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॥ आज का भगवद चिन्तन ॥

संगति का बहुत जल्दी असर होता है। हमेशा तमोगुण और रजोगुण में रहने वाला व्यक्ति भी थोड़ी देर आकर सत्संग में बैठ जाये तो उसमें भी सकारात्मक और सात्विक ऊर्जा का संचार होने लगेगा। चेतना एक गति है।। वह पूरे दिन बहती रहती है। उसे जैसा माहौल मिलेगा वह उसी में ढलने के लिए तैयार होने लगती हैं। आदमी पूरे दिन बदल रहा है।। अच्छे आदमी से मिलकर अच्छे होने का सोचने लगता है। तो बुरे आदमी से मिलकर बुरे होने के बिचार आने लगते हैं।। मन भिखारी की तरह है यह पूरे दिन भटकता रहता है। इसे सात्विक ही बने रहने देना। रजोगुण बढ़ा तो लोभ बढ़ेगा और लोभ बढ़ा तो ज्यादा भाग दौड़ होगी। ज्यादा दौड़ने से अशांति तो फिर आएगी ही आएगी।।
[पुण्य कर्मों का अर्थ केवल वे कर्म नहीं जिनसे आपको लाभ होता हो अपितु वो कर्म हैं जिनसे दूसरों का भला भी होता है। पुण्य कर्मों का करने का उद्देश्य मरने के बाद स्वर्ग को प्राप्त करना ही नहीं अपितु जीते जी जीवन को स्वर्ग बनाना भी है।
स्वर्ग के लिए पुण्य करना बुरा नहीं मगर परमार्थ के लिए पुण्य करना ज्यादा श्रेष्ठ है। शुभ भावना के साथ किया गया प्रत्येक कर्म ही पुण्य है और अशुभ भावना के साथ किया गया कर्म पाप है।। जो कर्म भगवान को प्रिय होते हैं, वही कर्म पुण्य भी होते हैं। हमारे किसी आचरण से, व्यवहार से, वक्तव्य से या किसी अन्य प्रकार से कोई दुखी ना हो। हमारा जीवन दूसरों के जीवन में समाधान बने समस्या नहीं, यही चिन्तन पुण्य है और परमार्थ का मार्ग भी है।।
[बाधाएं हमारे बाहर नहीं हैं, बाधाएं हमारे भीतर हैं और बाधाएं इसलिए हैं कि हमारे अंदर होश की, जागरण की कमी है और बाधाओं को मिटाने का और कोई उपाय नहीं है। अगर हम एक-एक बाधा को मिटाने में लग जाएंगे तो हम कभी न मिटा पाएंगे। बाधाओं को मिटाने का एक ही मार्ग है कि हम भीतर जाग जाएं, सभी बाधाएं खो जाती हैं। बाधाओं से निपटने का एक ही उपाय है कि हम नाम का दीया जला लें। नाम रुपी दीए के जलने से सारे भय समाप्त हो जाते हैं, घर प्रकाशित हो जाता है सच तो यह है जैसा सन्तों ने कहा है कि अंधेरे घर में चोर आकर्षित होते हैं। घर में दीया जलता हो तो चोर उस घर से बच कर निकलते हैं। भीतर नाम का दीया जल रहा हो और सुरति का पहरेदार खड़ा हो तो कोई बाधा नहीं आती अन्यथा सब बाधाएं आती हैं!!
[याद रहे, जब जब दुनिया में धर्म का नाश होगा तब-तब मैं इस धरती पर अधर्म का नाश करने को अवतरित होता रहूंगा। तुम एक इंसान होकर अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ पाये और अधर्म का साथ दे रहे हो लेकिन मैं भगवान होकर भी धर्म की रक्षा के लिए अपनी प्रतिज्ञा तोड़ रहा हूँ।। अगर मेरी किसी प्रतिज्ञा या वचन की वजह से धर्म और सत्य पर कोई आंच आती है। तो मेरे लिए वो प्रतिज्ञा कोई मायने नहीं रखती है।। और मैं धर्म के लिए ऐसी हजारों प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए तैयार हूँ। अगर आपके सामने धर्म का नाश हो रहा हो और आप धर्म की रक्षा के लिये कुछ नहीं कर रहे तो भी आप पाप के भागी हैं।।

!! ॐ !!
: तभी तो कृष्ण श्री कृष्ण कहलायें, जगद्गुरु कहलाये। श्री कृष्ण जो कुछ करते थे पूरी तन्मयता से करते थे।। भोजन भी तन्मयता से, प्यार भी तन्मयता से, रक्षा भी तन्मयता से। पूर्ण भोग, पूर्ण प्रेम, पूर्ण रक्षा यही तो श्री कृष्ण की महान् क्रियाएं हैं। जिन्हें लोग लीला कहते हैं।। वास्तव में ये लीलाएं नहीं हैं। श्रीकृष्ण की स्वभाविक क्रियाएं हैं।। जिसके माध्यम से उन्होंने यह संदेश दिया कि जो भी काम करो, पूर्ण तन्मयता से करो। ऐसे स्थितप्रज्ञ बनो जो अपनी शक्ति का पूरी तरह से प्रयोग करता हो। किसी प्रकार की कमी नहीं रखता हो। श्री कृष्ण ने ही मनुष्य को कर्म गामी बनाया। उन्होंने कहा कि – ‘जिस प्रकार कछुआ अपने हाथ पैर सिकोड़ कर अपने को कवच के भीतर सुरक्षित कर लेता है।। उसी प्रकार मनुष्य का अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण हो। कुछ भी बिखरा-बिखरा नहीं हो।।

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