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माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

अर्थ : व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।

मित्रों, आप सभी ने कहीं बार कई लोगों को प्रायः हाथ में माला लेकर भगवान् का नाम जपते देखा होगा, कई लोग माला लेकर संख्या के आधार पर भगवान् का नाम जपते है, फिर भी जीवन में कोई अनुभूति या रस नहीं आ रहा है, भगवान् की झाँकी स्वप्न में नहीं आ रही है, नाम तो ले रहे हैं पाँच-पाँच लाख बार, दस-दस लाख बार पर जीवन में रस नहीं आ रहा।

देखो भाईयों! ये थोड़ा नाजुक विषय है, कई बार हम विषय की देह को पकड़ लेते है और आत्मा को छोड़ देते हैं, बोलते हुए शब्द इधर उधर हो जाये तो हो सकता है, लेकिन उसके भाव को पकड़ना चाहिये, ये नाम जपने की निन्दा नहीं हैं, क्या भगवान् इतना खुशामदी है कि जो लाखों बार नाम लेने से प्रसन्न होगा?

क्या कोई खाताबही लेकर मुनीम बैठा रखा हैं? ताकी सबकी नाम संख्या चढाते जाओ? इन्होंने इतनी माला जपी उन्होंने इतनी, क्या वो संख्या बल से प्रभावित होता है? इस पर विचार करना चाहिये, विषय ये नहीं है, कि आपने कितने मंत्र जपे? प्रश्न ये है कि आपने कैसे नाम लिया है? केवल कैसे नहीं? आपने कहाँ से नाम लिया? होठो से बोले कि ह्रदय से? मनके से बोले या मन से? आप माला पर बोले या भीतर के मन पर बोले? प्रेम अगर है तो माला की जरूरत नहीं, इतना जपने के बाद भी हम परमात्मा पर भरोसा कयों नहीं करते?

भरोसा हम करते है अपने परिवार पर, अपने बेटों पर, बोलते है- भगवान जो करेगा अच्छा ही करेगा, लेकिन भीतर इच्छा रहती है कि बेटा अगर आज घर पर होता तो गाड़ी में बैठा कर घुमाने ले जाता, अगर बैंक बैलेंस होता तो बुढ़ापे में काम आता, नाम भगवान का जप रहे हैं और काम की आशा संसार से कर रहे हैं, हमको सब कुछ करने के बाद भी भगवान पर विश्वास क्यों नहीं हो रहा है? इस पर चिन्तन करें।

विश्वास उस पर होता है जिससे प्रेम होता है, प्रेम उससे होता है जिससे हमारा कोई न कोई सम्बन्ध होता है, जैसा जिससे सम्बन्ध होता है वैसा उससे प्रेम होता है, जैसा जिससे प्रेम होता है वैसा उस पर विश्वास होता है, आज पडोसी से भी सम्बन्ध नहीं तो प्रेम और विश्वास भी नहीं रहे आपस में, सबसे निकट पडोसी तो परमात्मा है लेकिन दूर दिखाई देता है, उसको ढूढने के लिये हमें मंदिरों में जाना पड़ रहा है, वो तो मन में बैठा है, इसलिये शंकरजी के सिद्धान्त को ह्रदयंगम करिये।

हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम ते प्रकट होहि मैं जाना।।

भगवान को तो मंदिर में तब हम खोजते हैं जब मन में दिखाई नहीं देता, होटल में तब खाते हैं जब घर में भरपेट नहीं मिलता, मन में मिल रहा है तो फिर मंदिर में जाने की आवश्यकता क्यो? फिर तो मन ही मंदिर हो जायेगा, चूंकि हमारा परमात्मा से कोई सम्बन्ध नहीं, विश्वास जगे इसके लिये आवश्यक है कि हम परमात्मा से कोई न कोई सम्बन्ध स्थापित करें।

गुरूजन गुरूदीक्षा में क्या करते हैं? ये भगवान से आपका कोई सम्बन्ध स्थापित करा देते है, चाहे पिता मानो, पुत्र मानो, मित्र मानो या स्वामी मानो, मुझे लगता है कि सबसे पवित्रतम नाता अगर भगवान से जोड़ा जा सकता है तो वे मेरे स्वामी हैं, मैं उनका सेवक हूँ, दास हूँ, ये रिश्ता निभाना भी सबसे सरल पडे़गा।

