मणिकर्णिका घाट स्नान
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यहां शव से पूछते हैं ‘क्या उसने शिव के कान का कुंडल देखा’ ………
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मणिकर्णिका घाट, यहां स्नान करने का हिंदू धर्म में बहुत महत्व है। काशी में यह सबसे प्रसिद्ध और पुरातन श्मशान घाट है..
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कार्तिक माह शुक्ल पक्ष की चौदस, वैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन यहां स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। यहाँ मणिकर्णिका स्नान का बहुत महत्व है, श्मशान अतिप्राचीन बताया जाता है। कहा जाता है कि यहां भगवान शिव अपने औघढ़ स्वरूप में सदैव ही निवास करते हैं..
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इस श्मशाम में चिता की आग कभी ठंडी नही होती। यहां अंतिम क्रिया के बाद मृतक को सीधा मोक्ष प्राप्त होता है। यहां शिव और मां दुर्गा का प्रसिद्ध मंदिर है। जिसे मगध शासकों ने बनवाया था। यहां अंतिम क्रिया की परंपरा करीब 3 हजार साल पुरानी बताई जाती है..
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यहीं गिरा था माता सती का कुंडल………
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एक पौराणिक कथा के अनुसार माता सती के स्वयं को अग्नि को समर्पित करने के बाद शिव उनका शरीर लिए हजारों साल तक भटकते रहे। तब भगवान विष्णु ने सती के शरीर को सुदर्शन से खंड-खंड कर दिया। जिसके बाद 51 शक्तिपीठों का निर्माण हुआ।
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काशी के इस घाट पर माता सती के कान का कुंडल गिरा था। इसी कारण इसे मणिकर्णिका घाट कहा जाता है।
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योगनिद्रा से जागकर किया था शिव ने स्नान……
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इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि भगवान शिव सती के जाने के बाद लाखों वर्षों तक योगनिद्रा में बैठे रहे। तब भगवान विष्णु ने अपने चक्र से एक कुंड बनाया जहां योगनिद्रा से उठने के बाद शिव ने स्नान किया। उसी कुंड में भगवान शिव का कुंडल खो गया जो आज तक नहीं मिला। तभी से इसे मणिकर्णिका घाट कहा जाता है और कार्तिक मास की चैदस को यहां स्नान पुण्यकारी माना गया है ऐसा भी कहा जाता है कि जब भी यहां जिसका दाह संस्कार किया जाता है..
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अग्निदाह से पूर्व उससे पूछा जाता है, क्या उसने भगवान शिव के कान का कुंडल देखा।
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मणिकर्णिका घाट का स्नान स्वयं भगवान विष्णु ने किया था। यहां वैकुण्ठ चौदस की रात्रि के तीसरे प्रहर पर श्रद्धालु स्नान करने आते हैं। कार्तिक माह में यहां हजारों की संख्या में भक्त एकत्रित होते हैं।