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स्वास्थ्य की दृष्टि से अगर आपको कभी दो में से एक व्यायाम एवं आहार- विहार की उपेक्षा करनी ही पड़े, तो मैं व्यायाम की उपेक्षा करने के लिए आपको छोड़ सकता है। गुरु जी हम तो बहुत दिन तक जीना और स्वस्थ रहना चाहते हैं।। अच्छा तो आप दो में से एक चुनिए अगर आप व्यायाम के लिए कहेंगे तो हम आहार- विहार ठीक नहीं रखेंगे। अगर आप आहार विहार के लिए कहेंगे तो व्यायाम ठीक नहीं रखेंगे। बेटे दोनों को मिलाकर चलने में क्या हर्ज है। नहीं साहब दोनों तो हम नहीं करेंगे। एक कर लेंगे। आप सोने- जागने, ब्रह्मचर्य, आहार- विहार आदि की बातें मत कहिए।। बस, हम आपका व्यायाम करते रहेंगे। बेटे! दोनों कर लेगा तो तेरा क्या बिगड़ेगा? नहीं महाराज जी! आप दो में से एक का फैसला कर दीजिए, हम वही करेंगे।। ठीक है, बेटे! तो फिर मैं इस बात की सलाह दूँगा कि तू अपना आहार- विहार ठीक रख। अगर तू व्यायाम नहीं भी बनेगा, तो कोई उतना ज्यादा नुकसान नहीं होगा।। हाँ, अगर आहार- विहार ठीक रखने के साथ व्यायाम भी करेगा तो तेरी जिन्दगी लंबी हो सकती है। तू मजबूत हो सकता है, लेकिन अगर तू इसी बात पर जम गया है कि मैं एक ही चीज करूँगा तो मैं यही कहूँगा कि तू ठीक से आहार किया कर, समय पर सोया और जगा कर। संयम रख, ब्रह्मचर्य का पालन कर, तभी बात बनेगी।।
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हर धर्म खेल की तरह पैदा होता है, और अंततः एक गंभीर मार्ग बन जाता है।। हर धर्म एक नृत्य, एक गीत, एक उत्सव की तरह जन्म लेता है। और अंततः सब कुछ मुर्दा और अत्यंत गंभीर हो जाता है।। वास्तव में अगर धर्म है तो गंभीर नहीं हो सकता। धर्म को तो आनंदपूर्ण होना चाहिए, आनंद की परम अवस्था होना चाहिए।। धर्म गंभीर कैसे हो सकता है। अगर गंभीर है।। तो निश्चित वह धर्म नहीं धर्म के नाम पर बहुत बड़ा धोखा है। निश्चित कोई फरेब है।।

    
             🙏🏼


🌹उत्तम से सर्वोत्तम
वही हुआ है…
जिसने दिल बडा
रखकर, आलोचनाओं
को सुना और सहा है..🌹

