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सब वस्तुओं की तुलना कर लेना मगर अपने भाग्य की कभी भी किसी से तुलना मत करना। अधिकांशतया लोगों द्वारा अपने भाग्य की तुलना दूसरों से कर व्यर्थ का तनाव मोल लिया जाता है व उस परमात्मा को ही सुझाव दिया जाता है, कि उसे ऐसा नहीं, ऐसा करना चाहिए था।

परमात्मा से शिकायत मत किया करो। हम अभी इतने समझदार नहीं हुए कि उसके इरादे समझ सकें। अगर उस ईश्वर ने आपकी झोली खाली की है तो चिंता मत करना क्योंकि शायद वह पहले से कुछ बेहतर उसमे डालना चाहता हो।

अगर आपके पास समय हो तो उसे दूसरों के भाग्य को सराहने में न लगाकर स्वयं के भाग्य को सुधारने में लगाओ। परमात्मा भाग्य का चित्र अवश्य बनाता है मगर उसमें कर्म रुपी रंग तो खुद ही भरा जाता है।

राधे राधे 🙏
🙏आज का संदेश🙏

इस सृष्टि में ईश्वर प्रदत्त कई अनमोल उपहार हमें प्राप्त हुए हैं। जिनकी गिनती कर पाना शायद हमारे लिए सम्भव नहीं है। यहाँ हमें मिले इन उपहारों में सर्वश्रेष्ठ है हमारा जीवन इस प्रकृति में सब कुछ परिवर्तनशील है। जीवन का अर्थ है गतिशीलता, इस प्रकृति में सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथ्वी सबके सब सदैव गतिमान ही हैं। क्योंकि इसमें प्पतिपल कुछ न कुछ नया होता रहता है। इन सभी की तुलना यदि किया जाय तो यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवन से भी अनमोल है ईश्वर द्रारा हमें प्राप्त हुआ समय। समय से बढकर अमूल्य इस सकल सृष्टि में कुछ भी नहीं है। समय का प्रवाह इतना तीव्र है कि एक व्यक्ति एक ही नदी की धारा में दो बार नहीं नहा सकता है। क्योंकि उसने पहली बार जिस धारा में स्नान किया था वह दुबारा उसे नहीं मिलेगी क्योंकि वह धारा तो आगे निकल चुकी होती है। जब तक व्यक्ति दुबारा स्नान करने जाता है तब तक तो वह धारा पता नहीं कहाँ निकल चुकी होती है। इसी प्रकार हमारे जीवन में जो एक बार हो चुका वह समय दुबारा आना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है। अब यह अलग बात है कि हमें इसका भान नहीं हो पाता है , इसका भान तब होता है जब हम वृद्ध हो जाते हैं ! और तब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं रह जाता है सिवाय पछतावे के समय प्रतिपल गतिमान है। आप रुक जाते हैं परंतु समय अपनी गति से चलता रहता है। समय को तो कोई रोक नहीं सकता अत: बुद्धिमत्ता यही है कि हम समय के साथ प्रवाहित होना सीख लें। समय के प्रतिक्षण का सदुपयोग करने में ही हमारी सार्थकता है।

हमारा मानना है कि आज प्रत्येक प्राणी को यह विचार अवश्य करना चाहिए कि हमें इस पृथ्वी पर विचरण करके कुछ करने के लिए एक निश्चित समय मिला हुआ है। और यह समय हमारे जन्म से ही प्रारम्भ हो जाता है। यदि हम इसका सदुपयोग नहीं करते हैं तो समझ लीजिए कि यह समय पल पल क्षीण हो रहा है, और एक दिन हमारे मृत्यु का समय भी आ जायेगा। क्योंकि यह निश्चित है। जब हम यह जानते हैं कि हमारा अन्त समय भी आ ही जायेगा और हम इस संसाररूपी रंगमंच से विदा हो जायेंगे तो यहाँ से जाने पहले या बुढापा आने के पहले ही हम क्यों न आध्यात्मिक, आत्मसाक्षात्कार एवं ईश्वरप्राप्ति की ओर कदम बढा दें ! हम क्यों धार्मिक कार्य या ईश्वर का भजन करने के लिए बुढापे की प्रतीक्षा किया करते हैं ?? इस जीवन का अर्थ ही समय है। जो जीवन से प्यार करते हों वे आलस्य में समय न गंवायें क्योंकि यहाँ कई उदाहरण देखने को मिले हैं कि जिसने व्यर्थ समय बरबाद करने का प्रयास किया है समय ने उसको भी बरबाद ही कर डाला है। एक बात यह समझ लीजिए कि जैसे बूंद बूंद से तालाब भरता है उसी प्रकार समय का एक एक क्षण हमारे लिए बहुमूल्य है। हम प्राय: आलस्य में आकर कहा करते हैं कि — अभी हमारे पास बहुत समय है यह कार्य कल कर लिया जायेगा। परंतु जीवन का क्या भरोसा है ? क्या पता कल को हम रहें कि न रहें। इसलिए कोई भी कार्य कल के लिए नहीं छोड़ना चाहिए।

