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[ तुम दूसरों पर दोषारोपण बिल्कुल न करो। सुख या दुःख का कारण तुम स्वयं ही हो। मालिक से मुख फेर कर चाहे कितने ही सुख के यत्न करो, सुख प्राप्त नहीं होगा।। जब तुम्हें सतगुरु सहारा देने वाले हैं और शत्रु या दुष्ट लोग धमकाते हैं तो भय न करो क्योंकि सबसे महान सबके मालिक तुम्हारी तरफ हैं।। कुदरत के घर देर है, अंधेर नहीं। समय आने पर प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों का फल पाता है।। तुम प्रेम उससे करो जिसके ह्रदय में सदगुरु के लिए प्रेम हो। यदि मालिक तुम्हें सांसारिक सुख प्रदान करते हैं तो भी उनकी कृपा समझो और यदि कोई सांसारिक कष्ट-कठिनाई आती है तो उसमें भी कोई भेद होगा–उसमें भी उनकी कृपा समझो। दुःखी होना भक्ति का गुण नहीं है।।
[जीवन की कोई ऐसी परिस्थिति नहीं जिसे अवसर में ना बदला जा सके। हर परिस्थिति का कुछ ना सन्देश होता है।। अगर तुम्हारे पास किसी दिन कुछ खाने को ना हो तो श्री सुदामा जी की तरह प्रभु को धन्यवाद दो प्रभु आज आपकी कृपा से यह एकादशी जैसा पुण्य मुझे प्राप्त हो रहा है।। अगर कभी भारी संकट आ जाए तो माँ कुंती की तरह भगवान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करो कि प्रभु मेरे जीवन में यह दुःख ना आता तो मै आपको कैसे स्मरण करता। मैं अपने सुखों में उलझकर कहीं दिग्भ्रमित ना हो जाऊँ, इसीलिए आपने मेरे ऊपर यह कृपा की है।।
[ यदि तुम्हारा कोई निकटतम सम्बन्धी सन्तों की निन्दा करता है तो उससे किनारा कर लो।। जब तुम यह कहते हो कि मैं बहुत योग्य हूँ, परन्तु अपना अपमान सहन नहीं कर सकते तो जरा यह तो सोचो कि आपको यह योग्यता किसने प्रदान की है। यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है।। अभिमानी का सिर नीचा इसलिए नम्रता धारण करो ताकि इस योग्यता की दात आपको अधिकाधिक प्राप्त हो।। जो पदार्थ या सम्मान प्राप्त हुआ है वह अपनी बुद्धि या कमाई का फल न समझो अपितु मालिक की देन व धरोधर समझ उसके गुण गाओ।। तुम पर जो सुख-दुख आये हैं, क्या वे केवल तुम पर ही आये हैं नहीं, बल्कि प्रत्येक छोटे-बड़े, राजा-महाराजा और साधु-सन्तों पर भी आये हैं। यदि भली भाँति देखोगे तो उनसे बचा कोई भी नहीं है। आत्मिक उन्नति के लिए इन दोनों परिस्थितियों में से गुजरना आवश्यक है। थोड़े सुखों को देखकर घबराओ नहीं, क्योंकि दुःखों के पश्चात ही सुखों ने आना है।। चाहे कोई वर्षों के वर्ष पढ़े, ऊँची श्रेणियां भी प्राप्त कर ले परन्तु जो आन्तरिक ज्ञान का खज़ाना अमूल्य लालों से परिपूर्ण है वह केवल गुरु-कृपा से ही मिलता है।।
[ राजा जनक की बेटी और राजा दशरथ की पुत्रवधू सीता। अलौकिक विवाह हुआ परन्तु मिला वनवास फिर वनवास में भी अपहरण, फिर अग्नि परीक्षा अंत में भी गर्भवती सीता को देखना पड़ा परिवार वियोग पृथ्वी पर राज करने वाले पिता और ससुर चाहकर भी साधन देकर भी सीता को सुख नहीं दे पाए।। फिर एक साधारण मनुष्य कैसे अपनी संतान को उनके अपने भाग्य के बिना सुख दे सकता है। तन-धन से प्रयास करते रहे परन्तु मन से यह भूल मत जाए कि किसी को सुख उसके अपने कर्म व भाग्य से मिलती है दूसरे के करने से नहीं।।

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