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साथियों, शास्त्रों में नश्वरता को दु:ख का कारण माना गया है, संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं, इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है, प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दु:ख मय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्ममार्ग या ज्ञानमार्ग का रास्ता अपनाया है, मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है, इसे पारपार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है।

मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है, फलत: सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्राय: आत्मवादी है, अंततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है, यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी-अपनी ज्ञान मीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है, इसे जीवनमुक्ति कहेंगे।

किंतु कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं, जीवनमुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं, दूसरे रूप को “विदेहमुक्ति” कहते हैं, जिसके सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है, उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है, उपनिषदों में आनंद की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनंद में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है।

यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है, इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है, वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियायें करनी पड़ती हैं, इस प्रक्रिया में नानात्व, का, जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है, मुमुक्षु “तत्वमसि” से “अहंब्रह्यास्मि” की ओर बढ़ता है।

यहाँ आत्मसाक्षात्कार को हो मोक्ष माना गया है, वेदांत में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है, मृत्यूपरांत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है, ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है, अन्य दूसरे वादों में संसार से मुक्ति ही मोक्ष है, लोकायत में मोक्ष को अस्वीकार किया गया है, न्याय वैशोषिक मोक्ष की कल्पना भिन्न प्रकार से करते हैं, वे मोक्ष की स्थिति को आनंदमय नहीं मानते, क्योंकि दु:ख और सुख दोनों आत्मा के विशेष गुण हैं, इसलिये दोनों सत्य हैं।

न्याय वैशेषिक अभाव को भी एक पदार्थ मानते हैं, इसीलिये दोनों सत्य हैं, न्याय वैशेषिक अभाव को भी एक पदार्थ मानते हैं, इसीलये दु:ख के अभाव का अर्थ आनंद का होना, नहीं है, मुक्ति का अर्थ है “अपवर्ग”, दु:ख-सुख दोनों से परे होना, ये दोनों आत्मा के मूलभूत गुण नहीं हैं, इसलिये मोक्ष की स्थिति में आत्मा दोनों से मुक्त हो जाती है।

दु:ख से मुक्ति पाने के पहले हमें सुख की आशा ही छोड़ देनी चाहिये, क्योंकि दु:ख अंत तक हमारा पीछा नहीं छोड़ता, लेकिन हम उसका अतिक्रमण कर सकते हैं, यह अवस्था सुख दु:ख के परे होने से प्राप्त होती है, ऐसा व्यक्ति देहत्याग के पश्चात् विदेहमुक्ति को प्राप्त कर लेता है, इस अवस्था में आत्मा अपने विशेष गुणों से परे हो जाता है, एक तरह से वह संवेदनहीन और इच्छाशून्य हो जाता है उसमें पुन: चैतन्य प्रविष्ट होगा ही नहीं।

जीवनमुक्ति इसमें अस्वीकार की गई है, फिर वह अच्छे कर्मो का संपादन करते हुए, “दिव्य विभूति” पद को प्राप्त कर सकता है, किंतु आत्मा के विशेष गुण बने रहेंगें, इसमें भी योग, ध्यान और क्रमिक अभ्यास के कठोर संयमों का पालन करना पड़ता है, सांख्य योग में “कैवल्य” को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है, यह मोक्ष के समान ही है, यह जिससे मुक्त होता है, जो मुक्त होता है, उसे पुरूष स्वरूप से ही असंग है, कैवल्य उसका स्वभाव है।

प्रकृति के संसर्ग में आने पर वह अपने स्वरूप को भूल जाता है, वह अहमबुद्धि के आ जाने पर संसार को सत्य मान लेता है, संसार के प्रति अनासक्ति भाव उत्पन्न करने के लिये मुुमुक्ष को कठोर तप, नियम एवं संयम का पालन करना पड़ता है, इस कठोर साधना के आठ अंग हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, इस साधना के माध्यम से व अहंभाव से मुक्त होता है।

यहाँ मुक्त होने का अर्थ किसी अन्य सत्ता, ईश्वर या ब्रह्म से संयोग नहीं है, बल्कि मोक्ष यहाँ वियोग की स्थिति है, प्रवृति से मुक्त होकर, परमशांति का मनन करता हुआ पुरूष अपनी असफलता को प्राप्त कर लेता है, इस अवस्था में साधक जीवन मुक्त हो जाता है, प्रकृति से अपनी भिन्नता को समझते हुए वह राग द्वेष से प्रभावित नहीं होगा, देह त्यागने के बाद वह विदेह मुक्त हो जाएगा।

सांध्य ईश्वर में विश्वास नहीं करता, लेकिन योग ईश्वर प्रणिधान या भक्ति को भी मोक्ष का साधन मानता है, किंतु यह श्रद्धालु अथवा अज्ञानियों के लिये स्वीकृत किया गया है, जो कठोर योगागों का अभ्यास करने में अक्षम हैं, पूर्वमीमांसा में कर्म को सर्वाधिक महत्व दिया गया है,इसलिये जीवन में दु:ख से मुक्ति और सुख की प्राप्ति की इच्छा करनेवाला धार्मिक कर्म करे, ये धार्मिक कर्म, यज्ञ, दान, इत्यादि करने से स्वर्गादि की प्राप्ति हाती है, एक तरह से मोक्ष का इससे कोई संबंध नहीं है।

अद्वैत वेदांत में मोक्ष की कल्पना उपनिषदों के आधार पर की गई है, वेदांत में कर्म अथवा भक्ति की प्रधानता न देकर ज्ञान को प्रधानता दी गई है, यद्यपि मुमुक्षु को कुछ निश्चित अनुशासनों का पालन करना पड़ता है, इसके अनंतर अद्वैतवादी शिक्षा पर ध्यान एकाग्र किया जाता है, आत्मा को ब्रह्मस्वरूप माना गया है, “अहम् ब्रह्मास्मि” का ज्ञान होना होता है, यही मोक्ष है, तब आत्मा सत्, चित्, आनंद से पूर्ण हो जाता है, आचार्य शंकर इस सिद्धांत के प्रधान व्याख्याता हैं।

विशिष्टाद्वैत में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को प्रधान माना गया है, भक्ति के माध्यम से परब्रह्म नारायण का सान्निध्य प्राप्त होता है, नारायण के संरक्षण में ही पूर्णमुक्ति और आनंद की प्राप्ति होती है, यह सान्निध्य दो साधनों से प्राप्त किया जा सकता है, क्रमश: इसे भक्ति और प्रपत्ति कहते हैं, प्रपत्ति का अर्थ है ईश्वर की कृपा पर पुर्ण विश्वास करके आत्मसमर्पण करना, इससे सहज ही मोक्ष लाभ होता है, रामानुज ने भक्ति के अंतर्गत कर्मयोग एवं ज्ञानयोग को भी गौण महत्व दिया है, भक्तियोग में ईश्वर का निरंतर चिंतन अनिवार्य बतलाया गया है।

इस चिंतन का रूप प्रेममय भी हो सकता है, किंतु इसके माध्यम से मुमुक्षु ईश्वर की ओर उन्मुख होता है, उसे ईश्वर की प्रत्याक्षानुभूति नहीं होती, इसीलिये रामानुज जीवनमुक्ति को नहीं मानते, वे तो विदेहमुक्ति के बाद नारायण के लोक में ही सँभव है, प्रपति और भक्ति के माध्यम से ही ईश्वरकृपा के फलस्वरूप मुक्ति संभव है, मध्वाचार्य भी मोक्ष के लिये भक्ति को साधन मानते हैं, इसी भक्ति के कारण जीव को ईश्वर का प्रसाद प्राप्त होता है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

        

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