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पापी मौज में, पुण्यात्मा कष्ट में. ये कैसा न्याय! ईश्वर हैं भी या नहीं?
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आपके मन में कभी भी ऐसे प्रश्न आते हैं क्या- मैं तो इतनी पूजा-पाठ, भक्ति भाव में लीन हूं फिर भी मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?

भगवान सारी परेशानियां मुझे ही क्यों देते हैं? दुष्ट लोग इतने सुखी हैं और धर्मात्मा ही सारे कष्ट भोग रहे हैं. ये क्या हो रहा है, क्यो हो रहा है?

यदि ऐसा ही ईश्वर का न्याय तो मैं क्यों मानूं उन्हें, क्यों भजूं, क्यों जपूं, क्यों करूं पूजा? ईश्वर के पास तो न्याय है ही नहीं, ईश्वर तो निष्ठुर हैं. पत्थर की मूर्तियों में बसके पत्थर हो गए हैं…. आदि, आदि…

ऐसे प्रश्न अक्सर लोगों के मन में आते हैं खासकर तब जब वे बहुत परेशान होते हैं और दूसरों को सुखी देखते हैं. मनुष्य अपने सुख से ही संसार को सुखी मानता है, अपने दुख से ही संसार को व्यर्थ. यह सब स्वाभाविक है. तो आपके मन में जो प्रश्न आते हैं आज उनके निदान का कुछ प्रयास किया जाए. ध्यान से पढ़िएगा।

बहूदक नामक का एक तीर्थ था. यहां नन्दभद्र वैश्य रहते थे. धर्माचारी, सदाचारी पुरूष. उनकी साध्वी पत्नी का नाम कनका था. नंदभद्र चंद्रमौलि भगवान् शंकर के बड़े भक्त थे।

बहुदक में कपिलेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध शिवलिंग था. नंदभद्र तीनों समय कपिलेश्वर की पूजा किया करते थे. नंदभद्र कम से कम लाभ लेकर माल बेचा करते थे और ग्राहकों के साथ बराबरी और ईमानदारी का व्यवहार रखते।

गलत माल और बुरा सामान नहीं बेचते और जो कुछ मिल जाता उसी में संतुष्ट रहते थे. नंदभद्र का जीवन संन्यासियों जैसा था, सब नंदभद्र का सदाचारी, सम्पन्न, सुखमय जीवन की प्रशंसा करते।

नंदभद्र के पड़ोस में रहने वाला सत्यव्रत जो बड़ा ही नास्तिक एवं दुराचारी था, उनसे जलता था. सत्यव्रत चाहता था कि किसी प्रकार नंदभद्र का कोई दोष दिख जाए तो उसे धर्म के मार्ग से गिरा दूं।

नंदभद्र पर झूठे आरोप लगाना और सदा उनके दोष ही ढ़ूंढते रहना उसका स्वभाव बन गया था. दुर्भाग्यवश अचानक नंदभद्र का इकलौता पुत्र गम्भीर रूप से बीमार हो गया. नंदभद्र ने दुर्भाग्य मान शोक नहीं किया।

पुत्र के बाद उनकी पत्नी कनका भी गंभीर रूप से बीमार हो गयी. नंदभद्र पर विपतियां आयी देखकर उनके पड़ोसी सत्यव्रत को बड़ी खुशी हुई. उसने सोचा कि शायद नंदभद्र को धर्म से भटकाने का यही अवसर है।

उसने नन्दभद्र को सांत्वना देने का ढोंग करते हुए कहा- तुम्हारे जैसे धर्मात्मा को यह दु:ख उठाना पड़ रहा है. लगता है कि धर्म कर्म सब ढकोसला है. कई बार सोचा कि मैं तुमसे कहूं पर संकोचवश कहा नहीं।

दिन में तीन बार पूजा, स्तुति सब व्यर्थ है. भैया नंदभद्र! धर्म के नाम पर क्यों इतना कष्ट उठाते हो? जब से तुम इस पत्थर-पूजन में लगे हो, तब से कोई अच्छा फल तो मिला नहीं इकलौता पुत्र और पत्नी दोनों बीमार हैं. भगवान् होते तो क्या ऐसा फल देते?

