जिस प्रकार फूलों के पौधे लगाने पर खुशबु और सौंदर्य अपने आप मिल जाता है, फलदार पेड़ लगाने से फल और छाया अपने आप मिल जाती है। उसी प्रकार भलाई करने से मंगल आशीष एवं पुण्य अपने आप प्राप्त हो जाते हैं। आपके द्वारा संपन्न ऐसा कोई शुभ और सद्कार्य नहीं जिसके परिणामस्वरूप प्रकृत्ति द्वारा आपको उचित पुरस्कार देकर सम्मानित न किया जाए कुँआ खोदा जाता है। तो फिर प्यास बुझाने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। क्योंकि कुँए का खोदा जाना ही एक तरह से प्यास बुझाने के लिए पानी की उपलब्धता भी है।। जब – जब आपके द्वारा किसी की भलाई के लिए निस्वार्थ भाव से कोई कार्य किया जाता है, तब – तब आपके द्वारा वास्तव में अपनी भलाई की ही आधारशिला रखी जा रही होती है। हमारे द्वारा किसी बैंक में संचित अर्थ वास्तव में बैंक के प्रयोग लिए नहीं होता अपितु वो स्वयं की निधि स्वयं के खाते में स्वयं के प्रयोग के लिए ही होता है। ठीक ऐसे ही जब हमारे द्वारा किसी और की भलाई हो रही होती है।। तो वास्तव में वो किसी और की नहीं अपितु हमारी स्वयं की भलाई हो रही होती है। आज तुम किसी जरूरत मंद के लिए सहायक बनोगे तो जरूरत पड़ने पर कल आपकी सहायता और सहयोग के लिए भी कई हाथ खड़े होंगे।।
[ इस संसार में गुरु की भक्ति से बढ़कर कोई और भक्ति नही है। गुरु ही हमारे लिए संजीवनी बूटी है।। यह अमर जीवन देने वाली बूटी है जिससे हम जन्मों-जन्मों की मैल को उतारकर निर्मल हो सकते है। और चौरासी के आवागमन से भी छुटकारा पा सकते हैं।। जिस मकसद के लिये हमेँ मालिक ने इनसान का जामा दिया है, साँसोँ का भण्डार खत्म होने से पहले हमेँ उसे पूरा करने की कोशिश करनी चाहिये। इस संसार में न कोई अच्छा है, न कोई बुरा है, सब अपने-अपने कर्मोँ का हिसाब दे रहे है।। उस मालिक की बख्रिशश को सँभालने के लिए हमें अपने हृदय को इतना बड़ा बनाना है, अपने हाजमें को इतना तेज बनाना है। कि उसकी खुशबू भी बाहर न निकले, उसकी डकार तक कभी बाहर न निकले।।
[धुव जी अपनी स्तुति में भगवद् कथा में छुपे हुए अमृत के स्वरूप को बतलाते हैं। वे कहते कि भगवद् कथा में जो निवृत्ति ,जो अद्भुत आनन्द है, वह तो मोक्ष में भी नहीं है और स्वर्ग में भी नहीं है। तो फिर इस संसार में तो वह आनन्द कैसे उपलब्ध हो सकता है।। उस अमृत का पान करने के लिये, भक्त भगवान से कहते है, “प्रभु हमें हजारों कर्ण दीजिये। उस कथा को कहने के लिये भक्त प्रार्थना करते हैं, ‘प्रभु हमें हजारों जिव्हा और सहस्र रसना प्रदान कीजिये।। इसी बात को इस श्लोक में गोपी जनों ने भी कहा है, “तव कथा मृतं तप्त जीवनम्। यहाँ भगवद् कथा के छह विशेषण कहे गये हैं। इन छहों विशेषणों में भगवान के ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य ये छह अलौकिक धर्म प्रकट हुए हैं। गोपिकाएँ कहती हैं, हे प्यारे आपका कथा मृत तपे हुओं का परितप्त जनों का जीवन है ‘तप्त जीवनम्’। प्रिय के विरह में प्रिय का गुणानु वाद ही जीवन को टिकाते हैं।। कई प्रकार के पापों से मानव जीवन सन्तप्त है। ऐसे सन्तप्त जीवन में भगवान की कथा ही जीव को अमृत बनकर जिलाती है।। भक्त के लिये भगवान का तीव्र विरह ही तापात्मक है। ऐसे तपे हुए तथा परिदग्ध जीवों को भगवान की कथा ही जीवन दान देती है।।
[आज केवल वही तनाव में नहीं हैं, जिन पर बड़ी जिम्मेदारियां हैं। बल्कि वे नौनिहाल भी हैं।। जिनके खेलने-कूदने आनंदित रहने के दिन हैं। तनाव का एक ही कारण है-अस्वीकार भाव जो भी घटता है। इसे स्वीकार न करना ही तनाव का कारण है।। मुख्य रूप से अतीत और भविष्य की चिंताओं से तनाव पैदा होता है। अतीत पर हमारा नियंत्रण नहीं होता जाहे विधि राखे राम तेहि विधि रहियो प्रभु किसी का भी बुरा करते हैं। तो उसमें हमारा भला ही छुपा होता है।। निरर्थक चिंतन की जरूरत नहीं है।हमें आगे की सोचना चाहिए वर्तमान को स्वीकार करना चाहिए इसका मतलब है। कि हमें इस समय जो सर्वोत्तम है वही करना चाहिए तमाम विसंगतियों के बाबजूद परमात्मा सृष्टि को मंगलमय दिशा में ले जाने को संकल्पित हैं। जो होगा अच्छा ही होगा, यह विश्वास मन में पैदा करना ही होगा।।