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यह इस प्रकृति का एक शास्वत नियम है यहाँ सदैव एक दूसरे द्वारा अपने से दुर्बलों को ही सताया जाता है। और अक्सर अपने से बलवानों को उनसे कुछ गलत होने के बावजूद भी छोड़ दिया जाता है।
दुःख के साथ भी ऐसा होता है जितना आप दुखों से भागने का प्रयास करोगे उतना दुःख तुम्हारे ऊपर हावी होते जायेंगे। स्वामी विवेकानंद जी कहा करते थे कि दुःख बंदरों की तरह होते हैं जो पीठ दिखाने पर पीछा किया करते हैं और सामना करने पर भाग जाते हैं।
समस्या चाहे कितनी बड़ी क्यों ना हो मगर उसका कोई न कोई समाधान तो अवश्य ही होता है। समस्या का डटकर सामना करना सीखो क्योंकि समस्या मुकाबला करने से दूर होगी मुकरने से नहीं।

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नम:शिवाय
अपनों से अपनी बात
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या तो कर्म सिद्धान्त पर आपकी पूर्ण निष्ठा हो कि जो कर्म किये हैं उनका फल तो भोगना ही होगा। यदि प्रारब्ध कर्मफल के रूप में चाईना कोरोना वायरस से आपको संक्रमित होना होगा तो इसे ही प्रराब्ध रूप में स्वीकार करें। यदि ऐसा कोई कर्म किया ही नहीं कि ये बीमारी से आक्रान्त हो शरीर नष्ट होना हो तो वह आपको होगी ही नहीं। यह जानें एवं चिन्तामुक्त रहें।

या तो भक्ति ही कर लो। सबकुछ ईश्वर पर छोड दो। ईश्वर अपने भक्त को योगक्षेम स्वयं ही वहन करते हैं। यदि कोरोना होगा भी तो उसमें आपके लिए ईश्वर की कोई बडी लाभप्रद बात ही छिपी होगी। हम बहुत छोट समय सीमा के छुद्र लाभों को ही देख पाते हैं। ईश्वर समष्टि की दृष्टि से आपके लिए क्या श्रेष्ठ है इसका विचार आपसे उत्तम रूप से कर सकता है। इस प्रकार जो भक्त हैं वे भी चिन्तामुक्त हैं।

या तो वेदान्त के परमज्ञान में स्थित हो जाओ। तब तो कोई किसी भी प्रकार की चिन्ता का प्रश्न ही नहीं। आपके सद्चिदानन्दस्वरूप में तो विकार, विक्षेप सम्भव ही नहीं। शरीर जब तक चल रहा है चल रहा है नहीं चल पायेगा तो गिर जायेगा बस। मैं तो इस देह से विलक्षण सद्चिदानन्त आत्मा हूं।

जिनका जीवन आत्मचिन्तन प्रधान रहा है वे गीता के दूसरे अध्याय पर जिसपर हमारी श्रृंखला चल रही है उसपर गहन चिन्तन करें। सारी चिन्ताओं से मुक्त होने का इससे श्रेष्ठ विधान तो कोई ज्ञात नहीं। कभी चित्त को इस चिन्तन से नीचे उतरता जानो बस दो श्लोकों का चिन्तन करो एवं चित्त पुन: प्रशान्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है।

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।२.१३।।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।२.२२।।

चलिए यह तो हुई उनकी चर्चा जिनका अध्यात्मचिन्तन कुछ परिपक्वास्था में है। घर में आग लग जाने पर फिर तो पानी का गड्डा खोदा नहीं जा सकता।

अब चर्चा करते हैं समान्यजनों की दृष्टि से जो सबके लिए लाभप्रद हो।

भय परिस्थितियों में किसी प्रकार का सुधार नहीं लाता अपितु उन्हें और ​जटिल बना देता है। जो व्यक्ति सामान्यरूप से स्वस्थ हैं किसी जटिल रोग से ग्रसित नहीं हैं उनके लिए कोई विशेष समस्या नहीं है। किन्तु उन्हें भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि वे इस रोग के वाहक बनकर उन लोगों को संक्रमित न करें जिनके लिए ये प्राणघातक हो सकता है।

इस समय को चाईना कोरोना चातुर्मास के रूप में एकान्त में बितायें। भगवद्भजन एवं गीता आदि शास्त्रों के अध्ययन में इस समय का सदुपयोग करें। इसे ईश्वर प्रदत्त वरदान जानें जब आपको इस जटिल भाग दौड भरे जीवन में कुछ मास एकान्तवास एवं भगवद्भजन को प्राप्त हो रहे हैं। इस समय को आत्मचिन्तन, भगवद्भजन में बीतायें। गीता के दूसरे अध्याय का श्रवण एवं मनन करें।

यह समय एक दूसरे पर आरोप लगाने का, धार्मिक रूढीवादिता के प्रचार प्रसार का भी नहीं है। अपितु इस समय सारे भेदभाव भुला कर, इसे आपात काल जान मानवमात्र के प्रति सुहृदता का प्रदर्शन कर एकत्रित हो इस माहामारी को फैलने से रोकने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है। दूसरों को नीचा दीखा अपना मण्डन खण्डन बाद के विषय हैं। अपनी शुद्धता एवं देवत्व के प्रचार प्रसार का समय यह नहीं। सबके साथ मिलकर सबके हित के लिए कार्य करने का समय है। कौन पापी है कौन पुण्यात्मा एवं आपसी मतभेद बाद में सुलझाते रहेंगे।

