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अंतःकरण क्या है?
मन बुद्धि चित्त और अहंकार क्या है?
मोटे तौर पर यदि देखा जाये तो मानव शरीर जड़ और चेतन का सम्मिलित रूप है । मानव शरीर के इन दोनों भागों को स्थूल और सूक्ष्म शरीर में बांटा जा सकता है । स्थूल शरीर के अंतर्गत हाड़ – मांस और रस – रक्त से बनी यह मानव आकृति आती है । लेकिन स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर के बिना कुछ भी नहीं है या यूँ कह लीजिये कि चेतना के कारण ही स्थूल शरीर का अस्तित्व है । इस चेतना को ही आत्मा कहा जाता है ।
यह चेतना या आत्मा ही शरीर में विभिन्न भूमिकाएँ निभाती है, जिन्हें सम्मिलित रूप से अंतःकरण चतुष्टय या मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार कहा जाता है । कहने को बस नाम अलग अलग है लेकिन इनके पीछे मूल रूप से कार्य करने वाली चेतना “आत्मा” ही है ।
तो आइये जानते है, आखिर ये चारों है क्या ? और कैसे इनकी भूमिकाएं निश्चित की जाती है ?
मन – मन को समझने के लिए एक बात दोहराइए – “मेरा मन कर रहा है ?” तो सोचो ! मन क्या – क्या कर सकता है ? यही से हमें जवाब मिलना शुरू हो जाते है । मन इच्छा कर सकता है । कुछ खाने की, घुमने की, सुनने की, देखने की, खेलने की इत्यादि कुछ भी । दूसरी बात मन कल्पना कर सकता है या अनुमान लगा सकता है । कल्पना करने में मन का कोई सानी नहीं । मन की गति से तेज शायद कुछ भी नहीं । आपके सोचते ही मन क्षण भर में पूरी दुनिया के चक्कर लगा सकता है । मन आपकी सारी इन्द्रियों के विषयों को याद रख सकता है । जरूरत पड़ने पर उन विषयों का अनुभव आपको करा सकता है । मन ही आपको किसी विषय के प्रति प्रेरित करता है । इसीलिए मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय भी कहा जाता है । मन चंचल है, क्योंकि जागृत और स्वप्नावस्था में वह कभी नहीं रुकता । मन एकांगी है, क्योंकि एक क्षण में मन केवल एक ही विषय को सोचता है । यह तो हो गई मन के गुणों की बात अब जानते है । मन के द्वारा होने वाले उचित और अनुचित कर्मो के बारे में ।
गीता में कहा गया है – “मन एवं मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयो” अर्थात मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है । पिछले एक लेख में हमने जाना था – इच्छा और आवश्यकता के बारे में । एक महत्वपूर्ण बात जो आपको हमेशा याद रखनी चाहिए और वह यह है कि – “हर आवश्यकता एक इच्छा होती है, किन्तु हर इच्छा एक आवश्यकता हो, यह जरुरी नहीं ।” यही बात है जो आपको मन को समझने में सहायता करेंगी । यदि अंधे होकर मन की इच्छाओं का अनुगमन किया जाये तो मन से बड़ा शत्रु कोई नहीं और यदि सचेत होकर अपनी आवश्यकताओं के अनुसार मन की इच्छाओं का अनुगमन किया जाये तो उससे बड़ा कोई मित्र भी नहीं है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप अपने मन पर कितना ध्यान देते है ।
बुद्धि – बुद्धि को यदि विवेक का नाम दिया जाये तो समझने में ज्यादा सुविधा होगी । बुद्धि कहते है – निर्णय करने की क्षमता या इसे मानव मस्तिष्क में बैठा न्यायधीश भी कहा जा सकता है । बुद्धि की सबसे बड़ी ताकत तर्क है । यह बुद्धि ही है जो आपके मन की इच्छा और आवश्यकता में अंतर करने की क्षमता रखती है । किसी भी बात का निर्णय करने में बुद्धि ज्ञान, अनुभव, कारण, प्रमाण, तत्थ्य, तर्क, पात्र, क्षमता और परिस्थिति आदि मापदंडो का उपयोग करती है । सामान्य मनुष्यों की बुद्धि के दो पक्ष होते है – श्रेय और प्रेय । श्रेय – अर्थात आत्मा के अनुकूल या परमार्थ बुद्धि और प्रेय – अर्थात मन के अनुकूल या सांसारिक स्वार्थ बुद्धि । लेकिन उच्चकोटि के योगी और समाधि लभ्य मनुष्यों की बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा स्तर की होती है । यह सब मनः क्षेत्र में लोक अदालत की तरह चलता है । जहाँ विभिन्न इच्छाओं के विभिन्न मुकदमे चलते है । जो बुद्धि रूपी न्यायधीश के सामने उन इच्छाओं की विषयों रूपी वकीलों द्वारा पेश किये जाये है ।
चित्त – स्वभाव, आदतों और संस्कारो के समुच्चय को चित्त कहते है । हर इच्छा बुद्धि रूपी न्यायाधीश से गुजरने के बाद कार्य रूप में परिणत होती है । लम्बे समय तक एक ही प्रकार की इच्छाओं के कार्यरत होने से मनुष्य को उनकी आदत हो जाती है । जो विचार, आदत या संस्कार चित्त में पड़ जाता है, उससे पीछा छुड़ाना बहुत कठिन होता है । कमजोर मनोबल वालों के लिए तो लगभग असंभव होता है ।