पुण्य और पाप सब कुछ कल्पना है. नंदभद्र! तुम्हें तो मेरी यही सलाह होगी की झूठे धर्म को छोड़ आनंदपूर्वक खाओ, पीओ और भोगो, यही सत्य है।

सत्यव्रत की बातों का नंददभद्र पर कोई प्रभाव न पड़ा।

वह बोले-सत्यव्रतजी! आप अपने आप को ही धोखा दे रहे हैं. क्या पापियों पर दु:ख नहीं आते? क्या उनके पुत्र, स्त्री बीमार नहीं होते? जब सज्जन दु:खी होता है, तो लोग सहानुभूति जताते हैं. पर दुराचारी के दुःख पर कोई सहानुभूति नहीं दिखाता. अत: धर्म पालन करने वाला ही ठीक है. अंधा सूर्य को नहीं जानता, पर सूर्य तो है. ईश्वर के बिना संसार का संचालन नहीं हो सकता।

सत्यव्रत ने उसे टोक कर पूछा- देवता हैं तो दिखायी क्यों नहीं देते?

नंदभद्र ने कहा- देवता आपके पास आकर याचना नहीं करेंगे कि हमें आप मानिए. बातचीत बहस में बदलने लगी।

नंदभद्र अधिक विवाद नहीं चाहते थे, उठकर चले गये. पर उनके मन में यह विचार आया कि भगवान् सदाशिव का साक्षात् दर्शन करके पूछूं- आप आपके बनाये संसार सुख-दु:ख, जन्म-मरण आदि क्लेश क्यों है? यह दोषरहित क्यों नहीं है।

नंदभद्र शिवमंदिर आये. कपिलेश्वर लिंग की पूजा भगवान के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे. सोच लिया कि जब तक भोलेनाथ दर्शन नहीं देंगे, तब तक मैं ऐसे ही खड़ा रहूँगा. लगातार तीन दिन और तीन रात नंदभद्र वैसे ही खड़े रहे।

चौथे दिन एक बालक उस मंदिर में आया. वह गलितकुष्ठ का रोगी भयानक पीड़ा से कराह रहा था।

उसने नंदभद्र से पूछा- आप इतने सुंदर एवं स्वस्थ हैं, फिर भी आप दुःखी क्यों लग रहे है?

नंदभद्र ने अपना संकल्प उसे बताया।

बालक ने कहा- अनचाहे का मिलना और मनचाहे का बिछुड़ना, इससे मानसिक कष्ट होता है. रोग और परिश्रम से शरीर को कष्ट होता है. मानसिक कष्ट से शारीरिक होता है और यदि शरीर में कष्ट हो तो मानसिक कष्ट होना स्वाभाविक ही है. दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं।

फिर क्या किया जाए?- नंदभद्र ने पूछा

बंधुवर औषधि से शारीरिक कष्ट दूर होते हैं पर मानसिक कष्ट तो ज्ञान से ही दूर होता है. मस्तिष्क को यदि ज्ञान की सही खुराक दी जाए तो वह कष्ट मुक्त हो जाता है।

बालक से ज्ञान भरी बात सुनकर नंदभद्र ने फिर पूछा- ज्ञानी बालक! आपकी बात से सहमत हूं, पर एक प्रश्न है. इस लोक में पापी मनुष्य भी इतने धनी और सुखी क्यों होते हैं? जबकि उन्हें तो उनके कर्मों के कारण कष्ट में होना चाहिए था, भगवान के विधान में यह दोष क्यों?

बालक ने कहा- सुख और दुख किसे कहते हैं यह समझ का फेर है. मैं आपको थोड़ा विस्तार से बताता हूं।

संसार में चार प्रकार के लोग हैं. पहले वे जिनके लिए इस लोक में तो सारे सुख सुलभ हैं, धन-दौलत, सत्ता, प्रभाव, बाहुबल सब कुछ परंतु परलोक में उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होता. उनके पूर्वजन्मों के जो पुण्य शेष हैं, उसे वह इस लोक में भोग रहे हैं लेकिन वे नए पुण्य नहीं कमाते. ऐसे लोगों का सुखभोग केवल इसी लोक तक है. अगले जन्म के लिए वे कुछ शेष छोड़कर नहीं जा रहे तो उनका अगला जन्म बिल्कुल उसी रूप में होगा जिसे देखकर आज वे कांपने लगें।

दूसरे, वे लोग हैं जिनके लिए परलोक में सुख का भोग सुलभ है परंतु इस लोक में नहीं क्योंकि उनके पिछले जन्म के संचित पुण्य हैं ही नहीं. वे तपस्या करके नए पुण्य कमाते हैं. उससे परलोक में सुख का भोग प्राप्त होगा. तपस्या से अर्थ केवल देव साधना ही नहीं होता, कर्म साधना भी तप है. उचित कर्म किसी भी तप से कम नहीं क्योंकि इस संसार में रहते हुए सही मार्ग पर चलना कठोर साधना से ज्यादा कठिन है।