जाने क्या है महामाई की इच्छा। एक वृहद् शिवलिङ्ग के स्वप्न में दर्शन तो हुए हैं, नवरात्रों से आशा भी है किन्तु मन कुछ सशंकित सा है।

अगर यह नवरात्रों के पश्चात शान्त नहीं हुआ तो परिस्थितियां विकट हो सकती हैं। हमें जो अन्त: प्रेरणा हो रही है वह है शिव के योगेश्वर योग की। इस अनुष्ठान को अत्यन्त दुष्कर कार्य के लिए ही करने को कहा जाता है। शिव पुराण में कहा गया है कि इसका अनुष्ठान उसके फल को प्राप्ति के लिए करना चाहिए जो अन्य कार्यों से असाध्य हो।

महत्स्वपि च पातेषु महारोगभयादिषु।
दुर्भिक्षादिषु शान्त्यर्थं शान्तिं कुर्यादनेन तु।।

महोत्पात, महारोग, महाभय एवं दुर्भिक्ष आदि की शान्ति के लिए इसका अनुष्ठान करना चाहिए। यदि कुछ लोग आगे आयें तो पूरे राष्ट्रहित के लिए मिलकर यह अनुष्ठान सम्पन्न किया जा सकता है।
इति शुभम्

[ धनहीनो न हीनश्च धनिकः स सुनिश्चयः।
विद्यारत्नेन यो हीनः स हीनः सर्ववस्तुषु।।

भावार्थः आचार्यों की दृष्टि में विद्या से बढ़कर संसार में कोई दूसरा धन नहीं है। वे इसके महत्व को स्वीकारते हुए कहते हैं कि धन वैभव से रहित व्यक्ति निर्धन नहीं होता, अपितु जो मनुष्य बुद्धि एवं विद्या से रहित होता है, वही वास्तविक निर्धन है। धन कमाने का कार्य एक मूर्ख व्यक्ति भी कर सकता है, लेकिन विद्यार्जन का सौभाग्य विरले को ही प्राप्त होता है। धन से परिपूर्ण होने पर भी मूर्ख अपने लिए मान सम्मान अर्जित नहीं कर सकता। परंतु एक विद्वान निर्धन होने पर भी समाज में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करता है। इसलिए धनार्जन की अपेक्षा ज्ञानार्जन का अधिक महत्व है और मनुष्य को इसके लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
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यह इस प्रकृति का एक शास्वत नियम है यहाँ सदैव एक दूसरे द्वारा अपने से दुर्बलों को ही सताया जाता है। और अक्सर अपने से बलवानों को उनसे कुछ गलत होने के बावजूद भी छोड़ दिया जाता है।। दुःख के साथ भी ऐसा होता है, जितना आप दुखों से भागने का प्रयास करोगे उतना दुःख तुम्हारे ऊपर हावी होते जायेंगे। स्वामी विवेकानंद जी कहा करते थे कि दुःख बंदरों की तरह होते हैं जो पीठ दिखाने पर पीछा किया करते हैं और सामना करने पर भाग जाते हैं।। समस्या चाहे कितनी बड़ी क्यों ना हो मगर उसका कोई न कोई समाधान तो अवश्य ही होता है। समस्या का डटकर सामना करना सीखो क्योंकि समस्या मुकाबला करने से दूर होगी मुकरने से नहीं।।

🙏 🙏
[ समय निरंतर चलता रहता है। इसे न कोई रोक पाया है।। और न ही कोई रोक पायेगा इसलिए समय रहते आत्म ज्ञान परम आवश्यक है अन्यथा घोर विनाश है। सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें आत्म आनंद की प्राप्ति नहीं होगी।। हमें आत्म आनंद की प्राप्ति सिर्फ आत्म ज्ञान के द्वारा प्राप्त हो सकती है। लम्बी यात्रा पर जाने से या कठिन व्रत रखने से हमें परम ज्ञान अथवा आत्म आनंद प्राप्त नहीं होगा।। चाहे हम योग, ज्ञान, भक्ति, ध्यान आदि की राह पर चलें या हम अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हमने आत्मा और परमात्मा के एकत्व भाव को जान लिया तो हमें सदैव आत्म आनंद प्राप्त होगा क्योकि एकमात्र परमात्मा ही आनंद है।।

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आज का दिन शुभ मंगलमय हो।
[प्रायः हम अपने सत्य को सत्य की सीमा समझते हैं, हम सोचते हैं। जो हम मानते हैं। वही ठीक है।। और सारी दुनिया उसको मान लेगी और हम इसकी चेष्टा भी करते हैं। यह मतवादी सोच ही हमें अंधकार की ओर ले जाती जहाँ से हम अपने में कुछ भी समाहित करने की स्थिति में नहीं होते और यही एक मतवादी सोच ,परस्पर टकराहट का कारण बनती यह स्वीकार करना चाहिए क़ि हर कोई परम पिता परमेश्वर की शक्ति से संचालित है…वो किसी को भी कभी भी महात्मा बुद्ध या महावीर बना सकता इसलिए हमें दूसरों के विचारों का भी सम्मान करना चाहिए, यह स्वस्थ रिश्तों का आधार भी है, और ज्ञान की कुञ्जी भीआज प्रभु से श्रवण करने के सात्विक गुण की प्रार्थना के साथ…

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