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भुवनेश्वरी पीठ:

मंत्रों का प्रयोग ऋषियों ने अपने कल्याण के साथ-साथ दैनिक जीवन की संपूर्ण समस्याओं के समाधान हेतु किया गया है।मंत्रों में छुपी अलौकिक शक्ति का प्रयोग कर जीवन को सफल एवं सार्थक बनाया जा सकता है। मंत्र का वास्तविक अर्थ असीमित है। किसी देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए प्रयुक्त शब्द समूह मंत्र कहलाता है। जो शब्द जिस देवता या शक्ति को प्रकट करता है उसे उस देवता या शक्ति का मंत्र कहते हैं। मंत्र एक ऐसी गुप्त ऊर्जा है, जिसे हम जागृत कर इस अखिल ब्रह्मांड में पहले से ही उपस्थित इसी प्रकार की ऊर्जा से एकात्म कर उस ऊर्जा के लिए देवता (शक्ति) से सीधा साक्षात्कार कर सकते हैं। मंत्र की ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती है, वरन्‌ एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती रहती है। अतः जब हम मंत्रों का उच्चारण करते हैं तो उससे उत्पन्न ध्वनि एक ऊर्जा के रूप में ब्रह्मांड में प्रेषित होकर जब उसी प्रकार की ऊर्जा से संयोग करती है तब हमें उस ऊर्जा में छुपी शक्ति का आभास होने लगता है। इस धरा पर रहने वाले सभी प्राणियों पर ग्रहों का अवश्य प्रभाव पड़ता है।
चंद्रमा मन का कारक ग्रह है और यह पृथ्वी के सबसे नजदीक होने के कारण खगोल में अपनी स्थिति के अनुसार मानव मन को अत्यधिक प्रभावित करता है। अतः इसके अनुसार जो मन का त्राण (दुःख) हरे उसे मंत्र कहते हैं। मंत्रों में प्रयुक्त स्वर, व्यंजन, नाद व बिंदु देवताओं या शक्ति के विभिन्न रूप एवं गुणों को प्रदर्शित करते हैं। मंत्राक्षरों, नाद, बिंदुओं में दैवीय शक्ति छुपी रहती है।
मंत्र उच्चारण से ध्वनि उत्पन्न होती है, उत्पन्न ध्वनि का मंत्र के साथ विशेष प्रभाव होता है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु के ज्ञानर्थ कुछ संकेत प्रयुक्त किए जाते हैं, ठीक उसी प्रकार मंत्रों से संबंधित देवी-देवताओं को संकेत द्वारा संबंधित किया जाता है, इसे बीज कहते हैं। विभिन्न बीज मंत्रों में देवी-देवताओं के नाम भी संकेत मात्र से दर्शाए जाते हैं। इन बीजाक्षरों में जो अनुस्वार (ं) या अनुनासिक संकेत लगाए जाते हैं, उन्हें ‘नाद’ कहते हैं। नाद द्वारा देवी-देवताओं की अप्रकट शक्ति को प्रकट किया जाता है।
अतः आवश्यकतानुसार मंत्रों को चुनकर उनमें स्थित अक्षुण्ण ऊर्जा की तीव्र विस्फोटक एवं प्रभावकारी शक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। मंत्र, साधक व ईष्ट को मिलाने में मध्यस्थ का कार्य करता है। मंत्र की साधना करने से पूर्व मंत्र पर पूर्ण श्रद्धा, भाव, विश्वास होना आवश्यक है तथा मंत्र का सही उच्चारण अति आवश्यक है। मंत्र लय, नादयोग के अंतर्गत आता है। मंत्रों के प्रयोग से आर्थिक, सामाजिक, दैहिक, दैनिक, भौतिक तापों से उत्पन्न व्याधियों से छुटकारा पाया जा सकता है। रोग निवारण में मंत्र औषधि का कार्य करता है। मानव शरीर में 108 जैविकीय केंद्र होते हैं जिसके कारण मस्तिष्क से 108 तरंग दैर्ध्य उत्सर्जित करता है। इसलिए 108दानों के माला पर जप करना चाहिए
