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यदि हमारे पास ज्ञान है,तो ज्ञान-दान करना चाहिए और जो ज्ञानी हैं, उनसे भी ज्ञान लेना चाहिए। ज्ञान देना और लेना दोनों ही साधना के पक्ष हैं। ज्ञान देने वालों का ज्ञान परिपुष्ट होता है और सुनने वाले को भी ज्ञान प्राप्त होता है। सबसे ब़डा कष्ट अज्ञान ही है। अतः हमें अज्ञान से बचकर ज्ञान की आराधना में समय लगाना चाहिए। इससे समय का सदुपयोग भी होगा और अशुभ कर्म भी नष्ट होंगे।
💐🙏🌹आज का चिन्तन-विद्या🌹🙏
🌹विद्या वही है जिससे मति भगवान में लग जाय।”सा विद्या तन्मतिर्मया”🌹
हमारा आज का विषय अति महत्वपूर्ण है, हम जिस विषय की बात कर रहे हैं वह है “विद्या प्राप्ति” । कदाचित सबके मन में यह प्रश्न रहता है सदा कि विद्या प्राप्ति के समय मन एकाग्र क्यों नहीं रहता ? जब ज्ञान को व्यक्ति साधन मानता है और किसी अन्य वस्तु को प्राप्त करने हेतु ज्ञान ग्रहण करने निकलता है , तब ज्ञान ग्रहण करते समय उसका मन स्थिर नहीं हो पाता है । क्योंकि ज्ञान उस व्यक्ति के आत्मा का गुण नहीं बन पाता । जैसे रंग…रंग वस्त्र का अपना गुण नहीं होता इसलिए वह सूर्य की प्रकाश में तप कर रंग छूट जाता है । जो व्यक्ति अमूल्य ज्ञान का मूल जानकार ज्ञान प्राप्त करता है । वो उत्तम बन जाता है । किन्तु जो व्यक्ति कुछ और प्राप्त करने के आशय से ज्ञान प्राप्त करता है । वो जीवन भर श्रेष्ठ बनने की स्पर्धा में लगा रहता है किन्तु फिर भी वह उत्तम नहीं बन पाता है । इस तथ्य को समझने के लिए महारथी कर्ण और भगवान श्री कृष्ण का सम्बाद सर्वश्रेष्ठ उदाहरण होगा , अंगराज कर्ण ने भी ज्ञान प्राप्त किया था किसी आशय से , भगवान के ही अवतार परशुराम जी की शरण में रहकर भी उनका मन शान्त नहीं हुआ । क्योंकि वो प्रतियोगिता करते रहे कहीं दूर बैठे अर्जुन के साथ अपने ही मन में । उनका ज्ञान प्राप्ति का आशय ही अनुचित था । तब भगवान परशुराम जी द्वारा प्रदान की गई विद्या का विस्मरण कैसे नहीं होता उन्हें । फिर भी भगवान श्री कृष्ण से कर्ण कहते हैं कि वह कैसे प्रतियोगिता नहीं करते और कैसे अपने ही जीवन के साथ समझौता कर लेते ? उन्होंने समाज के बारे में बताया कि समाज निरन्तर ही उनकी भावनाओं को कुचलते रहा है । और उनकी शक्ति को सम्मान नहीं दिया गया और न ही उनके सपनों को कभी स्वीकार किया गया । समाज ने सदैव शुद्र पुत्र कहते हुए अपमान किया है उनका । क्योंकि इश्वर की दी हुई सम्भावना मनुष्य का अधिकार होता है लेकिन उन्हें उस अधिकार से वंचित रखा गया । आगे वह कहते हैं कि समाज किसी को उनके अधिकारों से वंचित भला कैसे कर सकता है ? और इस तरह की प्रवृत्ति को स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने घोर अपराध का नाम दिया । जाति पांति का भेद करना और इन मिथ्या अभेंदो के आधार पर किसी व्यक्ति को या समाज के किसी भाग को अधिकार से अवसर से सम्पत्ति से या सम्मान से वंचित रखना मानवता के विरुद्ध है । तब कर्ण भगवान से पूछते हैं कि अगर उनके मन में असन्तोष जन्मा या उन्होंने प्रतियोगिता की अथवा उन्होंने बल पूर्वक अपना अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न किया तो उनका इसमें क्या दोष है । तब भगवान कहते हैं कि तुम्हें जो दुःख या अपमान मिले वो वास्तविक थे । किन्तु आप उन्हें अवसर बना लेते । तब समाज का उत्थान होता और तुम्हारा कल्याण होता । कदाचित जैसे परशुराम जी ने अपने पिता के अकारण वध किए जाने पर अपने दुःख से दुःखी होकर विचार नहीं किया बल्कि समाज की उस मूल समस्या का समाधान निकाला सारे अत्याचारी राजाओं का नाश करके । कर्ण जैसे शक्तिशाली राजा का साथ यदि अन्य किसी शोषित वर्ग को मिल जाता तो न जाने कितने ही जीवन सुख से परिपूर्ण हो जाते । क्या ये सत्य नहीं ? कदाचित कर्ण के पास सम्भावना भी थी और सामर्थ्य भी सबसे बड़ी बात उस पीड़ा का अनुभव भी था उनके पास । किन्तु उन्होंने अपना जीवन उन्हें समर्पित नहीं किया बल्कि उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया अधर्मी और अहंकारी दुर्योधन को । जिसके पक्ष में केवल और केवल अधर्म के सिवा और कुछ भी नहीं था । परिणाम यह हुआ कि वह दुर्योधन के द्वारा किए गए प्रत्येक पाप कर्म के बराबर भागी बन गये । इतना ही नहीं वो अपनी माँ का सम्मान नहीं कर पाये और अपने ही भाईयों के दो दो पुत्रों की हत्या भी कर दिया उन्होंने । और अन्त में परिणाम यह निकला कि वह अपना धर्म गंवाकर अपनी विद्या गंवाकर अपना सन्तोष गंवाकर अपने ही छोटे भाई के हाथों मरने के लिए तैयार खड़े हैं । सब कुछ स्वीकार करते हुए भी कर्ण कृष्ण से कहते हैं कि वह मित्र दुर्योधन का उपकार नहीं भूल सकते । जिसके जवाब में भगवान कहते हैं कि कौन से उपकार की बात कर रहे हैं आप ? क्या तुमसे मित्रता करने के बाद दुर्योधन ने समस्त हस्तिनापुर के शूद्रों और पीड़ितों को विद्या का अधिकार दे दिया? क्या उसने सारे पीड़ित और शोषित समाज को अपना लिया ? नहीं ! क्योंकि उसने तो केवल अपने व्यक्तिगत लाभ हेतु मित्रता की थी । कर्ण के हृदय में जो अर्जुन के लिए प्रतिस्पर्धा थी उसके कारण ही उसने कर्ण से मित्रता की । यदि कर्ण ने स्वयं के व्यक्तिगत दुःखों को त्यागकर समाज के दुःखी लोगों के दुःखों के कारण पर विचार चिन्तन और मनन किया होता तो कदाचित दुर्योधन का वास्तविक सत्य उनके सामने होता ‌। किन्तु कर्ण ने सत्य जाना ही नहीं उन पर किये गये उपकारों का कोई मूल्य ही नहीं था । किन्तु फिर भी कर्ण अपनी दान करने की नीति को सामने रखते हैं । किन्तु भगवान श्री कृष्ण के अनुसार दान करने का लाभ केवल दानी को प्राप्त होता है दान प्राप्त करने वाले को नहीं । कर्ण ने यदि अपने सामर्थ्य का प्रयोग अपने जैसे पीड़ितों को स्वतंत्रता दिलाने के लिए किया होता तो कदाचित समाज को भी और कर्ण को भी अवश्य लाभ होता । हमारे इस विषय पर विचार चिन्तन और मनन अवश्य कीजियेगा । आशा करते हैं कि हमारा ये विषय हम सबके जीवन में कुछ अर्थ भरेगा ।। जय जय श्री राधे राधे जी ।।
