जब व्यक्ति बहुत प्रसन्न होता है , तब उसका मन पर ठीक प्रकार से नियंत्रण नहीं होता । ऐसी स्थिति में यदि वह है कुछ वचन दे बैठे , तो बाद में वह पछताता है , कि “मैंने खुशी खुशी में क्या वचन दे दिया!” जैसे राजा दशरथ ने केकई को वचन दे दिया था और बाद में वे पछताए।
इसी प्रकार से जब व्यक्ति क्रोध में होता है , तब भी उसकी बुद्धि ठीक काम नहीं करती । क्रोध की स्थिति में लिए गए निर्णय, 100 में से 100 गलत होते हैं । परंतु यह बात भी तब समझ में आती है जब क्रोध हटकर बुद्धि ठीक व्यवस्थित हो जाती है । चाहें तो आप भी परीक्षण कर सकते हैं ।
जब क्रोध हट जाता है , तब व्यक्ति उस निर्णय पर दोबारा विचार करे, तो उसे समझ में आता है , कि क्रोध की अवस्था में जो मैंने निर्णय लिया था, वह गलत ही था ।
इसलिए जब आपको क्रोध आ गया हो, उस समय कोई निर्णय न लें । उसे कुछ देर के लिए टाल देवें।
क्रोध हट जाने पर जब आपकी स्थिति सामान्य हो जाए , तब ही कोई निर्णय लेवें। ऐसा करने से आपको पश्चाताप नहीं होगा और बहुत ही लाभ होगा..!!
🙏🙏🏾🙏🏼जय जय श्री राधे🙏🏿🙏🏻🙏🏽
[मैं दिल से शुक्रगुजार हूँ, उन तमाम लोगों का जिन्होनें बुरे वक्त में मेरा साथ छोड़ दिया। क्योंकि उन्हें भरोसा था, कि मैं मुसीबतों से अकेले ही निपट सकता हूँ।।
[हमारा केवल एक पल जो परमात्मा की सच्ची याद में गुजरता केवल वही हमारा मित्र है इसके विपरीत जो लाखों साँसे दुनियावी कामों में लगी वे हमारी शत्रु है परमात्मा की याद मे लगा हुआ वह -वह हर पल इतना शक्तिशाली होता है की वह दुसरे लाखों पलों के ऊपर हावी होकर उनके प्रभाव को ही नष्ट कर देता है…….
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[ कल्प साधना का उद्देश्य और स्वरूप यह एक सुविदित तथ्य है, कि संचित पाप कर्मों का प्रति फल रोग, शोक, विक्षोभ, हानि एवं विपत्ति आदि के रूप में उपस्थित होता है। विपत्तियों को भुगतने का मूल आधार मनुष्य का भ्रष्ट चिंतन एवं दुष्ट आचरण ही होता है। पाप कर्म के बीज सर्व प्रथम दुष्प्र वृत्ति बनकर अंकुर को तरह उगते हैं।। उसके बाद वे पेड़- पौधे बनकर फलने- फूलने योग्य जब तक नहीं होते, तब तक उनका स्वरूप पतन- पराभव के रूप में दृष्टि गोचर होने वाले दुरा चरण जैसा होता है। कालांतर में जब वे परिपुष्ट- परिपक्व को जाते हैं तो आधि- व्याधि, विपत्ति, हानि, भर्त्सना के रूप में कष्ट देने लगते हैं। दुष्कर्मों के अकाट्य प्रति फल से बचने का दैवी प्रकोप एवं सामाजिक प्रताड़ना के अतिरिक्त दूसरा मार्ग प्रायश्चित का है। इसका आश्रय लेकर मनुष्य आत्मशोधन और आत्म परिष्कार का दोहरा प्रयोजन एक साथ पूरा कर सकता है। प्रगति पथ पर चलने के लिए व्यक्ति को जो तप साधना करनी पड़ती है उसके स्वरूप दो ही हैं। पहला है। आंतरिक अवरोधों से पीछा छुड़ाया जाए और दूसरा है।। आत्म बल पर आश्रित अनुकूलताओं को अर्जित किया जाए यही है। आत्मिक पुरुषार्थ का एकमात्र और वास्तविक स्वरूप।।
[: परमात्मा से कुछ मांगो मत सिर्फ उन्हे याद करो |
जब आपको गर्मी होती है तो आप पंखे से हवा नही मांगते आप उसके सामने बैठ जाते है और हवा अपने आप आपको मिल जाती है !
उसी प्रकार परमात्मा के सामने बैठ उसे हम दिल से याद करे तो परमात्मा की सारी शक्तिया आपको स्वतः मिल जायेंगी आपको मांगने की जरुरत नहि पडेगी.
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ध्यान कोई ऐसी चीज नहीं है, कि घड़ी भर बैठ गए और हो गया ध्यान तो कुछ ऐसी बात है, जो आपके चौबीस घंटे के जीवन पर फैल जाता है। जीवन तो एक अखंड धारा है।। घड़ी भर ध्यान और तेईस घड़ी ध्यान नहीं, तो ध्यान होगा ही नहीं। ध्यान जब होता है, फैल जाता है। आपकी जीवन धारा पर ध्यानी को आप सोते भी देखेंगे, तो फर्क पाएंगे। उसकी निद्रा में भी एक अभूत पूर्व शान्ति है।।