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इस संसार में आपका क्या अस्तित्व है, कुछ भी तो नहीं यहाँ करोड़ों लोग आये, जीये, चले गए ऐसे ही आप भी चले जाएंगे। आप क्या साबित करने जा रहे हैं।। मैं कुछ हूँ, मैं करके दिखाऊँगा। किसको क्या दिखाना चाहते हैं।। आप यह जो मन में भाव उठता है न, कि आप कुछ हैं, यही मूल कारण है दुःख का सहज हो जाएँ, सबसे प्रेम से मिलें।। कुछ साबित करने की कोशिश न करें। तभी आप के जीवन में आनन्द घटेगा।।

      
              🙏


अगर आपसे अनायास एक गलती हो जाती है, तो जरूर वह क्षम्य है,मगर उसे छुपाने के लिए झूठ बोलकर दूसरी गलती करना यह जरूर दंडनीय है। भूल होना कोई समस्या नहीं, बिना भूल किये कुछ सीखने को नहीं मिलता। एक भूल को कई बार करना यह जरूर चिंता का विषय है। भूल को छिपाना यह और भी खतरनाक है।। झूठ उस कवर की तरह है। जिसमें उस समय तो दोष ढक जरूर जाते हैं मगर नष्ट नहीं हो पाते समय आने पर वो छोटी भूल बड़ी गलतियों का कारण बन जाती हैं।। गलती हो जाए तो उसे स्वीकारना सीखो। आपका स्वीकारना ही आपको दूसरों की नजरों में क्षमा का अधिकारी बना देगा।।
भूल होना “प्रकृति” है, मान लेना “संस्कृति” है। सुधार लेना “प्रगति” है।।

