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संसार में सत्य भी चलता है। और झूठ भी बहुत से लोग सत्य को समझ तो लेते हैं, परंतु उसको जीवन में स्वीकार नहीं कर पाते। अर्थात सत्य का आचरण नहीं कर पाते।। परंतु इन से भी अधिक लोग ऐसे हैं जो सत्य को समझते ही नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जो समझना चाहते ही नहीं। ऐसा क्यों होता है ? इसके तीन मुख्य कारण हैं। पहला- बौद्धिक स्तर में कमी होना।। जिसका बौद्धिक स्तर ऊंचा नहीं है, वह सूक्ष्म सत्य को समझ नहीं पाएगा, अर्थात उसकी समझने की क्षमता कम होने से सत्य को नहीं समझ पाएगा। दूसरा – एक व्यक्ति का बौद्धिक स्तर ऊंचा है, वह सूक्ष्म बातों को भी समझ पाता है, वह सूक्ष्म सत्य को समझ भी जाएगा, परंतु उसका आचरण करने से उसको अनजाना भय लगता है। तीसरा- इसके अतिरिक्त संसार में करोड़ों व्यक्ति ऐसे हैं जिनका ना तो बौद्धिक स्तर ऊंचा है।। ना ही वह सत्य को समझना चाहते हैं। अर्थात उनकी सत्य को समझने की इच्छा ही नहीं है।। इसलिए वे लोग भी सत्य को नहीं समझ सकते यदि आपमें ये तीन बातें हों, कि आपका बौद्धिक स्तर भी ऊंचा है। सत्य को जानने की इच्छा भी है।। और सत्य को स्वीकार करने की हिम्मत भी है। फिर तो आपको सत्य पर चलने से कोई नहीं रोक सकता।।
[: नकारात्मकता उस छाया अथवा गहन अंधकार की भांति है… जो सत्य के, सकारात्मकता के प्रकाश की वास्तविक अनुभूति से दूर ही रखती है..मनुष्य को यदि प्रकाश की किरण दिखाई भी देती है तो भी यह नकारात्मकता, अशुभ विचार, कुंठित मानसिकता को उत्पन्न कर उन्हें और बल देकर उस आशा की, उस दिव्य एवं शुभ-सत्य प्रकाश की उस झलक को, आशा तथा सकारत्मकता की इस किरण को अपने गहरे साये से ढकने का संपूर्ण प्रयास करती है..मनुष्य को हतोत्साहित कर, उसे किसी भी प्रकार से प्रसन्न होने, जीवन में उत्साह तथा उमंग का संचार करने में अत्यंत बाधा उत्पन्न करने का कार्य बहुत ही कुशलता पूर्ण तरीके से करती है.. नकारात्मक विचारों से सजग रहना आवश्यक है…!! प्रसन्न रहें!!
[: मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है? इसके उत्तर में कह सकते हैं कि सत्य को जानना, समझना, उस पर गहनता से विचार करना, ऋषि दयानन्द सरस्वती आदि महापुरुषों के जीवन चरितों व उपदेशों का अध्ययन करना, ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का सत्य ज्ञान कराने वाले वेद एवं सत्यार्थाप्रकाशादि ग्रन्थों को प्राप्त करना व उनका अध्ययन करना, यह सब करके संसार व जीवन विषयक सत्य का निर्धारण करना और उसका पालन करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य प्रतीत होता है। एक वैदिक प्रार्थना बहुत प्रचलित है ’असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतम् गमय’। इसमें कहा गया है कि ‘हे सृष्टि बनाने, चलाने व इसकी प्रलय करने वाले परमात्मन् ! आप सत्य व असत्य को जानते हैं। आप हमें असत्य से हटा कर सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा करें। मैं असत्य का आचरण न करूं और जीवन में सदैव सत्य का ही आचरण करूं, सदा सत्य व प्रकाश के मार्ग पर ही चलूं और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाऊं।’ इस वैदिक प्रार्थना में जो कुछ कहा गया है, उससे कोई भी मनुष्य असहमत नहीं हो सकता। एक अन्य प्रार्थना जो देश का ध्येय वाक्य भी कह सकते हैं, वह है ‘सत्यमेव जयते’। इसका अर्थ है कि सत्य की ही सदा विजय होती है। सत्य कभी पराजित नहीं होता। अतः जिसकी सदा विजय हो और जो कभी पराजय को प्राप्त न हो, उसी को हमें मानना चाहिये व आचरण में लाना चाहिये।