आज हम जिस विषय पर विचार करने वाले हैं वो विषय "संकीर्ण मानसिकता"  है । तो क्या हम सज्ज है ? एक कुएं में एक मेंढक रहता था , मानो कुआं ही उसके लिए विश्व था कुएं के ऊपर दिखने वाला छोटा सा आकाश का टुकड़ा ही मानो उसके लिए अनन्त था । उस कुएं में उसे जीवित रहने के लिए सब कुछ प्राप्त हो जाता था । कुएं के बाहर कोई विश्व है इसकी ना तो मेंढक को कल्पना थी और ना ही जानने की उत्सुकता । क्या हम सब भी परम्पराओं के कुएं में पड़े मेंढक की भांति नहीं है । इसी को संकीर्ण मानसिकता या मन का छोटापन कहा जाता है । विचार कीजिए हम सदा ही परम्पराओं में घिरकर जीते रहते हैं । हमारी सारी मान्यताएं , सारे विचार तथा सारे प्रतिभाव परम्पराओं से पूराने खयालों से ही आते हैं । क्या ये सत्य नहीं ? इन परम्पराओं के कारण हम कितने दुख भोगते हैं? और न जाने कितने ही दुख दे जाते हैं ? कितने संघर्षों का सामना करते हैं । और न जाने कितने समझौते करते हैं अपने जीवन में । मगर हम परम्पराओं का त्याग क्यों नही कर पाते ?  हम नये विचारों को अपना नहीं पाते सरलता से । यह जानते हुए कि समय तो सदा से ही भूतकाल से भविष्य की ओर गति करता है । प्रगति का अर्थ ही है आगे की ओर गति करना । नयी भूमिका को देखना । नये विचारों का स्वागत करना फिर भी हम अतीत को पकड़ कर जीते हैं । क्या ये सत्य नहीं । ये सत्य है कि परम्पराओं में सुरक्षा थी । बीते समय में जिन विचारों ने और जिन सिध्दांतों ने हमारे पूर्वजों को सुरक्षित रखा था । कदाचित वही सारे विचार और सिध्दांत आज परम्परा बन गये है । उस मेंढक की तरह हमें अपनी परम्पराओं के कुएं में वो सब कुछ प्राप्त हो जाता है जो जिन्दा रहने के लिए जरूरी है । और हम भी उस मेंढक की भांति परम्पराओं को संसार मानकर जीते रहते हैं । किन्तु मेंढक को क्या प्राप्त नहीं होता इसका विचार किया है आपने ? नहीं ! कुएं के मेंढक को संसार की विशालता प्राप्त नहीं होती । अनुभवों से और विचारों से उसका जीवन समृद्ध नहीं होता । वो जीवित तो रहता है मगर उसे जीवन का अनुभव नहीं  मिलता । और ये जानने के बाद भी हम उस मेंढक की भांति परम्पराओं में जकड़कर क्यों जीते हैं ?  संसार के अनुभवों को छोड़कर हम परम्पराओं के कारागार में कैद होकर क्यों जीते रहते हैं ?  स्पष्ट है कि हम अनजान से भयभीत रहते हैं । कदाचित आपने इक कहानी सुनी होगी की किसी नदी के प्रवाह के तले कुछ जीव रहते थे । प्रवाह के भय के कारण उन प्राणियों की पीढियां  पत्थरों से चिपककर जीती रहती थी । उनमें से एक साहसी जीव ने पत्थरों का त्याग किया । प्रथम तो नदी के प्रवाह ने उसे उछाला और पटका किन्तु जल्द ही  वो जीव मुक्त होकर नदी की धारा में बहने का आनन्द प्राप्त करने लगा । उसे देखकर पत्थरों से चिपक कर जी रहे जीवों ने उसे भगवान मान लिया । क्या ये सत्य नहीं ? कि मनुष्यों ने सदा ही ऐसे लोगों की पूजा की है जिन्होंने  परम्पराओं को तोड़कर नया मार्ग अपनाया है । परम्परा थी कि इन्द्र की पूजा की जाय , लेकिन एक सात साल के बालक ने इन्द्र की पूजा बन्द करवाकर श्री "गोवर्धन" की पूजा करवायी । नया विचार दिया और वो गोवर्धनधारी  के रूप में आज भी पूजा जाता है । और हम नये विचारों का स्वागत करने के लिए आज भी तैयार नहीं होते । हमारा भय ही वास्तव में हमें बांधकर रखता है । क्या ये सत्य नहीं ? पुराने विचारो में "सत्य" है किन्तु पुराने सारे विचार सत्य नहीं हो सकते । और कहना ग़लत नहीं होगा कि परम्परा में "धर्म" है किन्तु "परम्पराएं" धर्म नहीं हो सकतीं । इतना जो भी जान लेता है वह अपनी संकीर्ण मानसिकता अर्थात अपने मन का छोटेपन का त्याग कर मुक्ति का अनुभव करने लगता है । इस विषय पर विचार चिन्तन और मनन अवश्य कीजियेगा कदाचित यह हम सबके जीवन में कुछ अर्थ भरेगा ।।


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जीवन में खुश रहने का एक सीधा सा मंत्र है और वो ये कि आपकी उम्मीद स्वयं से होनी चाहिए किसी और से नहीं। परीक्षा फल से वही बच्चा घबराता है।। जो स्वयं से नहीं अपितु निरीक्षक से उम्मीद लगाए रहता है। स्वयं के पैरों पर उम्मीद ही हमें किसी दौड़ में विजेता बनाती है।। स्वयं के तीरों पर भरोसा रखने वाला कौन्तेय युद्ध भूमि में अकेला पड़ने के बावजूद भी सफल हो जाता है और दूसरों से उम्मीद रखने वाला दुर्योधन पितामह, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य जैसे अनगिनत योद्धाओं के साथ रहते हुए भी युद्ध भूमि में बुरी तरह असफल हो जाता है। सूर्य स्वयं के प्रकाश से चमकता है।। और चन्द्रमा को चमकने के लिए सूर्य के प्रकाश पर निर्भर रहना होता है। दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित होने की उम्मीद रखने के कारण ही चन्द्रमा की चमक एक जैसी नहीं रहती।। कभी ज्यादा कभी कम तो कभी पूरी तरह क्षीण भी हो जाती है। कमल उतनी ही देर अपना सौंदर्य बिखेरता है जितनी देर उसे सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है।। इसका सीधा सा अर्थ केवल इतना कि दूसरों से प्राप्त खुशी कभी भी टिकाऊ नहीं हो सकती। इसलिए जीवन में सदा खुश रहना है। तो दूसरों से किसी भी प्रकार की उम्मीद छोड़कर स्वयं ही उद्यम अथवा पुरुषार्थ में लगना होगा ताकि संपूर्ण जीवन प्रसन्नता से जिया जा सके।।

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