  *जय श्री राधे कृष्णा।।*

[भावदेव ने संन्यास ले लिया लेकिन मन संन्यास में नहीं लग रहा था। बार-बार माँ, पत्नी और पुत्र का स्मरण हो आता उनको देखने के लिए वह वापस लौटे और गाँव के बाहर ठहर गये। पहले लोगों से माँ के बारे में पूछा तो पता चला कि उनका स्वर्गवास हो गया फिर पत्नी के विषय में पूछा उनके वापस आने की बात सुनकर पत्नी भी वहां आ गई। उसने समझ लिया कि संन्यासी का मन अस्थिर है।। इन्हें प्रतिबोध देना चाहिए। उसकी गोद में छोटा बच्चा भी था संयोग की बात कि वह वमन करने लगा भावदेव से रहा नहीं गया वे बोले- कैसी तुम्हारी बुद्धि है। उसे रोकती क्यों नहीं इस पर पत्नी बोली-किस-किस को रोकूं महाराज आप भी तो वही कर रहे हैं। जिसे त्याग दिया, फिर उसी में लिप्त होना चाहते हैं। भावदेव सचेत हो गए और पुन: संयम के पथ पर चल पड़े।।
[ देवत्व वह संपत्ति है,जो हमारे जीवन के साथ जुड़ी रहती है और जन्म- जन्मांतरों तक साथ जा सकती है। भौतिक संपत्ति को तो कोई चोर भी ले जा सकता है, अमुक भी ले जा सकता है, इनकम टैक्स वाला भी ले जाता है और मरने के बाद हमारा बेटा, पोता ले जाता है, लेकिन जो हमारे जीवन को हर क्षण आनंद से सराबोर रखती है और लोक- परलोक तक हमारे साथ चली जाती है, उस दैवी शक्ति, दैवी विभूति, दैवी संपदा का नाम है- ‘महानता’। महानता देना देवता का काम है ! कोई देवता अगर प्रसन्न होगा तो क्या पैसे देगा? नहीं। तो पैसे के स्थान पर ‘चेक’ देगा, बैंक ड्राफ्ट भेज देगा? मित्रो ! ध्यान रखना !देवता आपको पैसा नहीं देगा। उसका चेक, ड्राफ्ट महानता है। देवता महानता दिया करते हैं। महानता की कीमत पर आदमी संपदाएँ कमा सकता है, यश कमा सकता है, वैभव कमा सकता है। इसलिए देवपूजन में हम अपनी उन वृत्तियों का विकास करते हैं, जो जीवन का लक्ष्य निर्धारित करते हैं। देवपूजन के माध्यम से हम आत्मशोधन का प्रयास करते हैं। ये हमारे प्रत्येक क्रियाकलाप के माध्यम हैं। आत्मशोधन स्वर्णजयंती वर्ष का भी माध्यम है। अगर आप स्वर्णजयंती वर्ष और दूसरी किसी अन्य उपासना मंा संलग्न होना चाहते हैं, तो आपको किसी न किसी रूप में देवपूजन करना पड़ेगा। हिंदू हैं तो भी करना पड़ेगा, निराकारवादी हैं, तो भी करना पड़ेगा। मुसलमान हैं, तो धूपबत्ती जलानी पड़ेगी। ईसाई हैं तो भी आपको मोमबत्ती जलानी पड़ेगी, फूल चढ़ाना पड़ेगा। देवता के सामने श्रद्धांजलि अर्पित करनी पड़ेगी, मस्तक झुकाना पड़ेगा, सिर झुकाना पड़ेगा, श्रद्धा व्यक्त करनी पड़ेगी। देवता के सामने श्रद्धा की अभि व्यक्ति का नाम देवपूजन है।।
[यह लोकमान्यता सही नहीं है कि मनुष्य साधना के सहारे आगे बढ़ता और सफल होता है। वास्तविकता यह है, कि परिष्कृत व्यक्तित्व ही साधन एकत्रित करता और उनके सदुपयोग का लाभ उठाता है। घटिया व्यक्तित्व अवसर होते हुए भी उसका लाभ नहीं उठा पाता जबकि प्रति भावान प्रतिकूलताओं के बीच भी अनुकूलता खोज निकालते हैं और अवसर न होते हुए भी उसे अपने कौशल से उपार्जित करते हैं। साधन संपन्नों की संपदा का किस प्रकार उपयोग हुआ इस पर दृष्टि दौड़ाने से निराशा होती है। उपार्जन कर सकना सरल है। अनीति पर उतारू व्यक्ति उसे और भी जल्दी समेट लेते हैं। किसके पास कितना है।। प्रश्न इस बात का नहीं वरन इस बात का है। किसने, किस प्रकार कमाया ठीक इसी प्रकार का यह भी प्रश्न है। कि जो उपलब्ध था उसे किसने किस प्रकार, किन प्रयोजनों में खरच किया साधनों को कमाने, रखने और खरचने के लिए एक विशेष प्रकार की सूझ- बूझ चाहिए। उसे प्रखरता कहते हैं। सूझ- बूझ के अतिरिक्त उसमें पराक्रम भी जुड़ा रहता है। न केवल पराक्रम वरन प्रतिभावान सिद्ध करने वाले गुणों से भी अपने आप को सुसज्जित करना पड़ता है। इसमें प्रामाणिकता और कुशलता दोनों का ही समान समन्वय रहता है। इन दोनों में से एक की भी कमी पड़े तो कठिनाई अड़ जाएगी। प्रामाणिकता रहित व्यवहार कुशल धूर्त कहलाते हैं और बबूले की तरह जहाँ तहाँ उछलते डूबते रहते हैं। स्थायित्व के लिए प्रामाणिकता की भी आवश्यकता है। हाँ, यह माना जा सकता है कि केवल प्रामाणिक होने से भी काम नहीं चलता। प्रगति के लिए व्यवहार कुशलता की भी न्यूनाधिक मात्रा में उतनी ही आवश्यकता होती है, जितनी कि प्रामाणिकता की। व्यक्तित्व का विनिर्मित करना सफलताओं और संपन्नताओं को अर्जित करने के लिए आवश्यक है।।

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