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भारत के मुख्य कैलेण्डर
१. स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.) से-ऋतु वर्ष के अनुसार-विषुव वृत्त के उत्तर और दक्षिण ३-३ पथ १२, २०, २४ अंश पर थे जिनको सूर्य १-१ मास में पार करता था। उत्तर दिशा में ६ तथा दक्षिण दिशा में भी ६ मास। (ब्रह्माण्ड पुराण १/२२ आदि)
इसे पुरानी इथिओपियन बाइबिल में इनोक की पुस्तक के अध्याय ८२ में भी लिखा गया है।
२. ध्रुव-इनके मरने के समय २७३७६ ई.पू. में ध्रुव सम्वत्-जब उत्तरी ध्रुव पोलरिस (ध्रुव तारा) की दिशा में था।
३. क्रौञ्च सम्वत्-८१०० वर्ष बाद १९२७६ ई.पू. में क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) का प्रभुत्व था (वायु पुराण, ९९/४१९) ।
४. कश्यप (१७५०० ई.पू.) भारत में आदित्य वर्ष-अदितिर्जातम् अदितिर्जनित्वम्-अदिति के नक्षत्र पुनर्वसु से पुराना वर्ष समाप्त, नया आरम्भ। आज भी इस समय पुरी में रथ यात्रा।
५. कार्त्तिकेय-१५८०० ई.पू.-उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया। धनिष्ठा नक्षत्र से वर्षा तथा सम्वत् का आरम्भ। अतः सम्वत् को वर्ष कहा गया। (महाभारत, वन पर्व २३०/८-१०)
६. वैवस्वत मनु-१३९०२ ई.पू.-चैत्र मास से वर्ष आरम्भ। वर्तमान युग व्यवस्था।
७. वैवस्वत यम-११,१७६ ई.पू. (क्रौञ्च के ८१०० वर्ष बाद)। इनके बाद जल प्रलय। अवेस्ता के जमशेद।
८. इक्ष्वाकु-१-११-८५७६ ई.पू. से। इनके पुत्र विकुक्षि को इराक में उकुसी कहा गया जिसके लेख ८४०० ई.पू. अनुमानित हैं।
९. परशुराम-६१७७ ई.पू. से कलम्ब (कोल्लम) सम्वत्।
१०. युधिष्ठिर काल के ४ पञ्चाङ्ग-(क) अभिषेक-१७-१२-३१३९ ई.पू. (इसके ५ दिन बाद उत्तरायण में भीष्म का देहान्त)
(ख) ३६ वर्ष बाद भगवान् कृष्ण के देहान्त से कलियुग १७-२-३१०२ उज्जैन मध्यरात्रि से। २ दिन २-२७-३० घंटे बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।
(ग) जयाभ्युदय-६मास ११ दिन बाद परीक्षित अभिषेक २२-८-३१०२ ई.पू. से
(घ) लौकिक-ध्रुव के २४३०० वर्ष बाद युधिष्ठिर देहान्त से, कलि २५ वर्ष = ३०७६ ई.पू से कश्मीर में (राजतरंगिणी)
११. भटाब्द-आर्यभट-कलि ३६० = २७४२ ई.पू से।
१२. जैन युधिष्ठिर शक-काशी राजा पार्श्वनाथ का सन्यास-२६३४ ई.पू. (मगध अनुव्रत-१२वां बार्हद्रथ राजा)
१३. शिशुनाग शक-शिशुनाग देहान्त १९५४ ई.पू. से (बर्मा या म्याम्मार का कौजाद शक)
१४. नन्द शक-१६३४ ई.पू. महापद्मनन्द अभिषेक से। ७९९ वर्ष बाद खारावेल अभिषेक।
१५. शूद्रक शक-७५६ ई.पू.-मालव गण आरम्भ
१६. चाहमान शक-६१२ ई.पू. में (बृहत् संहिता १३/३)-असीरिया राजधानी निनेवे ध्वस्त।
१७. श्रीहर्ष शक-४५६ ई.पू.-मालव गण का अन्त।
१८. विक्रम सम्वत्-उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य द्वारा ५७ ई.पू. से
१९. शालिवाहन शक-विक्रमादित्य के पौत्र द्वारा ७८ ई.से।
२०. कलचुरि या चेदि शक-२४६ ई.
२१. वलभी भंग (३१९ ई.) गुजरात के वलभी में परवर्त्ती गुप्त राजाओं का अन्त।
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ज्येष्ठा नक्षत्र को पुर एवं पुरन्‍दर भी कहा जाता है। कभी वर्ष का आरम्भ वर्षा ऋतु से होता था, वर्ष नाम ही पड़ा वर्षा से।
पुर रूपी मेघों को सौदामिनी रूपी वज्र से ध्वस्त कर उनमें बंदी जल को वृत्र से मुक्त करने वाले पुरंदर इंद्र वर्षारम्भ में जब ज्येष्ठा नक्षत्र में पधारते थे तो कौन सा काल रहा होगा?
कहने का अर्थ यह कि ज्येष्ठा नक्षत्र में वर्षा ऋतु कब होती होगी?

