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संसार एक पड़ाव है और पड़ाव पर कभी चीरस्थाई शांति नहीं हो सकती।
थोड़ी देर विश्राम हो सकता है,लेकिन आनंद भी हो सकता अगर परमात्मा से वास्तविक प्रेम हो।
और
विश्राम का तो अर्थ ही इतना है कि फिर श्रम करने को तैयार हो गए हैं,फिर यात्रा के लिये तैयार हैं।
विश्राम बीच की कड़ी है।
ये कोई लक्ष्य नहीं।
ये कोई सिद्धी नहीं।
कोई बड़ी यात्रा चल रही है और इस यात्रा में जागा हुआ मनुष्य अपने घर से भटक गया है।
और
जहां भी अपने को पाता है,बेघर पाता है।
पक्षी बंद है विदेश में, जहां उसका अपना कोई भी नहीं;अकेला है।
यहां मनुष्य का कौन अपना है?
जहां मनुष्य का कोई भी नहीं है,वहां भी रिश्ते-नाते बना लिये हैं।
जो घर नहीं है,इसे घर समझ लिया है।
इंतजाम मनुष्य ने सब ऐसा कर लिया है कि जैसे अपने घर मे ही हो,ये कोई पड़ाव न हो, वह विदेश मे नहीं,अपनों के बीच हो।
क्या हैं मनुष्य के रिश्ते-नाते और संबंध?
अंधेरे में जैसे दो मनुष्य टकरा जाएं,रास्ते पर प्रकाश न हो और कोई साथ हो ले;थोड़ी देर यात्रा साथ चले,ऐसी ये संसार की यात्रा है।
पूरी मनुष्य-जाति अंधेरे मे है|
कौन किसका मित्र है?
किसको मित्र कहता है मनुष्य?
क्योँकि सभी अपने स्वाथों के लिये जी रहे हैं।
जिसको मित्र कहते है,वह भी अपने स्वार्थ के लिये ही जुड़ा है और मनुष्य स्वयं भी अपने स्वार्थ के लिये ही उससे जुड़ा है।
मित्र वक्त पर काम न आए तो मनुष्य मित्रता तोड़ देगा,क्योँकि कहा तो ये ही जाता है कि मित्र वही जो वक्त पर काम आए।
लेकिन क्यों?
वक्त पर काम आने का मतलब है कि जब अपने स्वार्थ की जरुरत हो,तब वह सेवा करे।
ये ही दूसरा भी सोचता है कि वक्त पर काम आओ तो मित्र हो।
लेकिन दूसरे को काम मे लाना चाहता है मनुष्य तो ये मित्रता कैसी?
दूसरे का शोषण करना चाहता है।
ये कैसा संबंध?
सब संबंध स्वार्थ के हैं।
और
जहां स्वार्थ महत्वपूर्ण हो वहां संबंध कैसे?
लेकिन
अकेले होने मे भय लगता है,इसीलिये मन चाहता है कि कोई संगी-साथी हो।
संगी-साथी मन की कल्पना है।
सबसे बड़ा भय है अकेले हो जाना,कि मै निपट अकेला हूं।
इस भय से मुक्त होने के लिए परमात्मा से जुडते है लोग |
पर यह भय निरर्थक है ,परमात्मा हमेशा हमारे अंग संग है ||
हमे परमात्मा के निज स्वरूप को पहचान कर परमात्मा का ध्यान करना चाहिये ,प्रार्थना करनी चाहिये |
हमे परमात्मा को ही अपना संगी साथी मित्र बना लेना चाहिये |
: प्रायः व्यक्ति के दो चेहरे होते हैं। एक असली और दूसरा नकली। दुनिया के सामने अधिकतर नकली चेहरा ही आता है, असली चेहरा तो मन में छिपा रहता है। तो जब भी व्यक्ति दूसरों के सामने आता है, तो वह जैसी वाणी और जैसा व्यवहार प्रदर्शित करता है उसी के आधार पर लोग उसको पहचानते हैं।। किसी के मन में क्या है यह तो कोई पूरी तरह से नहीं जान पाता. उसका जो भी वाणी और व्यवहार सामने आता है, उसके आधार पर दूसरे लोग उस व्यक्ति का मानसिक स्तर भी कुछ कुछ मात्रा में जान लेते हैं। आप भी वाणी और व्यवहार का जो प्रदर्शन करते हैं, उसका एक उद्देश्य यह भी होता है। कि लोगों पर आपके वाणी और व्यवहार का अच्छा प्रभाव पड़े, जिससे कि वे लोग आपसे प्रसन्न रहें और आवश्यकता पड़ने पर आपकी सहायता कर सकें, आप को लाभ पहुंचा सकें।। यदि आपका यह भी एक उद्देश्य हो, तो लोगों को एक उचित सीमा तक (न्याय को ध्यान में रखते हुए) प्रसन्न करना अच्छा है और आवश्यक भी है। उसके लिए अपनी वाणी को मधुर और व्यवहार को शुद्ध रखें. शुद्ध का अर्थ है, ईमानदारी से बुद्धिमत्ता से व्यवहार करना। मन में सदा ही शुद्ध विचार रखें, सेवा की भावना रखें, चेहरे पर सदा प्रसन्नता झलकती रहे, और उसमें भी छल न होे। यदि आप ऐसा करेंगे, तो निश्चित रूप से आपका व्यवहार प्रदर्शन उत्तम होगा और आप सदा दूसरों से लाभ प्राप्त करते रहेंगे।। जब दूसरे लोग आपको लाभ देवें, तो आप का भी कर्तव्य है। कि आप भी दूसरों को लाभ पहुंचाएं। यही मनुष्यता है।।

जय श्री राधे कृष्णा 🙏🏻

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