[ जब हम अपने प्राचीन ऋषि-मुनि व विद्वानों के जीवनों पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि उनका जीवन सत्य को जानने व उसके आचरण को ही समर्पित था। वह पर्वतों की कन्दराओं, घने वनों में स्थित आश्रमों व कुटियायें बना कर वहां तप की साधना करते थे। तप का अर्थ ही सत्य को जानना व उसका आचरण करना होता है। सत्य अर्थात् ईश्वर के सत्य गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उनका उसके अनुरूप स्तुति व स्तवन करना ही ईश्वर की पूजा कहलाता है। विश्व विख्यात ऋषि दयानन्द जी ने लिखा है कि स्तुति का अर्थ स्तोत्य वस्तु के सत्य गुणों को जानकर उसका वर्णन करना होता है। ईश्वर की स्तुति की बात करें तो इसके गुणों सत्य, चित्त, आनन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निरभिमानी, पवित्र, धार्मिक, पक्षपात रहित होकर न्याय करने वाला, अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, अजन्मा, सृष्टि को बनाने, चलाने, पालन करने व प्रलय करने वाला, सब जीवों को उनके कर्मों का फल देने वाला, जीवात्माओं को जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म देने वाला, अजर, अभय आदि गुणों का उच्चारण व प्रशंसा कर अपने गुणों को भी इसके अनुसार बनाना होता है। ईश्वर व अपने से बड़ों की स्तुति करने से अहंकार का नाश होता है। अहंकार का नाश परमावश्यक भी है। अहंकारी मनुष्य का नाश हो जाता है। रावण व दुर्योधन के उदाहरण हमारे सामने हैं। ईश्वर व किसी महापुरुष सत्य व यथार्थ स्तुति हमें नाश से बचाती है। किसी के प्रति नत-मस्तक होने से अहंकार दूर हो जाता है। उसके प्रति श्रद्धा व आदर की भावना उत्पन्न होती है। ईश्वर सबसे महान व सर्वोत्तम सत्ता है जिससे संसार के सभी मनुष्य व प्राणी लाभान्वित हैं। अतः सबको ईश्वर व परोपकारी, स्वार्थशून्य, चरित्रवान महात्माओं की स्तुति करनी चाहिये।
[: “जीवन की सफलता में प्रभु कृपा वांछनीय होती….कृपा प्राप्त करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए ….प्रार्थना में बड़ी शक्ति होती है, अगर ऐसा न होता तो इसका अस्तित्व न बना रहता – इस अभिव्यक्ति में अपार बल है… प्रार्थना से क्षमाशक्ति बढ़ जाती है, मन शांत होता है और हमारी आंतरिक उर्जा का तीव्र विकास होता है….कभी-कभी हमारी कामना परमात्मा की ओर से तत्काल नहीं सुनी जाती, इसका अर्थ यह है की रुको, अभी वक्त नही आया है, हो सकता है कि हमने जो माँगा है, कुछ समय बाद वो हमें इससे बेहतर देना चाहता हो….तो आज अपने प्रभु से उसकी परम कृपा की अलौकिक प्रार्थना के साथ…”


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सज्जनता जीवन को शीतलता प्रदान करने वाली समीर है। सज्जनता के अभाव में जीवन उस जलते अंगारे के सामान है जो स्वयं तो जलता ही है मगर अपने संपर्क में आने वाले को भी जलाता है।
सज्जनता ही जीवन का आभूषण और श्रृंगार है। सोने की लंका में रहने वाला रत्न जडित सिंहासन पर आरुढ़, नानालंकारों को धारण करने वाले रावण का जीवन भी शोभाहीन है। और पर्वत पर पत्थर के ऊपर व पेड़ की डालों पर बैठे सुग्रीव, हनुमान जी सहित आदि वानरों व अँधेरी गुफा में वास करने वाले जामवंत का जीवन शोभायुक्त है।
जीवन की शोभा अलंकारों से नहीं अपितु आपके संस्कारों और उच्च विचारों से है, विनम्रता से है, सरलता और सहनशीलता से है। सज्जनता रुपी आभूषण को धारण करो ताकि स्वर्ण आभूषणों के अभाव में भी आपका सौन्दर्य बना रहे।

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