💐#भारतकीविश्वकोदेन :💐
💐#गणित_शास्त्र💐
गणित शास्त्र की परम्परा भारत
में बहुत प्राचीन काल से ही रही है।
गणित के महत्व को प्रतिपादित
करने वाला एक श्लोक प्राचीन
काल से प्रचलित है।
यथा शिखा मयूराणां
नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदांगशास्त्राणां
गणितं मूर्धनि स्थितम्।।
(याजुष ज्योतिषम)
अर्थात् जैसे मोरों में शिखा और
नागों में मणि सबसे ऊपर रहती
है,उसी प्रकार वेदांग और शास्त्रों
में गणित सर्वोच्च स्थान पर स्थित
है।
ईशावास्योपनिषद् के शांति
मंत्र में कहा गया है-
ॐपूर्णमद: पूर्णमिदं
पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते।।
यह मंत्र मात्र आध्यात्मिक
वर्णन नहीं है,अपितु इसमें
अत्यंत महत्वपूर्ण गणितीय
संकेत छिपा है,जो समग्र
गणित शास्त्र का आधार
बना।
मंत्र कहता है,यह भी पूर्ण है,
वह भी पूर्ण है,पूर्ण से पूर्ण की
उत्पत्ति होती है,तो भी वह पूर्ण
है और अंत में पूर्ण में लीन होने
पर भी अवशिष्ट पूर्ण ही रहता है।
जो वैशिष्ट्य पूर्ण के वर्णन में है
वही वैशिष्ट्य शून्य व अनंत में है।
शून्य में शून्य जोड़ने या घटाने
पर शून्य ही रहता है।
यही बात अनन्त की भी है।
हमारे यहां जगत के संदर्भ में
विचार करते समय दो प्रकार
के चिंतक हुए।
एक इति और दूसरा नेति।
इति यानी पूर्णता के बारे में
कहने वाले।
नेति यानी शून्यता के बारे में
कहने वाले।
यह शून्य का आविष्कार गणना
की दृष्टि से,गणित के विकास की
दृष्टि से अप्रतिम रहा है।
भारत गणित शास्त्र का जन्मदाता
रहा है,यह दुनिया भी मानने लगी है।
यूरोप की सबसे पुरानी गणित
की पुस्तक
“कोडेक्स विजिलेन्स” है।
यह पुस्तक स्पेन की राजधानी
मेड्रिड के संग्राहलय में रखी है।
इसमें लिखा है-
“गणना के चिन्हों से(अंकों से)
हमें यह अनुभव होता है कि
प्राचीन हिन्दुआें की बुद्धि बड़ी
पैनी थी तथा अन्य देश गणना
व ज्यामिति तथा अन्य विज्ञानों
में उनसे बहुत पीछे थे।
यह उनके नौ अंकों से प्रमाणित
हो जाता है,जिनकी सहायता से
कोई भी संख्या लिखी जा सकती है।”
नौ अंक और शून्य के संयोग से
अनंत गणनाएं करने की सामर्थ्य
और उसकी दुनिया के वैज्ञानिक
विकास में महत्वपूर्ण भूमिका की
वर्तमान युग के विज्ञानी लाप्लास
तथा अल्बर्ट आईंस्टीन ने मुक्त
कंठ से प्रशंसा की है।
भारतीय अंकों की विश्व यात्रा
की कथा विश्व के अनेक विद्वान
ने वर्णित की है।
इनका संक्षिप्त उल्लेख पुरी
के शंकराचार्य श्रीमत् भारती
कृष्णतीर्थ जी ने अपनी गणित
शास्त्र की अद्भुत पुस्तक “वैदिक
मैथेमेटिक्स” की प्रस्तावना में
किया है।
वे लिखते हैं,,,
“इस संदर्भ में यह कहते हर्ष
होता है कि कुछ तथाकथित
भारतीय विद्वानों के विपरीत
आधुनिक गणित के मान्य
विद्वान यथा प्रो.जी.पी.