नहीं। अभी मृगशिरा में आरम्भ होती है न वर्षा? मिरगा तवे, मेहा नवे! दोनों में 13 नक्षत्र की दूरी। अथर्व एवं महाभारत के 28 नक्षत्रों की प्राचीन परम्परा मानें तो एक नक्षत्र हुआ लगभग 920 वर्ष। 13 नक्षत्र अर्थात लगभग 12000 वर्ष। 10000 ई.पू.!
10000 ई.पू. के बारे में नेट पर ढूँढ़ें तो! 🙂

मत्स्यपुराण चतुर्युगी की माप दो प्रकार से बताता है;

  • एक में जहाँ काल मापन की न्यूनतम इकाई से आरम्भ किया गया है, वहाँ दिव्य वर्षों की बात है। एक दिव्य वर्ष = 360 मानव वर्ष
  • किंतु एक दूसरे स्थान पर जहाँ सीधे युगों की बात है, वहाँ दिव्य वर्ष न हो कर मात्र वर्ष है :

कृत – 4800 वर्ष
त्रेता – 3600 वर्ष
द्वापर – 2400 वर्ष
कलि – 1200 वर्ष
कुल – 12000 वर्ष

विद्याद्द्वादशसाहस्रीं युगाख्यां पूर्वनिर्मिताम् ।
एवं सहस्रपर्यन्तं तदहर्ब्राह्ममुच्यते ॥

ऐसे 1000 बारहहजारी ब्रह्मा के एक दिन के बराबर होते हैं। ब्रह्मा का वर्ष हुआ – 120001000360 = 4320000000 मानव वर्ष। यदि अर्ह प्रयोग के कारण इसे मात्र दिन मानें, रात अतिरिक्त तो ब्रह्मा जी का एक वर्ष 8640000000 मानव वर्षों के बराबर होता है।

आधुनिक समय में पृथ्वी की आयु कितनी आँकी गयी है?

भाई मेरे! जहाँ से ये वाला आया है, वहाँ भी पहले नहीं होता था तो जाड़े में किटकिटाता काँपता नववर्ष छ: ऋतुओं वाले देश का तो हो ही नहीं सकता!
मेरा नववर्ष तो पर्व उत्सव के सोपान चढ़ता आता है, वसंत में, तब जब की समूची सृष्टि नयेपन के आह्लाद में झूम रही होती है…
… नववर्ष बबुवा धीरे धीरे आई! 15 जनवरी के संक्रांति मनाई, फिर वसंत पंचमी, उसके बाद शिवराति, तब होलियान संवत्सर सर र र र र आ आ आ … युगादि नया संवत्सर बिहान। महाविषुव नया साल – संतुलन, दिन रात बराबर। नवरातन भर व्रत, पर्व, उत्साह, नवमी के नौ रोटी खा के समापन।

