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हम जीवन में एक दूसरे को सुख देते रहते हैं।। कभी-कभी दूसरों को परेशान भी करते हैं। ऐसा ही दूसरे लोग हमारे साथ भी करते हैं।। वे लोग भी कभी हमें सुख देते हैं। और कभी दुख देते हैं।। प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र हैं। इसका अर्थ है, कि दूसरे लोग अपना कार्य अपनी इच्छा संस्कार और बुद्धि से करते हैं।। हम भी अपना कार्य अपनी इच्छा संस्कार और बुद्धि से करते हैं। इसी का नाम कर्म करने की स्वतंत्रता है।। परंतु यदि आप अपने जीवन को उत्तम बनाना चाहते हैं। तो दूसरों को सदा सुख देवें।। यदि आप दूसरों को सुख देते हैं। तब आपका जीवन सर्वोत्तम है।। तभी आपका जीवन सफल है। आप कार्य कुशल कहलाएंगे।।
[ प्रत्येक मनुष्य का जीवन सर्वथा उसके अधीन है। जो कुछ सुख या दुःख हमें प्राप्त होते हैं।। उनमें कार्य – काऱण का एक विशेष नियम रहता है। दुःखों का काऱण वे स्वयं होते हैं।। अगर मनुष्य जानबूझ कर वहम, अज्ञान, भूल, अंधकार और दुःख की कोठरी में समस्त जीवन बैठा रहे और दुःख की शिकायत करता रहे, तो क्या उसका दुःख दूर हो जाएगा वास्तव में विचार किया जाए। तो सुख के लिए अपने चित्त की शान्ति और एकाग्रता की आवश्यकता है। दूसरी वस्तुओं का सहारा ढूँढने की आवश्यकता नहीं।। एक मनुष्य ऐसा होता है। कि जहाँ जाता है।। वहाँ उसे आनंद ही मिलता है। प्रत्येक परिस्थिति उसको अनुकूल मालूम होती है।। दूसरा मनुष्य ऐसा होता है। जिसे प्रत्येक वस्तु में बुराई – ही – बुराई नजर आती है।। प्रत्येक वस्तु या मनुष्य के सम्पर्क में आकर वह खिन्न हो जाता है। वह जगत को न रहने योग्य मानता है।। संसार में रहकर तरह – तरह के अभाव, विघ्न – बाधा, आधि – व्याधि के आक्रमण से बचना संभव नहीं है। पर उस परिस्थिति में भी शांत और धैर्ययुक्त रहना तो हमारे ही हाथ में है।।
[: देवता लोगो के पास भोगो की कमी नही है, लेकिन फिर भी देवी देवता मनुष्य जीवन जीना चाहते है।। क्योकि मनुष्य देह पाकर ही भक्ति का पूर्ण आनंद, संतो की सेवा और हरि कृपा से सत्संग का सानिध्य मिलता है। भगवान को पाने की इच्छा सारी इच्छाएँ मिटाने का एक सबल साधन है।। सारी इच्छाएँ मिट गयीं तो भगवान को पाने की इच्छा भी फिर अपने-आप शांत हो जाती है। भगवान ही अंतर में प्रकट हो जाते हैं।। इतिहास गवाह है। गुरु शिष्य परम्परा अंतर्गत अनेक ऐसे शिष्य हुए हैं।। जिन्होंने बिना वेद उपनिषद पठन के मात्र गुरु सेवा से आत्म ज्ञान की कुंजी को प्राप्त कर लिया है। गुरू सेवा में लीन शिष्य कब अद्वैत भाव से लीन हो जाता है।। यह शिष्य को भी बोध नही होता। गुरु सेवक होना अर्थात इस ब्रह्मंड के सर्वोच्च पद को प्राप्त करने के समान है।।

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: सिर्फ बुद्धि ही नहीं, भाव संवेदनाओं की भी जरूरत है, संवेदन-शून्य निष्ठुरता के महादैत्य से अपने हृदय को बचाकर दया, करुणा, मुदिता, क्षमा और प्रीति – इन पंच सखियों को आप अपने साथ रखो। मधुर मुस्कान को अपने होठों पर अठखेलियाँ करने दीजिये।। विश्वजीत तो क्या आप मनुष्य-मात्र के हृदय को जीत लोगे जिनको मानव तन मिला है। थोड़ी मुमुक्षा है।। और महापुरुषों का संग मिला है। उन्हें साधना में ऐसी तत्परता से लग जाना चाहिए जैसे किसी को हीरे-मोती की खान मिली हो और वह उन्हें बटोरने में लग जाए ।।

    

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अगर प्यास नहीं है, परमात्मा की बात ही छोड़ दीजिये।। अभी उसका समय नहीं आया। अभी थोड़ा और भटकिये, दुख पाइये।। अभी दुख को और मांजने दें, निखारने दें अभी संसार में ही रहें, जल्दी न करें। क्योंकि जब तक आप पीड़ा से न भर जायें लाख बार परमात्मा के द्वार आयें, हर बार खाली हाथ आएंगे और लौट जाएंगे। परमात्मा तो उसी दिन उपलब्ध होगा जिस दिन संसार से पीठ कर लेंगे।। जिस दिन परमात्मा की प्यास जागेगी। फिर उसे खोजने नहीं जाना पड़गा, परमात्मा स्वयँ आपके द्वार पर दस्तक देगा।।

 

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