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नमामि शंकर…💐🕉️💐

ब्रह्म का नाद स्वरूप ओंकार…🌹🌹

माण्डूक्योपनिषद् में परमात्मा के समग्र रूप का तत्त्व समझाने के लिये उनके चार पादों की कल्पना की गई है। नाम और नाभी की एकता प्रतिपादन करने के लिये भी और नाद शक्ति के परिचय रूप में अ, ड और म इन तीन मात्राओं के साथ और मात्रा रहित उसके अव्यक्त रूप के साथ परब्रह्म परमात्मा के एक-एक पाद की समता दिखलाई गई है और ओंकार को ही परमात्मा का अभिन्न स्वरूप मान कर यह बताया गया है –

ओमित्येतदक्षरभिद सर्व तस्योप व्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोडकार एव।

यच्चान्यत् त्रिकालतीतं तदप्योडकार एव।
( मांडूक्योपनिषद्)

‘ओम’ यह अक्षर ही पूर्ण अविनाशी परमात्मा है। यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला जड़-चेतन का समुदाय रूप जगत् उन्हीं का उपाख्यान अर्थात् उन्हीं की निकटतम महिमा का निदर्शक है, जो स्थूल ओर सूक्ष्म जगत् पहले उत्पन्न होकर उसमें विलीन हो चुका है, वह सब का सब ओंकार (ब्रह्म का नाद-स्वरूप ही है।

तीनों कालों से अतीत इससे भिन्न है, वह भी ओंकार ही है। अर्थात् स्थूल सूक्ष्म और कारण जो कुछ भी दृश्य, अदृश्य है, उसका संचालन ‘ओंकार’ की स्फुरणा से ही हो रहा है। यह जो उनका अभिव्यक्त अंश और उससे अतीत भी जो कुछ है, वह सब मिलकर ही परब्रह्म परमात्मा का समग्र रूप है। पूर्ण ब्रह्म की प्राप्ति के लिये अतएव उनकी नाद शक्ति का परिचय प्राप्त करना आवश्यक है।

परमात्मा के नाद रूप के साक्षात्कार के लिये किये गये ध्यान के सम्बन्ध में नाद-बिंदूपनिषद् के 33 से 49 वें मंत्रों में बड़ी सूक्ष्म अनुभूतियों का भी विवरण मिलता है। इन मंत्रों में बताया गया है, जब पहले पहल अभ्यास किया जाता है। तो ‘नाद’ कई तरह का और बड़े जोर-जोर से सुनाई देता है।

आरम्भ में इस नाद की ध्वनि नागरी, झरना, भेरी, मेष और समुद्र की हहराहट की तरह होती है, बाद में भ्रमर, वीणा, वंशी और किंकिणी की तरह गुँजन पूर्ण और बड़ी मधुर होती है।

ध्यान को धीरे-धीरे बढ़ाया जाता है और उससे मानसिक ताप का शमन होना भी बताया गया है। तैत्तरीयोपनिषद् के तृतीय अनुवाद में ऋषि ने लिखा है -”वाणी में शारीरिक और आत्म-विषयक दोनों तरह की उन्नति करने की सामर्थ्य भरी हुई है, जो इस रहस्य को जानता है, वह वाक्-शक्ति पाकर उसके द्वारा अभीष्ट फल प्राप्त करने में समर्थ होता है।

ओंकार ध्वनि से प्रस्फुटित होने वाला ब्रह्म इतना सशक्त और सर्वशक्तिमान् है कि वह सृष्टि के किसी भी कण को स्थिर नहीं होने देता। समुद्रों को मथ डालने से लेकर भयंकर आँधी-तूफान और ज्वालामुखी पैदा करने तक- परस्पर विचार -विनिमय की व्यवस्था से लेकर ग्रह-नक्षत्रों के सूक्ष्म कम्पनों को पकड़ने तक एक सुविस्तृत विज्ञान किसी समय भारतवर्ष में प्रचलित था। नाद-ब्रह्मा की उपासना के फलस्वरूप यहाँ के साधक इन्द्रियातीत असीम सुख का रसास्वादन करते थे, यही नहीं उस शक्ति को पाकर वे जहाँ चाहते थे, वहीं मनोवाँछित वस्तुएँ पैदा करते थे।

नदियों के प्रवाह रोक देने से लेकर सूर्य की परिक्रमा बदल देने तक के जितने भी चमत्कार सम्भव है, वह परमात्मा की नाद-शक्ति से होता था। उसे परिचालन विद्या भी कह सकते हैं, इसका उद्रेक जितना ही प्रखर और एकाग्र होता, इसका उद्रेक जितना ही प्रखर और प्रगाढ़ होता था, उतनी ही चमत्कारिक सफलतायें प्राप्त की जाती थीं।

अपने आशीर्वाद से किसी रोगी को अच्छा कर देना,किसी निर्धन को धनवान् अपंग को शारीरिक क्षमता प्रदान कर देना इसी विज्ञान का अंग था। इन सबमें निश्चित विचार प्रणाली द्वारा निखिल ब्रह्माण्ड की वैसी शक्तियों के सूक्ष्माणु आकर्षित कर उपेक्षित स्थान पर प्रतिरोपित करने से चमत्कार दिखाई देने वाले कार्य संभव हो जाते हैं। यह चर्चा करने में भी सन्देह है कि लोग अत्युक्ति न समझे किन्तु अब विज्ञान ही इन मान्यताओं को प्रमाणित करने लगा है तो कोई उस पूर्णत्य विज्ञान को कैसे इंकार कर सकता है।

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