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एक पुरानी कहावत है कि नाग को पिटारी में बंद कर देने से उसका जहर दूर नहीं हो सकता, अर्थात जोर जबरदस्ती से अपनी इच्छाओं का दमन करने से इच्छायें और अधिक विकराल रूप ले लेती है, जिन्हें हम कुंठायें भी कहते है, इसलिये जो मनुष्य अपनी कामनाओं को अपने नैतिक आदर्शों के अनुरूप सही दिशा में देश, काल और परिस्थितिओं के अनुकूल, बिना लिप्तता के ढाल लेता है, तो उसे संयमित व्यक्ति कि संज्ञा दी जाती है।

जो व्यक्ति अपनी कर्मेंदियों एवं ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति का प्रयोजन नियत और निम्मित कर्मो की ओर निर्धारित कर लेता है, उस व्यक्ति के लिये संयम कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं रह जाती है, ऐसा मनुष्य अपने इन्द्रिय आवेगों को संयमित करके जिस दिशा में चाहे मोड़ सकता है, वास्तव में यही स्थिति संयमित जीवन कहलाती है।

किसी भी इच्छा, कामना या आवेग का स्थायी रूप से लोप नहीं हो सकता, उन्हें दबाकर पूरी तरह नष्ट नहीं किया जा सकता, उनकी केवल दिशा बदली जा सकती है, उन्हें केवल संयमित किया जा सकता है, आवेगों को पूरी तरह समाप्ति या दमन व्यक्ति के मन में भयंकर कुंठाये भर देती है, कुंठाग्रस्त मन हमेशा ही अपने विनाश को आमंत्रित करता है।

विषयान्प्रति भो पुत्र सर्वानेव हि सर्वथा।
अनास्था परमा ह्रोषा युक्तिर्मनसो जये।।

जब मनुष्य स्वयं के विनाश को आमंत्रित करता है तब इसी का विस्तार होकर समाज और राष्ट्र के विनाश का रास्ता खुल जाता है, भारतीय समाज में ऋषि-मुनियों ने संयम की उपयोगिता को आदिकाल से महत्व दिया है, सभी विषयो के प्रति अनास्था रखने वाला ही जितेन्द्रिय कहलाता है, या इसे दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते है कि सदैव वासना का त्याग ही संयम कहलाता है।

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रक्रितेज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहःक़ि करिष्यति।।

भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं- कामनाओं, इच्छाओं, मनावेगों को व्यक्ति का शत्रु मानना उचित नहीं है, बल्कि इन मनावेगों को सकरात्मक तथा योग में लगाना ही सच्चा संयम है, यहाँ यह बताना भी आवश्यक जान पड़ता है क़ि वास्तव में योग क्या है? “कर्मशु: कौशलं योगः” अर्थात कर्मों की कुशलता ही योग है।

कर्मों की कुशलता क्या है? भोग और योग दोनों विपरीत अर्थी शब्द है, नियत और निम्मित कर्म करना ही कुशलता है, और अनियत और अनिम्मित कर्म करना ही अकुशलता है, अब यह स्पष्ट है क़ि नियत और निम्मित कर्म ही कुशलता है, और यही योग है, दूसरी ओर अनियत ओर अनिम्मित कर्म ही अकुशलता और यही भोग कहलाता है।

इसलिए अर्जुन को बार-बार श्रीकृष्ण अर्जुन योगी कह कर योग में लगाना चाहते है, मनुष्य अपने स्वभाव यानि अपनी प्रकृति के परवश हुआ कार्य करता है, पितामह भीष्म ने तो यहाँ तक कहा है क़ि मनुष्य तो मूढ़ता वश कर्तापन का बोध लिये फिरता है, जबकि वास्तव में तो मनुष्य का स्वभाव आगे-आगे चलता है, और मनुष्य अपने स्वभाव के पीछे-पीछे अनुगमन करता है, अब स्वभाव या प्रकृति क्या है ,यह भी एक सवाल होसकता है?

“स्वभाव अध्यात्मोच्चते” अर्थात स्वभाव तो आत्मा कि अधीनता यानि आत्मा की बात सुनने को कहते है, परकृत या स्वभाव तो स्वयं अपने गुणों में प्रवृत होता है, जबकि जीवन स्वयं भी एक आवेग या प्रवृति के सिवाय कुछ भी नहीं है, पूर्ण निवृति तो बिना मृत्यु के संभव ही नहीं है।

हटात या बलात हम मनावेगों को समाप्त नहीं कर सकते, बलपूर्वक निरोध एक ऐसी मानसिक क्रिया है, जिससे कुंठा मस्तिष्क में घेरा जमा लेती है, और हम अपनी आत्मा के भावों यानि अपने स्वभाव, प्रकृति के विपरीत आवेगों को अपने चित्त (चेतन मन) से निकालकर, अपने अचेतन मन जिसे विपरीत बुद्धि भी कहा गया है की और धकेल देते है।

यहाँ यह अचेतन मन यानि विपरीत बुद्धि उन्हें अपने जेहन में सुरक्षित रखती है, जैसे कोई संपेरा सर्प को पिटारी में बंद कर लेता है, किन्तु इस पिटारी में बंद होने पर भी उस बिषधर का बिष दूर नहीं होता और वह अपने विष सहित बैठा रहता है ,किन्तु जैसे ही वह पिटारे से बहार निकलता है, तो वह और अधिक वेग से बिष की फुहार छोड़ता है।

वैसे ही कुंठित मन अपनी दमित कामनाओं का अवसर मिलते ही नैतिक, अनैतिक का विचार किये बगेर भोगना आरंभ कर देता है, इसी प्रकार हमारे अचेतन मन में बहुत सी दमित कामनायें, जहरीली नागिनो की तरह घर किये होती है, अनेक तरह की भावनायें,यौन आकर्षण हमारे मन की अँधेरी गुफाओं में पलते रहते है, इनसे बचने का एक मात्र उपाय है कि हमें हमेशा सहजता को अपनाना चाहियें।

सहजता क्या है? यह भी अपने आप में एक सवाल है? सहजता का अर्थ है- “सहजं” यानि जन्म सहित, जन्म के साथ उत्पन्न कोई व्यवहार, प्रकृति या भाव, जैसे बतख का बच्चा जन्म से तैरना सीख कर पैदा होता है, बिल्ली का बच्चा दौड़ना छलांग लगाना या वृक्षों पर चढ़ना, ऐसे कार्य और व्यवहारों में सुगमता महशुश होती है।

जिन्हें व्यक्ति अपने पूर्वजो से विरासत के रूप में जन्म के साथ लेकर पैदा होता है, यह शुद्ध वैज्ञानिक तर्क है, अतः भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है कि “सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न तज्येत:” अर्थात जन्म सहित उत्पन्न कर्म चाहे दोष युक्त हो उसे नहीं त्यागना चाहिये, अतः जीवन में सहजता का अपनाने से कामनायें, मनोवेग एवम् इच्छायें स्वतः ही संयमित होजाती है।

      

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