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[श्रीमद्भागवत पुराण में काल गणना भी अत्यधिक सूक्ष्म रूप से की गई है। वस्तु के सूक्ष्मतम स्वरूप को परमाणु कहते हैं। दो परमाणुओं से एक अणु और तीन अणुओं से मिलकर एक त्रसरेणु बनता है। तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य किरणों को जितना समय लगता है, उसे त्रुटि कहते हैं। त्रुटि का सौ गुना कालवेध होता है और तीन कालवेध का एक लव होता है। तीन लव का एक निमेष, तीन निमेष का एक क्षण तथा पाँच क्षणों का एक काष्टा होता है। पन्द्रह काष्टा का एक लघु, पन्द्रह लघुओं की एक नाड़िका अथवा दण्ड तथा दो नाड़िका या दण्डों का एक मुहूर्त होता है।। छह मुहूर्त का एक प्रहर अथवा याम होता है। चतुर्युग (सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग, कलि युग) में बारह हज़ार दिव्य वर्ष होते हैं। एक दिव्य वर्ष मनुष्यों के तीन सौ साठ वर्ष के बराबर होता है।। युग वर्ष सत युग चार हजार आठ सौ त्रेता युग तीन हजार छह सौ द्वापर युग दो हजार चार सौ कलि युग एक हजार दो सौ प्रत्येक मनु 7,16,114 चतुर्युगों तक अधिकारी रहता है। ब्रह्मा के एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। यह ब्रह्मा की प्रतिदिन की सृष्टि है। सोलह विकारों (प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, पाँच तन्मात्रांए, दो प्रकार की इन्द्रियाँ, मन और पंचभूत) से बना यह ब्रह्माण्डकोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है। उसके ऊपर दस-दस आवरण हैं। ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्ड राशियाँ, जिस ब्रह्माण्ड में परमाणु रूप में दिखाई देती हैं, वही परमात्मा का परमधाम है। इस प्रकार पुराणकार ने ईश्वर की महत्ता, काल की महानता और उसकी तुलना में चराचर पदार्थ अथवा जीव की अत्यल्पता का विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है।।
[ राधे – राधे
जीवन में सब कुछ एक निवेश की तरह ही होता है। प्रेम,समय, साथ, खुशी, सम्मान और अपमान, जितना-जितना हम दूसरों को देते जायेंगे, समय आने पर एक दिन वह व्याज सहित हमें अवश्य वापस मिलने वाला है।। कभी दुख के क्षणों में अपने को अलग – थलग पाओ तो एक बार आत्म निरीक्षण अवश्य कर लेना कि क्या जब मेरे अपनों को अथवा समाज को मेरी जरूरत थी तो मैं उन्हें अपना समय दे पाया था क्या किसी के दुख में मैं कभी सहभागी बन पाया था। आपको अपने प्रति दूसरों के उदासीन व्यवहार का कारण स्वयं स्पष्ट हो जायेगा।। कभी जीवन में अकेलापन महसूस होने लगे और आपको अपने आसपास कोई दिखाई न दे जिससे मन की दो चार बात करके मन को हल्का किया जा सके तो आपको एक बार पुनः आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।। क्या आपकी उपस्थिति कभी किसी के अकेलेपन को दूर करने का कारण बन पाई थी अथवा नहीं आपको अपने एकाकी जीवन का कारण स्वयं समझ आ जायेगा। कथा आती है, कि देवी द्रौपदी ने वासुदेव श्रीकृष्ण को एक बार एक छोटे से चीर का दान किया था और समय आने व आवश्यकता पड़ने पर विधि द्वारा वही चीर देवी द्रौपदी को साड़ियों के भंडार के रूप में लौटाया गया।। अच्छा – बुरा, मान – अपमान, समय – साथ, और सुख – दुख जो कुछ भी आपके द्वारा बाँटा जायेगा, देर से सही मगर एक दिन आपको दोगुना होकर मिलेगा जरूर, ये तय है।।

 

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