सम्बन्ध का अर्थ है सम+बन्ध, जितना भक्त भगवान से बंधता है, उतना ही भगवान भक्त से बंधते हैं, गुरू भगवान को शिष्य के साथ बाँध देता है, भगवान से सम्बन्ध बनाइये, सम्बन्ध बनता है तो सम्बन्धी से प्रेम होने लगता है, प्रेम होता है जिससे तो फिर उसी की चर्चा करने में जीवन में रस आता हैं, और यह आनन्दमय् जीवन हैं, उसी की बात करने, सुनने में रस आता है, उसी की याद उसी का सुमिरण, प्रेमी हमेशा अपने प्रेमी की चर्चा करने में आनन्दित रहता है।

ये जो हमारे साधु-संत हैं जो दिन में राधे-कृष्ण, हरे कृष्णा जाप करते रहते है, ये संख्या जप नहीं करते, ये भौरे की गुनगुनाहट है, इनका परमात्मा से प्रेम है,और ये प्रेमी की चर्चा किये बिना रह ही नही सकते, हमेशा उसी की याद में, उसी की लीला में भीतर की माला जपते हुए साधु डूबा हुआ है, कलियुग का एक ही भजन है, उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते, चलते-फिरते बोलकर जप करें।

हरे रामा हरे रामा, रामा रामा हरे हरे।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे।।

   

[: जिस मानव ने भी अपनत्व को बढ़ाया है।। वे माता-पिता भाई-बहिन से लेकर मित्र-पड़ोसी तक की सुख-शान्ति में पूरी दिलचस्पी लेते हैं।। आत्म विकास की मात्रा यदि अधिक हुई तो उसी अनुपात से ग्राम, नगर, प्राँत, देश और अन्ततः समस्त बिखरे हुए मानव-प्राणियों में यह ममत्व फैलता है। तब सब में एक ही आत्मा-एक ही विश्वात्मा ओत-प्रोत दीखती है।। सभी अपने प्रतीत होते हैं। पराया कोई दिखता ही नहीं है।। जहाँ अपनापन होगा वहीं प्रेम की उमंगें उठेंगी सहानुभूति जगेगी। फलतः उदारता, सेवा-सहायता का भावभरा सहृदय व्यवहार भी सबके साथ बन पड़ेगा।।
[जिन्दगी तो चिल्ला चिल्ला कर कह रही है, कि जो हासिल करना है, वक़्त रहते कर लो, क्यूंकि मेरा कोई भरोसा नहीं, किसी पर भी भरोसा करो पर मुझ पर नहीं। इसलिए जिन्दगी तो धोखा नहीं दे रही है।। लेकिन धोखा जरूर हो रहा है, खोजने की जरुरत है, कि धोखा कौन दे रहा है। और कौन खा रहा है।।ध्यान रखिए की जीवन और समय, संसार के दो सर्वश्रेस्ठ शिक्षक हैं। जीवन हमें समय का सदुपयोग करना सीखाता है जबकि समय हमें जीवन का सदुपयोग करना सीखाता है।।
[10/04, 00:29] Daddy: पहले घर गांव की औरतें सब घर के कार्य को करके, सब बड़े बुजुर्गो, छोटे लोग को खाना खिलाकर, खुद खाना खाकर कुछ देर एक दुसरे से बात किया करती थी, कहती कि बर्तन, चूल्हा साफ हो गया। तब हा में हा बात होती थी। आज कल आदमी लोग घर के कार्यो से फुर्सत होकर व्हाटसप ग्रुप में ऐसे आते हैं। जैसे जंग जीतकर आये हो और जल्द ही सोने का बहाना करके घर, बर्तन, गैस, की साफ करने में लग जाते हैं।। वक्त के साथ बहुत कुछ बदल रहा है। अब आगे देखें फिलहाल क्या होने वाला है।। सभी लोग शर्माए नहीं बिल्कुल घर के कार्य में हाथ बटाये। खाली बैठकर ताना ना सहे, उचित लगा राय दे दिया है।।

     😇👆🙏

[ आपाधापी भागदौड़ ताउम्र जिंदगी जिए मरे, बन कोल्हू का बैल रात दिन, गठरी फर्जी लिए फिरे, कल की आस में आज को भूलें सपनों की चाहत में, आहें घायल इच्छा तडपें चलें शूल पथ आहट में, छालें पांव मन फफोले, जहाँ तहाँ सोय कौन जागें। कौन विजेता कौन हारा, गिरे उठे कहाँ भागे।।

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