भोजपुरी सौर नववर्ष भी है 🙂 – सतुवानि।
यह नये अन्न का पर्व है। नये अन्न के सत्तू का भोग आज की विशेषता है। नवरात्र में अष्टमी की रात की ‘नवमी पूजा’ में भी नये अन्न की पूड़ी हलुवा का भोग प्रसाद घर, गाँव और कुलादि की देवियों को चढ़ता है।
सतुवानि शब्द की उपपत्ति क्या हो सकती है?
अन्न के सत्त्व वाले सत्तू से? या सत्त्वर भोजन से?

फाल्गुन का होलिका दहन भोजपुरी क्षेत्र में ‘सम्हति’ कहलाता है। यह सम्हति संवत का ही बिगड़ा रूप है। यह दहन प्रतीकात्मक रूप से जाते संवत का दहन होता है जिसमें मन और देह के सारे मैल जला दिये जाते हैं। अगला दिन रंगपर्व नये रंग से अस्तित्त्व रँगने का प्रकृति से जुड़ा विधान है। चन्द्रमा के एक पक्ष यानि चौदह दिनों के अंतराल के पश्चात शुक्ल पक्ष के प्रारम्भ में होने वाला नवरात्र आयोजन आगामी वर्ष के लिये स्वयं को तैयार करने का तप आयोजन है। रबी की फसल का अन्न घर में आ जाता है तो नये अन्न के स्वागत में रामरसोई सजती है रामनवमी के दिन जब कि नये आटे से बने व्यंजन पहली बार खाये जाते हैं। वैदिक युग के नये सत्र आयोजन भी ऐसे ही पुरोहित, कृषक और व्यापारी वर्ग द्वारा संयुक्त रूप से किये जाते थे। स्त्री शक्ति की कल्पना संवत्सर प्रार्थना में भी है।

पूर्णत: सौर गति आधारित पंचांगों में दो उल्लेखनीय हैं। पंजाब में वैशाखी के दिन नववर्ष मनाया जाता है और उड़ीसा में भी। विधियों के अंतर से यह तिथि प्रति वर्ष 13/14/15 अप्रैल को पड़ती है जब सूर्य कथित रूप से मेष राशि में प्रवेश करता है। उड़ीसा में इसे महाविषुव संक्रांति के नाम से मनाया जाता है हालाँकि दोनों में अयन खिसकन के कारण अब पर्याप्त अंतर हैं। इस समय वास्तव में सूर्य मीन राशि में होता है।
बेबीलोन से आयातित 12 राशियों वाला तंत्र वहाँ लगभग 500 ई.पू. में विकसित हुआ था तब महाविषुव मेष राशि में पड़ता था। उन्हें अयन गति का पता नहीं था। पश्चिमी ज्योतिष द्वारा इसके अनुकरण के कारण ही आज वास्तविक राशि और ज्योतिष राशि में अंतर हैं। उदाहरण के लिये यदि आप का जन्म 22 मई से 21 जून के बीच हुआ है तो जोतिखी काका कहेंगे कि तुम्हारी राशि मिथुन है लेकिन वास्तव में सूर्य देवता उस समय वृषभ राशि में होंगे!
इसके उलट भारतीय गणना पद्धति अपेक्षाकृत ‘स्थिर’ नक्षत्रों को आधार बना कर चलती है इसलिये महाविषुव की खिसकन का समायोजन हो जाता है।

