जिसके सुख दुःख के अनुभव समाप्त हो गये, वह दूसरे के सुख दुःख से प्रभावित नहीं होता। उसे तो दिखाई पड गया कि सुख दुःख होते ही नहीं है। तो तुम्हारा सुख दुःख देखकर दया आती है लेकिन सुखी दुखी नही होता। सिर्फ दया आती है कि तुम अभी भी सपने में पडे हो।’
यह जो जाग गया है क्या करेगा? यह इस आदमी को भी जगाने की कोशिश करेगा। इसके दुख को हटाने की नहीं, इसको जगाने की।’
जब ज्ञानी तुम्हे दुखी देखते हैं तो तुम्हारे दुख को मान नहीं सकते कि है;क्योंकि वे तो जानते हैं कि दुख हो ही नहीं सकता, भ्रांति है। दीया जलाकर रस्सी बता देते हैं। तुम भी हंसने लगते हो। ‘
ज्ञानी पुरुष तुम्हारे सुख दुःख से जरा भी प्रभावित नहीं होता और जो प्रभावित होता हो वह ज्ञानी नहीं है। दया उसे जरूर आती है। कभी कभी हंसता भी है देखकर सपने का बल, व्यर्थ का बल, झूठ का बल। ‘
ज्ञानी भी कभी रोया, तडफा था।तो बाहर सहानुभूति-भीतर हंसी। खेल खेलता है। पर कोशिश करेगा तुम भी जागो। ‘
घबडाओ मत। इस पीडा को स्वीकार करो। इस पीडा की स्वीकृति को ही मै तपश्चर्या कहता हूँ। बोध के बढने के साथ वेदना बढेगी, उस वेदना से डरना मत। इसे स्वीकार लेना कि ठीक है। यह बोध के साथ बढती है। फिर एक घडी आती है जब छलांग लग जाती है। लेकिन मार्ग पर पीडा है। उसे स्वीकार करो। उसे इस तरह स्वीकार करो कि वह भी उपाय है तुम्हारे बोध को जगाने का। ‘
गीता कहती है-प्रकृति में स्थित पुरुष सुख दुखों का भोक्ता है। ‘
पुरुष आत्मस्वरूप है,क्षेत्रज्ञ है। प्रकृति देह, अंत: करण(मन बुद्धि चित्त अहंकार) है, क्षेत्र है।
फिर वह प्रकृति में स्थित कैसे होता है? प्रकृति को, देह- अंत: करण को ‘मै मेरा’मानकर। मै मेरा कहा और प्रकृति में स्थित हुआ। फिर प्रकृति के सारे अनुभव लागू हो जाते हैं। यदि मै मेरा कहे बिना, अपने मूल स्वरूप में रहे तो प्रकृति के अनुभव प्रकृति तक सीमित रहते हैं। उन्हें द्रष्टा भाव से देखा जा सकता है। तब वे सुख दुःख नहीं होते। सुख दुःख मै मेरा की भाषा है और मै मेरा को एक तरफ रखकर चलना है क्योंकि मै मेरापन, पुरुष को प्रकृति से बांधता है। मै मेरा न करने पर फिर सुख दुःख नहीं हैं, प्रकृति के अनुभव जरूर हैं जिन्हें गीता सहने के लिए कहती है। सुख दुःख कहकर तो फिर आदमी
कई बार भुलाने की कोशिश करता है। इससे काम नहीं चलता, काम तो सहने से ही चलता है। जो भी कष्ट है, पीडा है वह शारीरिक ही है, मानसिक नहीं। मानसिक कष्ट तो मै मेरा की देन है। मै मेरा को एक तरफ रखा तो केवल शारीरिक कष्ट ही रहता है जिसे निर्भय होकर असंग भाव से सह लेना चाहिए।
जैसे किसी ने अप्रिय बात कही, निंदा, अपमान का व्यवहार किया तो उस समय चोट लगती है, आघात महसूस होता है। तो शरीर की चोट और चित्त की चोट को शारीरिक पीडा के रुप में देखा और सहा जा सकता है किंतु हम चित्त की चोट को मानसिक मान लेते हैं जो मै मेरेपन के भाव से परिचालित होता है। उसे सहना मुश्किल होता है।
यदि हम चित्त की, मन की चोट को भी शारीरिक पीडा(की तरह) मानकर सह लेंगे, स्वीकार लेंगे तो यह सहन हो जाता है।
तप का मतलब हर शारीरिक कष्ट, पीडा को सहर्ष, स्वीकार भाव से सह लेना। तितिक्षा सकारात्मक है। यह हाय तौबा मचाकर सहना नहीं है, प्रसन्नता पूर्वक सहना है।
इसमें खास बात यही है कि मै मेरा की मान्यता को बीच में नहीं लाना है, चुनाव रहित बने रहना है। मै मेरा करना, चुनाव कर्ता बनना है;मै मेरापन को छोड देना, चुनाव रहित हो जाना है-फिर जो भी आये सर्दी गर्मी, अनुकूलता प्रतिकूलता वह सब प्रकृति है। इसका मतलब यह नहीं कि हम देह की रक्षा नहीं करेंगे। रक्षा भी प्रकृति का ही हिस्सा है।एक छोटा जीव भी प्राणरक्षा करता है।
लेकिन हम मनुष्य हैं, आध्यात्मिक शक्ति से युक्त हैं। अतः बिना मै मेरा का भाव रखे शरीर की रक्षा कर सकते हैं, उसकी पीडा को सह भी सकते हैं।जानवर भी पीडा सहते हैं पर वहां अहं मम का भाव होता है। कृष्ण अर्जुन के माध्यम से हमसे कहते हैं-निर्मम, निरहंकार हो जाओ। ‘
यही महत्वपूर्ण है। जब हम मै मेरा सहित किसी समस्या का समाधान खोजते हैं तो बडा संघर्ष होता है, जब मै मेरा को छोड़कर उसी समस्या का समाधान खोजते हैं तब बड़ी ऊर्जा होती है, गहराई होती है, स्थितप्रज्ञता होती है।
यह समझ में आता है कि न कोई सुख दुःख होता है, न कोई समस्या होती है।जो समझता है वह कहता है शारीरिक कष्ट को स्वीकार लो, सह लो। यह तप प्रकृति के बंधन से मुक्त कर पुरुष में अर्थात आत्मस्वरूप में स्थित करता है। मानसिक पीड़ा को स्वीकार करने की जरूरत नहीं है। वह मिथ्या है। वह जिस मै मेरा की मान्यता के कारण होती है वह माया है जिसने सबको अपने वश में कर रखा है।
मै अरु मोर तोर तें माया। जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया।।
इसका बल झूठा है बहुत रुलाता है, तडफाता है पर इसे समझकर तमाम शारीरिक पीडाएं सहने में सक्षम होगये, अपने आत्मस्वरूप मे(सेल्फ मे) स्थित हो गये तो यही बल हास्यास्पद मालूम होता है।
आत्मबल के समान कोई बल नहीं वह वास्तविक है अतः कहा है-बलहीन मनुष्य आत्मा को(इसके बल क़ो) प्राप्त नहीं कर पाता।समझ और प्रयास से इसका मार्ग प्रशस्त होता है। अपना ही खजाना अपने ही भीतर मिल जाता है।