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*शीशा, जिसमें आप रोज अपना चेहरा देखते हैं। सभी लोग देखते हैं। शीशा सबको अपना चेहरा दिखाता है। शीशे में सब का प्रतिबिंब उतरता है, परंतु शीशा किसी के प्रतिबिंब को अपने अंदर धारण नहीं करता। जैसे ही व्यक्ति शीशे के आगे से हट जाता है, शीशा भी तत्काल उसके प्रतिबिंब को छोड़ देता है। शीशे के व्यवहार से हमें बहुत सुंदर संदेश मिलता है, कि *हम भी शीशे की तरह से सब लोगों से मिलें, सबके साथ उचित व्यवहार करें, परंतु संग्रह किसी का न करें ; अर्थात किसी से लगाव न रखें, आसक्ति न रखें। शास्त्रीय शब्दों में कहें, तो राग न रखें।क्योंकि यह लगाव या आसक्ति ही आगे चलकर दुख देती है। वह व्यक्ति या वस्तु जो आपको आज सुख दे रही है, आगे चलकर यदि वह आपके साथ न रही, आप से छूट कर अलग हो गई, खो गई, नष्ट हो गई अथवा किसी ने छीन ली, तब उस वस्तु या व्यक्ति का वियोग होने पर आपको कष्ट होगा।। तब यह राग, आसक्ति या लगाव आपको दुख देगा। इसलिए शीशे से बहुत सुंदर प्रेरणा लेकर संसार की वस्तुओं में आसक्ति का त्याग करें, और अनासक्त भाव से संसार का उपभोग करते हुए आनन्द पूर्वक जीएँ।।*
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स्वाभिमान का मतलब अपनी बात पर अड़े रहना नहीं अपितु सत्य का साथ ना छोड़ना है। दूसरों को नीचा दिखाते हुए अपनी बात को सही सिद्ध करने का प्रयास करना यह स्वाभिमानी का लक्षण नहीं अपितु दूसरों की बात का यथायोग्य सम्मान देते हुए किसी भी दबाब में ना आकर सत्य पर अडिग रहना यह स्वाभिमान है।।

   *अभिमानी वह है जो अपने अहंकार के पोषण के लिए दूसरों को कष्ट देना पसंद करता है। स्वाभिमानी वह है जो सत्य के रक्षण के लिए स्वयं कष्टों का वरण कर ले।।*

 *मै जो कह रहा हूँ वही सत्य है, यह अभिमानी का लक्षण है और जो सत्य होगा मै उसे स्वीकार कर लूँगा यह स्वाभिमानी का लक्षण है। अपने आत्म गौरव की प्रतिष्ठा जरुर बनी रहनी चाहिए मगर किसी को अकारण, अनावश्यक झुकाकर, गिराकर या रुलाकर नहीं..!!*

🙏🏻🙏🏾🙏: जो कोई मेरी भक्ती करता है तथा पूर्णतः मेरी शरण में आ जाता है मैं सदैव उसके सभी कार्य स्वंय करता हूं। एक बार भी जो प्रेम से मुझे पुकारता है मै अविलंब उसके समक्ष प्रकट हो जाता हूं तथा उसके सभी आधिभौतिक और आध्यात्मिक कार्य सफल करने में उसकी सहायता करता हूं। मै तो अपने भक्तों का दास हूं और दुर्दिनो में सदैव अपने भक्तों को सहायता पहुंचाने में सहायक हूं। “मेरी शरण आ खाली जाए, हो तो कोई मुझे बताए धन्य-धन्य वह भक्त अनन्य मेरी शरण तज जिसे न अन्य”। अर्थात् जो एक बार मेरी शरण में आ जाता है मै उसे कभी निराश नहीं लौटाता और जो केवल मेरी शरण में रहते हैं ऐसे भक्त धन्य और भाग्यशाली हैं ।

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