हाँ, तो दुहरा लें।
हजारो वर्षों से मनुष्य वसंत विषुव (महाविषुव आज का 20 मार्च, जब दिन रात बराबर होते हैं) से नववर्ष का प्रारम्भ मनाता आया है। भारत में भी बैसाखी, उगाडि, बीहू आदि इसी के आसपास पड़ते हैं। प्राचीन भारत में यह समय पवित्र यव (जौ) और रबी की उपज का समय था और संवत्सर से जुड़े वैदिक श्रौत सत्र भी फसल की कटान से जुड़े थे। इस दिन से छ: महीने का समय (जब आज के सितम्बर में दूसरी बार दिन रात बराबर होते) देवयान कहलाता था जिसके अंत के साथ ही दूसरे पितृयानी सत्र प्रारम्भ होते थे जिनके पहले पितरों को श्रद्धांजलि दी जाती थी।
पितृयान पवित्र वृहि या शालि या धान की फसल के घर में आने का होता था यानि कि उत्सव ही उत्सव! तो यह जो दीपावली है न, उसी का विस्तार है। थोड़ा ध्यान दीजिये तो दीपावली में प्रसाद में नये धान के लावे, चिउड़ा और खांड या चीनी के गट्टे होते हैं या नहीं? यह समय इक्षु यानि ईख का भी होता था। वही ईख जिसे सोम तक कहा गया। पहला रस, पहला गुड़, नई मिठास यानि फसली समृद्धि के साथ सुख भी। अब ऐसे में श्री यानि लक्ष्मी की पूजा न हो तो किसकी हो?
कालांतर में जब वैष्णवों का जोर बढ़ा तो नये गुड़ के आस्वादन को देवोत्थान एकादशी तक बढ़ा दिया गया। अब आप पूछेंगे कि पितृयान में देवोत्थान? बड़ा कंफ्यूजन है! नहीं, ऐसा नहीं है। असल में ये जो विष्णु हैं न, वे सूर्य/आदित्य से इन्द्र के छोटे भाई हुये और उसके बाद स्वतंत्र हो त्रिदेवों में सम्मिलित हो गये। जिस समय वैदिक मार्ग से इतर उनकी प्रतिष्ठा हुई उस समय आकाश में महासर्प, ध्रुव, सप्तर्षि आदि का जो संयोग बनता था वह देव की जागृति की संकल्पना के अनुकूल था। बस्स! सद्विप्रों ने बहुधा वदंति कर दिया। देव और पितर का विभाजन समाप्त हो गया। पितरों की श्रद्धांजलि विसर्जन हो गयी। श्राद्ध आ जुड़ा।


अब एक प्रश्न:
भैया दूज के दिन का अमर प्रसाद कच्चे रूप में पाँच अन्नों जौ, चना, मटर, बाजरा और गेहूँ का मिला जुला क्यों बनता है?

पुरा वैदिक काल में जब कि वर्ष भर चलने वाले यज्ञ सत्रों का चलन था, वर्ष को देवयान और पितृयान दो भागों में बाँटा गया था। इस दिन से देवताओं की ऋतुयें प्रारम्भ होती थीं वसंत, ग्रीष्म और वर्षा और यही दिन नववर्ष का प्रारम्भ होता जब कि नये सत्र प्रारम्भ होते। चन्द्रगति की दृष्टि से वर्ष में मात्र 353/4 दिन होते जब कि सौर गति से 365/6। लगभग बारह दिनों के इस अन्तर को वर्षांत में नये सत्र के प्रारम्भ होने के पहले की तैयारियों के लिये रखा जाता और यह काल कहलाता था – द्वादशाह। बीच का जल विषुव यानि आज का 22 सितम्बर जब कि पुन: दिन और रात बराबर होते, सूर्य ठीक पूर्व में उगता और ठीक पश्चिम में अस्त होता, वर्षा ऋतु के अंत का सन्देश ले आता। वर्षा के अंत के बाद से शरद, शिशिर और हेमंत ये तीन ऋतुयें पितरों की मानी जाती थीं। यह समय पितरों का होता। देवयान का स्वामी जैसे इन्द्र था वैसे ही पितृयान का स्वामी यम।

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