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प्रसंशा मनुष्य को उदार बनाती है। यदि हमारे अंदर दूसरों का मनोबल बढ़ाने की प्रवृत्ति है, अक्सर छोटी – छोटी बातों पर भी दूसरों को सराहने की प्रवृत्ति है तो ऐसी प्रवृत्ति हमारे जीवन को और अधिक उदार बना देती है।
अगर जीवन में कभी जैसा आप सामने वाले से अपेक्षा करते हैं अथवा आपने मन के अनुरूप कोई कार्य न भी हुआ तो क्रोधित होने की अपेक्षा अथवा तो नकारात्मक टीका – टिप्पणी करने की अपेक्षा उसके सकारात्मक पहलू पर विचार करो और प्रशंसा के दो शब्द बोल दिया करो।
आपके द्वारा की गई सामान्य प्रशंसा भी सामने वाले के मनोबल को और अधिक मजबूत बना सकती है। आपके द्वारा की जाने वाली सहज प्रशंसा भी कभी-कभी सामने वाले के लिए प्रसन्नता का कारण बन सकती है।
किसी कार्य से प्रभावित होकर प्रशंसा करना अलग बात है लेकिन किसी कार्य का आपके अनुरूप न होने पर भी प्रशंसा करना बिल्कुल अलग बात। प्रशंसा दूसरों के प्रभाव से नहीं आपके स्वभाव में होनी चाहिए, यही तो आपकी उदारता का भी पैमाना है।
एक बात और प्रशंसा, प्रसन्नता की जननी है। आप भी खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखो!
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बाहर की यात्रा सुगम है, सारी इंद्रियां बाहर की ओर खुलती हैं। कोई कहे बाहर देखो तो कोई अड़चन नहीं आती जब कोई भीतर देखने को कहता है।। तो अड़चन शुरू होती है, भीतर कैसे देखें जो आँख भीतर देखती है, वह तो हमारी अभी खुली नहीं, बंद है। जब आप भीतर जायेंगे तब पहली दफा पायेंगे, शून्य क्या है, मौन क्या है।। गलने लगेंगे, पिघलने लगेंगे, भागने लगेंगे।। लौटने लगेंगे बाहर, दम घुटने लगेगा। संसार छूटेगा, लोग छूटेंगे, संस्कार छूटेंगे अंततः आपके हाथ लगेगा निपट कोरा आकाश।।
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[: जिसके लिए मनुष्य जन्म मिला है, उस परमात्मा की प्राप्ति का उद्देश्य हो जाने पर मनुष्य को सांसारिक सिद्धि असिद्धि बाधा नहीं हो सकती।। संसार को महत्व न देने से अर्थात उस मे सम रहने से उद्देश्य की प्राप्ति होती हैं। परमात्मा प्राप्ति का उद्देश्य बन जाते ही सभी प्राप्त सामग्री (वस्तु, परिस्थिति आदि) साधन रूप ही जाती है।। इन्द्रियों के भोग तो पशु भोगते है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य तो सुख दुःख से रहित तत्व को प्राप्त करना है।। कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि सभी साधनो में जब तक दृढ निश्चय नही होता तब तक कोई भी साधन से सिद्धि नही मिल सकती।।
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इस जगत के उत्पन्न होने के पहले एक परमात्मा के सिवा कोई दूसरा ना था। उसकी माया शक्ति से वह दृश्य-जगत संकल्प मात्र बन गया दूसरी वस्तु ना होने के कारण या तो वह स्वयं जगत-रूप हो गया अथवा मायावी के खेल के सामान इस संपूर्ण जगत का व्यवहार खड़ा हो गया जो असत् है। अतएव या तो जगत को मिथ्या मायामय मानों या परमात्मा रूप मानो इन दोनों के सिवा तीसरा मार्ग नहीं है। तुम्हारी बुद्धि में जैसा जचे ऐसा मानो।। तुम्हें यह शंका होती हो कि तुम आत्मा नहीं हो जीव हो तो शरीर में जीव नाम की कोई वस्तु जान नहीं पड़ती। मन, बुद्धि, प्राण, इंद्रिय आदि परमात्मा के सामीप्य से अपना अपना काम करने में शक्तिमान होते हैं।।
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