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धातुपात्र में भूलकर भी हवन नहीं करना चाहिये. हवन सामग्री में मिली औषधियाँ धातु से रासायनिक संयोग कर कुछ और ही परिणाम प्रदान करती है. उदाहरण के लिये श्रवणाक्षी हवन में तारव, गूगल एवं गुड अवश्य मिलाया जाता है. यह मिश्रण जब पिघलता है तब Deroflexin Metracorbide गैस बनकर उड़ता है. ज्योही इसका ऑक्सीकरण जस्ता-Zink, लौह-Iron या ताम्बा से होता है तो ताम्बा होगा तो तूतिया जलंधा (CuSO4Na28KH64) नामक उग्र विष वायु में मिश्रित होगा, लोहा होगा तो दुरंध (Fe56Na46CO68KH126) नामक विषैली गैस वायु में मिल जाती है. और हवन या यज्ञ आदि का अशुभ परिणाम ही मिलता है.
मिटटी में पड़े उपरोक्त हवन पदार्थ शुक्र, क्रवणिक, विद्यारव तथा शिव नामक अति शुभ वायु प्रसारित करते है जो आवाहित देवी देवताओं को सहर्ष एवं प्रेम पूर्वक स्वीकार हो जाते है. वैसे भी शरीर की नृत, ह्रुत, द्वेलित एवं प्रसारित ज्ञान तंतुओं द्वारा सहज ही अवशोषित कर ये वायु शरीर के वांछित प्रत्येक अंगो एवं ग्रंथियों को पहुँचा दिये जाते हैं.
सप्तर्षियों ने तो राजा नहुष के इंद्र पद पर आरूढ़ होने के पूर्व ही उन्हें इस तथ्य से अवगत करा दिया था. किन्तु गर्व, लोभ एवं पाप बुद्धि में पागल बने नहुष ने इनकी एक न सुनी तथा स्वर्ण निर्मित पात्र में ही शीघ्रता पूर्वक यह हवन आदि का कार्य संपन्न कराया. परिणाम क्या हुआ, इससे सभी परिचित हैं.
निप्रतिसभिसद्वं मृत्तिका च सिकता गोमयसंदधान.
क्रमेणाच्छादितोSह्निः समिधा तु सम्मुखं दधातु.

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