हर वस्तु अर्पण के साथ गुणों का चिंतन इन विचारों के साथ जब आप फूल चढ़ाया करें, तो यही विचार करें कि हम अपना जीवन फूल जैसा बनाएँगे। हमारा जीवन फूल जैसा बनना चाहिए। फूल जैसा चौवन बनाना अपना उद्देश्य होना चाहिए। फूल चढ़ाता रहे और बेकार की बातें सोचता रहे कि गुलदस्ता बनाऊँ या माला बनाऊँ, ये करूँ या वो करूँ। इन बेकार की बातों में अपना समय खराब करता रहता है।। और यह नहीं सोचता कि हमको अपना जीवन फूल जैसा बनाना है। मित्रो, हम जब दीपक चढ़ाते हैं, उस समय हमारा विचार होना चाहिए कि भगवान को दीपक दिखाने की जरूरत नहीं है। भगवान के पास तो दो दीपक जलते ही रहते हैं। दिन में सूरज जलता रहता है और रात में चंद्रमा जलता रहता है। आप भगवान के लिए दीपक नहीं जलाएँगे तो भगवान का कोई हर्ज नहीं हो सकता। महाराज जी फिर तो हम बार बार दीपक जलने में पैसा क्यों खरच करें? क्यों बार-बार दीपक जलाएँ? बेटे, उसका भी एक कारण है। एक ऐसा बेवकूफ आदमी है, जो आँखों से अंधा है, जिसको कुछ दिखाई नहीं पड़ता। उसके सामने दीपक दिखाओ तो कुछ तो दिखाई पड़े। कौन है वह बेवकूफ और अंधा आदमी? वह है तू और हम, जिनको अंधे कह सकते हैं। जिन्हें कुछ पता ही नहीं है, कुछ दिखता ही नहीं है, कुछ सूझता ही नहीं है। जिन्हें न अपना मरना दीखता है और जीना दीखता है। बस एक ही चीज दिखती है-विलासिता, एक ही चीज दिखती है-तृष्णा, एक ही चीज दिखती है-वासना, एक ही चीज दिखती है-भोग, एक ही चीज दिखती हैं-लोभ। वह एक ही चीज देखता है और कुछ नहीं। उसकी आँखें खराब हैं। उसे मोतियाबिन्द की शिकायत है। अतः अँधेरे में भटकने वालों को रोशनी की जरूरत है।।
[मानव को विचार करना चाहिये कि ऐसी कौन सी वस्तु है, जो सदा हमारे पास रहेगी और हम सदा उसके पास रहेंगे ऐसा कौन-सा व्यक्ति है। जो सदा हमारे साथ रहेगा और हम सदा उसके साथ रहेंगे ऐसी कौन सी क्रिया है।। जिसको हम सदा करते रहेंगे और जो सदा हमसे होती रहेगी सदा के लिये हमारे साथ न कोई वस्तु रहेगी न कोई व्यक्ति रहेगा और न कोई क्रिया रहेगी। एक दिन हमें वस्तु व्यक्ति और क्रिया से रहित होना ही पड़ेगा अगर हम वर्तमान में ही उनके वियोग को स्वीकार कर लें उनसे असंग हो जायँ तो जीवन मुक्ति स्वत: सिद्ध है। तात्पर्य है कि वस्तु व्यक्ति और क्रिया का संयोग तो अनित्य है पर वियोग नित्य है।। नित्य को स्वीकार करने से नित्य तत्त्व की प्राप्ति हो जाती है और कोई अभाव शेष नहीं रहता मेरा कहने का तातपर्य है। की सब कर्म अकर्म प्रभु के ऊपर छोड़ दो और प्रभु का भजन चिन्तन संकीर्तन करते हुए अपना कल्याण कर सकते हो।।
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प्रेम के बहुत से पहलू हैं, जब आप एक बच्चे से प्रेम करते हैं। उसमें वात्सल्य होता है।। जब आप मां से प्रेम करते हैं। उसमें श्रद्धा होती है, एक गहरी कृतज्ञता होती है। लेकिन जब आप परमात्मा से प्रेम करते हैं, तो उसमें आपको एक अपूर्व शान्ति उपलब्ध होती है, एक दिव्यता प्राप्त होती है।। यदि आप ध्यान से देखें तो आप प्रेम की अभिव्यक्ति में बहुत बड़ा अंतर, भावनाओं के उतार-चढ़ाव और उसके कई रंग पाएंगे। प्रेम के हर रंग को गहराई से समझें।।
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[: देने का आब सदा मन में हो मित्रो, देने की वृत्ति का अर्थ यह है। कि हम जो जल चढ़ाते हैं।। उसके पीछे भगवान को यह आश्वासन दिलाते हैं कि हमारी पसीने की बूँदें, हमारे श्रम की बूँदें, हमारी मेहनत, हमारा वक्त और हमारा समय आपके कामों के लिए लगा करेगा। जल चढ़ाते समय हम बार-बार विचार करते हैं कि हमारा श्रम अर्थात पसीने की बूँदें, जो जल का प्रतीक हैं।। हमारी मशक्कत का प्रतीक हैं, हमारी मेहनत का प्रतीक हैं, अपने समय का हिस्सा है, ये समाज के लिए, देश के लिए, संस्कृति के लिए, धर्म के लिए अर्थात भगवान के लिए लगा करेगा। भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, यह आप ध्यान रखना। भगवान के लिए हम देते हैं। कहाँ है भगवान साहब, वह तो मंदिर में बैठा हुआ है। नहीं बेटे, जो मंदिर में बैठा हुआ है, वह तो कोई खिलौना है। फिर कहाँ है, भगवान मनुष्य की श्रेष्ठता के रूप में, ऊँचे समाज के रूप में भगवान है। भगवान ने जब अर्जुन को, यशोदा माता को अपना विराट रूप दिखाया था, तो सारे समाज के रूप में दिखाया था। समाज ही भगवान का रूप हैं। समाज की सेवा के लिए, लोकहित के लिए, लोकमंगल के लिए तू जो पसीना बहाता है।। श्रमदान करता है। वास्तव में यह जल चढ़ाना उसी का प्रतीक है।।
[: परेड में पीछे मुड़ बोलते ही पहला आदमी आखिरी और आखिरी आदमी पहले नंबर पर आ जाता है। जीवन में कभी आगे होने का घमंड और आखिरी होने का गम न करें।।