी मन्त्र का उच्चारण करता है तो उन सभी उच्चारण का अलग-अलग प्रभाव, मनुष्य के ज्ञानेन्द्रियो और संवेदी अंगों पर प्रभावी होता है । एवं प्रत्येक ज्ञानेंद्रिय का एक निश्चित कर्मक्षेत्र होता है, जिसके लिए उसका प्रबल होना आवश्यक होता है । जिस समय जातक की कुंडली में किसी ग्रह दशा का बुरा परिणाम प्रभावी होता है, तो निश्चित है वह ग्रह उस व्यक्ति की कुंडली के अनुसार सम्बन्धित कारकत्व पर बुरा प्रभाव आरोपित कर रहा होता है । जिसके कारण उसकी मनोस्थिति में विभिन्न परिवर्तन प्रभावी रहते है, ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति को उसके किसी ज्ञानेन्द्रिय के दूषित होने का परिणाम भोगना पड़ता है एवं उसका परिणाम कम अथवा ज्यादा दोनों हो सकता है यह निर्भर करता है जातक के कर्म स्थिति पर । ऐसी स्थिति में ज्योतिषी को देखना चाहिए की कौन सा ग्रह उस समयकाल में कुंडली के अनुसार बुरा प्रभाव दे रहा है तथा उस ग्रह के मन्त्र का उच्चारण करने हेतु जातक को परामर्श देना चाहिए, क्योंकि जिन ज्ञानेन्द्रियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा था उन्हें स्वर विज्ञान के अनुकूल मन्त्र उच्चारण से सकारात्मक प्रभाव में मजबूत करने का प्रयास किया जाता है । और यह जप जातक के द्वारा स्वयं किया जाना चाहिए । क्योंकि यह उसी प्रकार प्रभावी होता है जैसे-किसी रोग में आराम देने के लिए फिजियोथेरेपिस्ट उस अंग से सम्बन्धित उच्च एवं निम्न दाब को प्रभावी कर आराम देने का प्रयास करता है । यदि हम जप विधान किसी अन्य के द्वारा करवाते है तो वह सार्थक प्रभावी नहीं होता अगर होता भी है तो अपेक्षाकृत कम होता है । बहुत से विद्वान कहते है की इस कथन के अनुसार तो फिर पूजा पाठ भी नही होनी चाहिए क्यों करवाते है ? तो स्पष्ट कर दूँ की यह विद्वान को ही तय करना होता है की नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव किसी जातक से दूर करना है या वातावरण से । क्योंकि सामूहिक मन्त्रोचारण वातावरण को सकारात्मक करने और जन कल्याण हेतु अधिक प्रभावी रूप से आरोपित किया जाता है । फिर भी यदि किया जाता है जातक के लिए तो जो विद्वान इसे सम्पादित कर रहा है उसकी ज्ञानेन्द्रिय ऊर्जा पर निर्भर करता है की उस जप के प्रभाव का रोपण कितना प्रतिशत जातक पर प्रभावी कर सकता है ।
ब्रम्हांड में सम्पूर्ण क्रियायों का क्रियान्वन ऊर्जा के द्वारा ही घटित होता है , विज्ञान भी कहता है की प्रत्येक ग्रह निश्चित ऊर्जा के अनुकूल ब्रह्मांड में उपस्थित है , एवं मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों का सम्बन्ध सीधे तौर पर उर्जाओं से है ऐसी स्थिति में मन्त्रउच्चारण करना अधिक लाभाकरी होता है ।
जैसे- #महामृत्यंजय_मन्त्र –

ॐ हौं जूँ सः | ॐ भूर्भुवः स्वः | ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम् उर्व्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात ॐ | स्वः भुवः भूः ॐ | सः जूँ हौं ॐ |

इस मंत्र के अंतर्गत प्रथम उच्चारण ऊँ का आता है-
ऊँ तीन अक्षर(ओ+उ+म) से बना एक शब्द है जिसमे ओ का सम्बन्ध आंतरिक उर्जा से, उ का अर्थ उच्चतम को प्राप्त करना और म का अर्थ ब्रह्मांड में लीन हो जाना, एवं स्पष्ट है पृथ्वी के ब्रह्मांड का सम्बन्ध सूर्य से एवं सूर्य सम्पूर्ण ऊर्जाओं का प्रतीक है एवं महामृत्युंजय मंत्र में “म” शब्द का प्रयोग अधिक हुआ है जिसके कारण अग्नि तत्व में प्रबलता प्राप्त होती है इसलिए शरीर की ऊर्जा को बढ़ाने के लिए महामृत्युंजय मंत्र का उपयोग सर्वाधिक लाभकारी होता है।

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