हम हीरे जवाहरात तो जीवन में दुबारा खरीद सकते हैं परंतु बीता हुआ समय दुबारा हमें जीवन में नहीं प्राप्त हो सकता है। अत: ईश्वर प्रदत्त इस अनमोल उपहार (समय) का जितना हो सके सदुपयोग करने का ही प्रयास किया जाय।

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[एक बार शिव पार्वती भ्रमण कर रहे थे के तभी उनको एक तालाब दिखा। तालाब में बहुत सारे बच्चे तैर रहे थे या फिर खेल रहे थे…. पर एक बच्चा तालाब के किनारे गुमसुम सा बैठा था। माता पार्वती ने सोचा के ये बच्चा क्यों नहीं खेल रहा है…. के तभी उन्होनें देखा के उस बच्चे के दोनों ही हाथ नहीं थे…. ये देख के माता पार्वती का मन उदास हो गया और वो भगवान शंकर से कहने लगीं… प्रभु इस छोटे से बच्चे के दोनों ही हाथ नहीं हैं, इसको हाथ दे दिजिये…. ये भी तालाब में खेलेगा।

भगवान शंकर बोले बिलकुल नहीं पार्वती, इसके हाथ नहीं हैं तो इसके कर्म हैं और मैं किसी के करमो के बीच दखल नहीं देता।

पार्वती बोली प्रभु मेरी बात का मान रख लिजिए, मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूं….क्या आप मेरी इतनी सी विनती नहीं सविकार करेगें।

माता पार्वती का मान रखते हुए भगवान शंकर ने उस बच्चे को दोनों हाथ प्रदान कर दिये।

माता पार्वती खुश हो गई और वो दोनों वहा से चले गए।

कुछ समय बाद भगवान शंकर और माता पार्वती एक बार फिर भ्रमण को निकले और तालाब के ऊपर से गुज़रे।

इस बार जिस बच्चे को भगवान शंकर ने हाथ दिये थे खाली वो ही तालाब में खेल रहा था और बाकी सारे बच्चे तालाब के किनारे उदास बैठे थे।

माता पार्वती हैरान होकर सोचने लगती हैं के अब ये क्या हो रहा है…. सारे बच्चे क्यों उदास हैं

लेकिन कुछ देर वहा खडे रहने के बाद उनको पता चलता है के जिस बच्चे को हाथ दिये थे उसने तो पूरे तालाब पर ही कब्जा कर लिया है….. दूसरा कोई बच्चा जैसे ही तालाब में आता है वो उसको मार मार के भगा देता है….

माता पार्वती का मन ये देख के दुखी हुआ….

भगवान शंकर बोले पार्वती तुमको पता है इस बच्चे के दोनों हाथ क्यों नहीं थे…. कयोकिं अपने पिछले जन्म में ये लोगों को मारता था, उनका हक छीनता था…. उसी पाप के फलस्वरूप इसको इस जन्म में हाथ नहीं दिये गए थे…… और अब भी ये बदला नहीं है, हाथ मिलते ही इसने फिर सबको मारना, उनका हक छीनना शुरू कर दिया है।

इसको दंड मिले बीना ये सुधरेगा नहीं….. इसलिए मैं इसको हाथ नहीं दे रहा था।

कहते हैं ईश्वर तो बडा़ ही दयालु है, हमें ईश्वर से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है कयोकिं डरना है तो अपने करमो से डरो कयोकिं कर्म कभी किसीका पीछा नहीं छोड़ते…. जैसा किसे के साथ किया है, चाहे अच्छा या बुरा वो 100 गुणा होके हमारे पास ही वापस आने वाला है, ये ही विधी का विधान है और स्वयं ईश्वर भी इसमें दखल नहीं देते

हर हर महादेव

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