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यह नियम है। कि मनुष्य की दृष्टि जब तक दूसरों के दोषों की तरफ रहती है।। तब तक उसको अपना दोष नहीं दीखता, उलटे एक अभिमान होता है। कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारे में यह दोष नहीं है।। ऐसी अवस्था में वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारे में भी कोई दोष हो सकता है।। दूसरा दोष यदि न भी हो, तो भी दूसरों का दोष देखना-यह दोष तो है, ही। दूसरों का दोष देखना एवं अपने में अच्छाई का अभिमान करना -ये दोनों दोष साथ में ही रहते हैं।।
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संसार में प्रायः देखा जाता है कि कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसका कोई न कोई शत्रु न हो। अर्थात सभी के कोई न कोई शत्रु होते ही हैं। और वे लोग दूसरों के दोष हमेशा देखते रहते हैं। उनके साथ प्रतियोगिता मतलब कंपिटीशन करते ही रहते हैं। वे दूसरों की कमियां ढूंढते रहते हैं। उन पर अनेक प्रकार के दोषारोपण भी करते रहते हैं। और सदा दूसरों को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। ऐसे लोग अपना जीवन तो दुखमय बना ही लेते हैं, साथ साथ दूसरों को भी दुख देते रहते हैं।
परंतु बुद्धिमान लोग ऐसे मूर्ख और शत्रुओं की परवाह नहीं करते। वे अपने काम में लगे रहते हैं। अपने पुरुषार्थ में इतने मस्त होते हैं, कि वे, दूसरों की ऐसी घटिया हरकतों की कोई चिंता ही नहीं करते। इसलिए यदि बुद्धिमान लोग पुरुषार्थ में ही लगे रहें, और अपने आचरण एवं योग्यता को समुद्र के समान विशाल बना लेवें, तो उनके शत्रु उनकी योग्यता की परख करते-करते थक जाएंगे, उनके पसीने छूट जाएंगे, परंतु वे समझ नहीं पाएंगे कि इन बुद्धिमान लोगों की कितनी बड़ी योग्यता है। और हो सकता है कि बहुत से लोग ऐसी शत्रुता मूर्खता करना छोड़ भी देवें।
चलिए वे लोग मूर्खता और शत्रुता छोड़ें, या न छोड़ें। कम से कम बुद्धिमान लोग तो अपने कार्य में व्यस्त और मस्त रहने से, अपना जीवन तो आनंदित बना ही लेंगे। आशा है, आप भी उन बुद्धिमानों में से एक होंगे..!!
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