तीसरे, वे लोग हैं जिनके लिए इस लोक में भी और परलोक में भी सुख भोग मिलता है क्योंकि उसका पहले का किया हुआ पुण्य भी विद्यमान है और इस लोक में आकर भी वे उत्तम मार्ग का अनुसरण करते हुए कर्मतप से नये पुण्य बनाते रहते हैं. ऐसे लोग कोई-कोई ही होते हैं।

चौथे, वे जिनके लिए न तो इहलोक में सुख है और न परलोक में ही क्योंकि उनके पास पहले का कोई पुण्य संचित तो है नहीं और इस लोक में भी वे पुण्य कमा नहीं रहे. ऐसे नीच जनों को धिक्कार है. वे सर्वदा त्याग के योग्य हैं और इस लोक में अपमानित होते हुए ही जीवन बिताते हैं और न जाने कितने जीवन ऐसे ही बीतेंगे तब तक जब तक कि मेरी तरह उन्हें किसी तपस्वी का मार्गदर्शन न प्राप्त हो जाए।

इसलिए हे वैश्यवर! आप अपने पड़ोसियों, मित्रों द्वारा कही बात को मन में रखो ही नहीं. उन्हें तो अपने कान में भी प्रवेश न करने दो. आप इस जन्म में भगवान सदाशिव के भजन में लग जाएं जिससे आप जन्म के बंधन से ही मुक्त हो सकते हैं।

एक छोटे बालक के मुख से ऐसी ज्ञानमयी और रहस्यपूर्ण बातें सुनकर नंदभद्र बड़े प्रसन्न हुए. उनका सारा भ्रम सारी शंका का निवारण हो चुका था।

उन्होंने चकित होकर पूछा – आप कौन हैं, अपना परिचय दें. आप यहां कैसे पधारे है? आपने मेरे सब संदेहों को दूर कर दिया. इतनी कम आयु में इतना ज्ञान आपको कैसे सुलभ हुआ?

बालक ने कहा- पूर्वजन्म में मैं अहंकारी, पाखण्ड़ी, व्याभिचारी था. जिसके चलते मैं वर्षो से नीच योनियों में भटका. भगवान व्यासदेव की ऐसी कृपा कि वे हर योनि में मुझे मुक्तिमार्ग बता देते हैं. उन्होंने ही मुझे आपके पास भेजा है. अब मैं सात दिन के बाद इसी तीर्थ में मरुंगा. आप मेरा अन्तिम संस्कार कर दीजिएगा।

वैश्यवर! ज्ञान का आयु से कोई संबंध नहीं है. ईश्वर को जिसे ज्ञान प्रदान करना होता है, जिसे माध्यम बनाकर उसे अपने भक्तों को जाग्रत करना होता है उसे चुन लेते हैं. वह कोई भी हो सकता है. मेरे जैसा कुष्ठ पीड़ित जीव भी. अतः सहज भाव से स्वीकार करना चाहिए और ज्ञान जिससे भी मिले उसके प्रति विनीत रहना चाहिए. ऐसा करने से ईश्वर सदा आपको ज्ञानवान बनाए रखते हैं, किसी न किसी को भेजते रहते हैं।

इतना बताकर उस बालक ने सूर्य मंत्र का जप करना आरंभ किया. कुष्ठ के निवारण के लिए सूर्यमंत्र का जप ही किया जाता है. भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र सांब ने भी सूर्य की उपासना से कोढ़ से मुक्ति पाई थी।

सातवें दिन उस बालक ने अपने प्राण त्याग दिए. नंदभद्र ने विधिपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार किया।

नंदभद्र को जीवन की सचाई और सार्थकता का बोध हो गया था. शेष जीवन उन्होने भगवान् शिव और सूर्य की उपासना में लगा दिया तथा अन्त में जीवन मरण से मुक्ति पाकर भगवान शिव का साक्षात प्राप्त किया. (स्कन्दपुराण की कथा)

स्कंद पुराण की इस कथा से आपके मन के बहुत से भ्रम दूर हुए होंगे ऐसी ही आशा है। आपको जीवन में क्या मार्ग अपनाए रखना है इसका भी संकेत मिला होगा. पुराणों की कथाओं में जीवन के अनमोल रहस्य सांकेतिक रूप से दिए गए हैं.। फेसबुक के माध्यम से मैं वहीं प्रयास करता हूं कि कथा से ज्यादा कथ्य यानी जो बात कहने की कोशिश की गई होगी उसे समझा जाए, बताया जाए, अपनाया जाए।


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