हाल्स्टैंड.प्रो.गिन्सबर्ग,
प्रो.डी.मोर्गन,प्रो. हटन-
जो सत्य के अन्वेषक तथा
प्रेमी हैं,ने वैज्ञानिक
दृष्टिकोण अपनाया और प्राचीन
भारत
द्वारा गणितीय ज्ञान की प्रगति
में दिए गए अप्रतिम योगदान की
निष्कपट तथा मुक्त कंठ से भूरि
भूरि प्रशंसा की है।”
इनमें से कुछ विद्वानों के उदाहरण
इस विषय में स्वत: ही विपुल
प्रमाण प्रस्तुत करेंगे।
प्रो. जी.पी. हाल्स्टेंड अपनी
पुस्तक “गणित की नींव तथा
प्रक्रियाएं” के पृष्ठ २० पर कहते हैं,,,
“शून्य के संकेत के आविष्कार
की महत्ता कभी बखानी नहीं
जा सकती है।”
“कुछ नहीं” (शुन्य) को न केवल
एक नाम तथा सत्ता देना वरन्
एक शक्ति देना हिन्दू जाति का
लक्षण है,जिनकी यह उपज है।
यह निर्वाण को डायनमो
की शक्ति देने के समान है।
अन्य कोई भी एक गणितीय
आविष्कार बुद्धिमत्ता तथा शक्ति
के सामान्य विकास के लिए इससे
अधिक प्रभावशाली नहीं हुआ।
इसी संदर्भ में बी.बी.दत्त अपने
प्रबंध “संख्याआें को व्यक्त करने
की आधुनिक विधि (इंडियन
हिस्टोरिकल क्वार्टरली,अंक
३,पृष्ठ ५३०-४५०)में कहते हैं,,
“हिन्दुआें ने दाशमलविक पद्धति
बहुत पहले अपना ली थी।
किसी भी अन्य देश की गणितीय
अंकों की भाषा प्राचीन भारत के
समान वैज्ञानिक तथा पूर्णता को
नहीं प्राप्त कर सकी थी।
उन्हें किसी भी संख्या को केवल
दस बिंबों की सहायता से सरलता
से तथा सुन्दरतापूर्वक व्यक्त करने
में सफलता मिली।
हिन्दू संख्या अंकन पद्धति की
इसी सुन्दरता ने विश्व के सभ्य
समाज को आकर्षित किया
तथा उन्होंने इसे सहर्ष
अपनाया।”
इसी संदर्भ में प्रो. गिन्सबर्ग
“न्यू लाइट ऑन अवर न्यूमरल्स”लेख,
जो बुलेटिन आफ दि अमेरिकन
मैथेमेटिकल सोसायटी में छपा,
के पृष्ठ ३६६-३६९ में कहते हैं,,,
“लगभग ७७० ई, सदी में उज्जैन
के हिन्दू विद्वान कंक को बगदाद
के प्रसिद्ध दरबार में अब्बा सईद
खलीफा अल मन्सूर ने आमंत्रित
किया।
इस तरह हिन्दू अंकन
पद्धति अरब पहुंची।
कंक ने हिन्दू ज्योतिष विज्ञान
तथा गणित अरबी विद्वानों को
पढ़ाई।
कंक की सहायता से उन्होंने
ब्रह्मपुत्र के “ब्रह्म स्फूट सिद्धान्त”
का अरबी में अनुवाद किया।
फ्रांसीसी विद्वान एम.एफ.नाऊ
की ताजी खोज यह प्रमाणित
करती है कि सातवीं सदी के
मध्य में सीरिया में भारतीय
अंक ज्ञात थे तथा उनकी
सराहना की जाती थी।”
बी.बी. दत्त अपने लेख में
आगे कहते हैं,,,
“अरब से मिश्र तथा उत्तरी अरब
होते हुए ये अंक धीरे-धीरे पश्चिम
में पहुंचे तथा ग्यारहवीं सदी में
पूर्ण रूप से यूरोप पहुंच गए।
यूरोपियों ने उन्हें अरबी अंक
कहा,क्योंकि उन्हें अरब से मिले।
किन्तु स्वयं अरबों ने एकमत से
उन्हें हिन्दू अंक (अल-अरकान-
अलहिन्द) कहा”।
जयति पुण्यसनातन संस्कृति💐
जयति पुण्यभूमि भारत💐
सदा सर्वदा सुमंगल💐