ह्रीं वह बीज मंत्र है जो सनातन मंत्रों में विशिष्ट स्थान रखता है। करोड़ों मन्त्र इसी बीज मंत्र से ऊर्जा एवं प्राण प्राप्त करते हैं। बीज मंत्रों का गूढ़ार्थ गहन साधना का गुप्त विषय है,जो सिर्फ गुरु से दीक्षा और मार्गदर्शन लेकर ही किया जा सकता है।जिस साधक को यह मंत्र गुरु से प्राप्त हो जाता है उसे सभी देवी-देवताओं का आशिर्वाद स्वयं प्राप्त होने लगता है। समस्त ब्रह्माण्ड के सभी मंत्र इस मंत्र को जाने बिना निष्फल ही माने जाते हैं।आप जिस भी मंत्र से जिस देवी देवताओं की उपासना आराधना करते हैं वह देवी देवता आपको लाभ भी देते हैं लेकिन जब वह देवी देवता आपपर विशेष रूप से प्रशन्न होते हैं तब किसी योग्य गुरु से इस मंत्र का दीक्षा दिलाकर आपके सारे मनोरथ पूर्ण करते हुए सद्गति प्रदान करते हैं। साधक को माया बीज प्राप्त हो जाने पर भी अगर गुरु और ईष्ट देवता के प्रति पुर्ण विश्वास और श्रद्धा उत्पन्न नहीं होता तब वह जनसामान्य की भांति अनेक लोगों का आश्रय अनेक देवी देवताओं को ढूंढने में मग्न रहता है फिर उसकी दशा जंगल में भिख मांगने वाले भिखारी की तरह हो जाता है जहां उन्हें भिख देनेवाला तो नहीं मिलता लेकिन प्रयाण लेनेवाला हिंसक जानवर जरूर मिल जाता है जो उसके जीवन लीला समाप्त कर देता है। जिस साधक को साधना करने में गुरु और ईष्ट देवता की प्रति समर्पित भाव नहीं आता मृगतृष्णा में बहते हुए भ्रमित जीवन जीते हुए भटकता रहता है स्वयं को गुरु आज्ञा पालन न करने कारण शिव के कोप कोप का शिकार हो जाता है। दुःख ही प्राप्त होता रहता है दुःख पुर्वक मृत्यु को प्राप्त करने हेतु विवश हो जाता है मरने के बाद उसकी आत्मा प्रेत बनकर भटकते रहते हैं। अतः जो साधक गुरु आज्ञा का पालन नहीं करते अपनी विचारधारा के अनुसार चलते हुए भटक रहे हैं उन्हें समय रहते सम्भल जाना चाहिए। विचारों के दल-दल से सिर्फ गुरु आज्ञा पालन से ही निकला जा सकता है। प्रारब्ध कर्म से निवृत्त गुरु आज्ञा में स्थित होकर ईष्टप्राप्ति से ही संभव है। साधक को गुरु ईष्ट-मंत्र-से एकनिष्ठ होना बहुत जरूरी है क्योंकि आपके दुर्भाग्य हमेशा आपके साथ ही मौजूद रहेंगे मृगतृष्णा में बहते हुए साधक उसे नहीं समझ पाते हैं।
कहा गया है जब विपत्ति आनेवाली होती है तो हितकारी ही मेरे विपत्ति में सहयोग करने वाले हो जाते हैं। जैसे गाय के थन में दुध लाने के लिए बछड़े को उपयोग किया जाता है जब गाय के थन में दुध निकालना होता है तो बछड़े को गाय के टांग में बांधकर दुध निकालना होता है।
ठीक उसी तरह जब हमपर विपत्ति आती है तो मेरा दुरूपयोग किया जाता है हम गुरु आज्ञा न मानकर ईष्ट पर श्रद्धा न रखकर अन्य व्यक्ति के विश्वास में पड़ कर ईष्ट पर श्रद्धा न रखकर अन्य देवताओं खुश करने की कोशिश करने लगते हैं। यानि तो प्रतिफल प्राप्त नहीं होता है या मेरा दुरूपयोग करने वाले मेरा दुर्भाग्य उसे हमसे छिन लेता है।
ऐसे अभागे साधक कभी -कभी इस हद तक गिर जाता है कि वह गुरु आज्ञा पालन बाद में करेंगे उनकी आज्ञानुसार ईष्टप्राप्ति बाद में करेंगे पहले अपने विचारों को पुरा तो कर लें। ऐसा सोचकर वह गुरु और ईष्ट को प्रतिक्षा में रख देते हैं। मां फिर ईष्ट या गुरु आज्ञा की खानापूर्ति करते रहते हैं।उस अभागे को यह ज्ञान ही नहीं रहता है कि हाथ जोड़ कर विनम्र निवेदन करके गुरु सेवा करते हुए अपने आप को गुरु को समर्पित करते हुए उनकी आज्ञा मांगना चाहिए ताकि अपने जीवन काल को सुखपूर्वक जीवन बिताते हुए ईष्टप्राप्ति क्रिया में स्थित हो सके।
गुरु अगर दया करके उसे। मार्गदर्शन करते भी हैं तो वह अभी उनकी आज्ञा पालन अभी वह क्यों नहीं कर सकता इसका कारण बताने लगता है। अगर आवश्यक हुआ तो सबकुछ चुपचाप सुनकर कुछ भी नहीं करने पर अपने आप को राजी कर लेता है।
फिर खोजने में व्यस्त हो जाता है ताकि कोई मेरे अनुसार मुझे सलाह दे। कोई देवी देवता मेरी मनोकामना पूरी करदे। मृगतृष्णा में भटकने लगता है। सही गुरु शिष्य की आज्ञा पालन करने में सक्षम नहीं होते । गुरु अपनी आज्ञा पालन में रखकर शिष्य को सत्य का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैैं। प्रकृत के ऐसे प्रपंच जो साधक को अपनी सुविधानुसार ईच्छापुर्ती हेतु तत्पर रखता है लेकिन गुरु और ईष्ट से दुरी बनाये रखता है।