मनुष्य के इसी चित्त को चित्रगुप्त देवता कहा जाता है । जो उसके पाप और पूण्य का लेखा – जोखा रखता है । क्योंकि जो कुछ भी अच्छा या बुरा, इच्छा के रूप में प्रकट होकर बुद्धि की लक्ष्मण रेखा को पार करके चित्त में डेरा डाल लेता है । वही हमारे प्रारब्ध या कर्माशय का निर्माण करता है । मस्तिष्क में सकारात्मक या नकारात्मक विचारो के आने से कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक कि आप उसे बुद्धि की लक्ष्मण रेखा को पार करके अपने चित्त रूपी चित्रगुप्त में स्थान नहीं दे देते है । जब कोई इच्छा या विचार चित्त में आ जाता है तो वह आदत या संस्कार के रूप में अपनी जड़े जमा लेता है, जो उसी प्रकार के आदत और संस्कारों को बढ़ावा देता है जब तक कि उसे जड़ मूल से उखाड़कर न फेंक दिया जाये । चोरी, व्यभिचार, चटोरापन, हिंसा, दुराचार, नशाखोरी, क्रोध, लोभ आदि के संस्कार ऐसे ही है जो दीर्घकाल से चित्त में पड़े रहते है और समय आने पर स्वतः प्रकट हो उठते है ।
हमारे इसी चित्त में जन्म – जन्मान्तर के कुसंस्कार पड़े रहते है, जिनका परिशोधन और परिमार्जन करना ही मनोमय कोष की शुद्धि कहलाता है । जब तक आध्यात्मिक साधनाओं के माध्यम से मनोमय कोष की शुद्धि नहीं की जाती, तब तक कोई भी साधना प्रत्यक्ष रूप से लाभदायक प्रतीत नहीं होती क्योंकि उसकी सारी शक्ति हमारे मनोमय कोष को शुद्ध करने में लग जाती है । हमारे पापों का उन्मूलन करने में लग जाती है ।
अहंकार – अहंकार का मतलब होता है, अपने स्वयं के सम्बन्ध में मान्यता । जैसे खुद से के प्रश्न कीजिये कि “ मैं कौन हूँ ?” अब आपके सबके अलग – अलग जवाब होंगे । जैसे किसान, शिक्षक, डॉक्टर, इंजिनियर, मुखिया, सरपंच, मुख्यमंत्री, नेताजी, पिता आदि । यही अंतःकरण चतुष्टयं का चौथा भाग – अहंकार है । अगर आप गौर से देखे तो आपको पता चलेगा कि आपकी हर इच्छा का सम्बन्ध आपके अहंकार से है । जैसे एक करोड़पति अमीर व्यक्ति की इच्छाएं उसी के स्तर की होगी और एक गरीब मजदुर की इच्छाएं उसी के स्तर की होगी । मतलब हमारी इच्छाओं का हमारे अहंकार से गहरा नाता है । अब यदि ये कहा जाये कि एक आत्मज्ञानी व्यक्ति की इच्छाएं भी उसी के स्तर की होगी तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । इसलिए कहा जाता है कि जगत को दृष्टा भाव से देखे और स्वयं को आत्मा अनुभव करे ताकि आपकी इच्छाएं भी उसी स्तर की हो ।
आप स्वयं को पुरुष समझते है, इसीलिए आपका आकर्षण स्त्रियों के प्रति है । यदि आप स्वयं को आत्मा माने और हर स्त्री को आत्मिक दृष्टि से देखे तो आपकी कामुकता का निवारण पल भर में हो सकता है । बस अपना दृष्टिकोण बदलना है । मानाकि यह इतना सरल नहीं, लेकिन ये असंभव भी तो नहीं ।
अब तक की पूरी कहानी को अब हम एक उदहारण में समेटने की कोशिश करते है । मान लीजिये ! एक दिन आपको नशा करने का विचार आया । अब यह विचार कहीं से भी आ सकता है । जैसे कुछ लोगों को देखकर या आपके किसी दोस्त ने आग्रह किया हो । जैसे ही ये विचार आता है, इसके साथ एक इच्छा भी जन्म लेती है । उस इच्छा के साथ ही बुद्धि की लड़ाई शुरू हो जाती है । तरह – तरह की दलीले पेश की जाती है । यदि बुद्धि कमजोर रही तो वह उस इच्छा के पक्ष में अपना फैसला सुना देती है । बुद्धि की लक्ष्मण रेखा पार होते ही इच्छा कार्य रूप में परिणत हो जाती है । ये कार्य कुछ अच्छे और बुरे अनुभवो के रूप में आपके चित्त में संचित हो जाता है । अब जब कभी वही विचार और इच्छा दुबारा आती है तो उस पर उतनी बहस नहीं होती । अर्थात चित्त में उसका संस्कार थोड़ा दृढ़ हो जाता है । कुछ समय तक यही क्रम चलता रहता है । फिर कुछ समय बाद बुद्धि फैसला सुनाना ही बंद कर देती है या यूँ समझ लीजिये कि उस इच्छा या विचार के लिए बुद्धि मर जाती है और आपको उस नशे की लत लग जाती है । इसे कहते है संस्कारों का चित्त में जड़े जमाना ।
अब यदि आप अपने इस संस्कार के खिलाफ आवाज उठाना चाहते है तो आपको अपनी बुद्धि को फिर से जिन्दा करना पड़ेगा और तर्क, तथ्य और प्रमाण के साथ उसे मजबूत करना पड़ेगा ।