ऐसे विचार में भटकने पर साधक स्वयं को ज्ञानी और वीर की संज्ञा भी दे सकते हैं।उस ज्ञान ही नहीं रहता कि गुरु ही शिव हैं ,शिव ही मानव शरीर में गुरु हैं।शिव ही कल्याण कर सकते हैं। गुरु अपने शिष्यों को जागृत करके ही शक्ति बीज का दीक्षा देकर उचित मार्गदर्शन करते हुए शिव बना देते हैं। अतः साधकों को सावधान रहते हुए निम्न प्रकार से मंत्र विन्यास को गुरु मुख से सुनकर आत्मसात् कर लेना चाहिए।
व्याकरण की दृष्टि से इस महान बीज मंत्र का विन्यास है।
वियद इकार संयुक्तम वीतिहोत्र समंवितं ।
अर्धेन्दु लसितं देव्या बीजं सर्वार्थ साधकं ।।
वियद इकार सयुंक्त – वियद अर्थात आकाश,
आकाश तत्व का बीज मंत्र है “ह” ,
“ह” बीज से ईकार अर्थात ई की मात्रा संयुक्त हुई।
ईकार अर्थात मातृ शक्ति। अर्थात पालन करने की शक्ति।
अब आकाश तत्व के बीज मंत्र से ई-कार सयुंक्त हुआ जिससे शब्द होगया “ही”।
मन्त्र में है कि “वीतिहोत्र समंवितं”।
वीतिहोत्र अर्थात अग्नि, अग्नि का बीज मंत्र है “र”।वियद और ईकार युक्त शब्द में अग्नि के बीज मंत्र का समन्वय हुआ और शब्द हो गया “ह्री” “अर्धेन्दु लसितं”,अर्ध अर्थात आधा और इंदु अर्थात चन्द्रमा,ईस तरह अर्धेन्दु अर्थात अर्ध चन्द्र बिंदु।लसितं अर्थात चमकना अर्थात प्रकाशित होना,
इस तरह वियद, ई कार और वीतिहोत्र युक्त शब्द“ह्री” पर अर्ध चन्द्र बिंदु स्थापित हुआ।चंद्र बिंदु स्वयं देवी रूप है।
सुधा अक्षरे त्वमेव त्रिमात्रात्मिका स्थिता ।
अर्ध मात्रात्मिका स्थिता यानुचार्या विशेषतः ।।
अर्थात सुधा अक्षर (ॐ) की तीनों मात्रा (अकार, उ कार, मकार ) एवं अर्धमात्रा (चन्द्रबिन्दु ) जिसका कोई स्वतंत्र उच्चारण नहीं है वह भी, हे देवी साक्षात् आपका ही स्वरूप है।
वर्णमाला में बिंदु का स्वयं कोई स्वतंत्र उच्चारण नहीं है, जिस वर्ण पर लगती है उसके अनुसार ही वर्ण के उच्चारण को प्रकट करती है। शक्ति को धारण करने हेतु शक्तिमान की आवश्यकता होती है।इस तरह से सर्वार्थ साधक देवी बीज मंत्र “ह्रीं” का विन्यास हुआ ।
ऐंकारी सृष्टि रूपाय ह्रींकारी प्रतिपालिका ।
क्लींकारी कामरूपण्ये बीज रुपे नमोस्तुते ।।
ऐं बीज से अष्टधा सृष्टि उत्पन्न होती है, ह्रीं बीज से पालन होता है, क्लीं बीज से कामनाएं जाग्रत होती है।
इस प्रकार “ह्रीं” बीज पालक शक्ति युक्त एवं आकाश व अग्नि तत्व निर्मित बीजासन पर अर्ध-चन्द्र रूप में विराजमान देवी स्वरूप का मूर्त रूप है। जो सभी इच्छओं को पूर्ण करने में समर्थ है। बीज मंत्र (ह्रीं ) यह महाशक्तिशाली बीज मन्त्र मायाबीज है जो है ह्रीं – ह् = शिव, र् = प्रकृति, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है। सम्पूर्ण बीज मंत्र अर्थ : हे भगवान शिव , मेरे दुखो को हरो । मंत्र का अर्थ : श् महालक्ष्मी के लिए , र् = धन सम्पति को , ई = महामाया, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है।
शिव स्वरूप शरीरधारी गुरु की सहायता से ही माया बीज मंत्र को स्थिरता आ सकती है ।बहुनिष्ठ साधक तो साधना करने के समझ में समय नष्ट कर लेते हैं हैं ।यह देवी भुवनेश्वरी का बीज मंत्र है और यह आपको किसी भी क्षेत्र में अग्रणी बनाने की शक्ति रखता है। इसे अपने भीतर नेतृत्व गुणों को विकसित करने के लिए सबसे अच्छा मंत्र कहा जाता है।
जय जय मांँ भुवनेश्वरी

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