Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

“श्राद्धकर्म का चिरशाश्वत सन्देश” –

श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है । इस जगत में व्यक्ति के सब सम्बन्ध स्वार्थ का पिटारा लेकर चलते हैं । किन्तु श्राद्धकर्म स्वार्थ की आधारशिला को अपनाता नहीं । यह तो श्रद्धा को मूलभूत रुप में अपनाता है । हम शृद्धामय होकर अपना कर्म (दायित्व निर्वहन) करें , यह इस बात का संदेश देता है ।

इस स्वार्थमय जगत में कोई व्यक्ति अपने ही स्वजन के प्रति उपेक्षावृत्ति को न अपनावे, उन्हें प्यासा न मरने दे । अतः पितृजन को जलांजलि प्रदान करने के कार्य को वरीयता दी जाना प्रकट होता है ।

श्रीमद्भगवदगीता में परिवार / कुटुम्ब के वरिष्ठ / वृद्ध जनों को “पितर:” (पितृजन) कहा गया है । (गीता १.३४) यह पितर शब्द ही इस महत कार्य की स्मृति हेतु पितृ या पितृपक्ष हो गया है – कर्मकाण्ड रूप को अपनाकर ।

हम परिवार में वरिष्ठजनों के अशक्त हो जाने पर उनके प्रति उपेक्षावृत्ति को न अपनाएँ । हम उन्हें अन्न-जल प्रदान करें । यह इस श्राद्धकर्म का मूल सन्देश है ।

मेरा तो यह भी मत है कि
पुराने जमाने में सब कार्य मौखिक या वचन से बंधे होते थे । कोई लिखापढ़ी होती नहीं थी । अतः उन पितृजनों के न रहने पर हम उनके कार्यों को मान्यता प्रदान करें यह भी इस श्राद्धकर्म का एक संदेश होना जानने में आता है ।

हम मृत माता-पिता या पूर्वजों के वचनों का पालन न करें या उन्हें भूखा-प्यासा मरनें दें और उनकी स्मृति में खीर पकाकर खाएं अथवा खिलाएं यह तो इस वैदिक कार्य का अर्थ होता नहीं ।

यह सब प्रावधन तो हमारे लिये प्रतिबोधात्मक धर्म व्यवस्था है – जीवित पूर्वज की सेवा करने के लिये । कारण कि उपनिषद वाणी में श्रुति ” जो पुरुष जीर्ण होकर दण्ड से वंचित अर्थात दण्डशक्ति से रहित हो गया है या जो लाठी के सहारे चल रहा है – उस वयोवृद्ध पुरुष को – उस परमात्मा का ही प्रकटरूप होना कथन करती है – “त्वम जीर्णो दण्डेन वंचसि” (श्वेता.उप. ४.३)

पिछले दिनों पुत्र के विदेश से आने/ लौटने पर उसे मां का कंकाल ही देखने को मिला अपने सूने घर में । यह समाचार हमें अखबारों में पढ़ने को मिला है । क्या कोई उस मां द्वारा अपने अंतिम समय में भोगी गयी मानसिक वेदना और एक बून्द जल के अभाव में भोगी गयी शारीरिक पीड़ा की कल्पना या उसका कोई उपचार कर सकता है ?

अतः गीतोक्त “पितर” शब्द के निहितार्थ को जीवन में अपना लेना ही इस स्थूल क्रिया का एकमेव सनातन चिरशाश्वत धर्म-सन्देश होना जानने में आता है ।

आधुनिक काल में तो यह सब – भोजनकार्य आधारित श्राद्घकर्म – तो मात्र दिखावा ही हो गया है ।

“कौआ” भी आकर अब अपना ग्रास ग्रहण करता नहीं । अतः यह सब दिखावा त्याज्य हो गया है ।

अतः हमें इस स्थूल क्रिया के तत्त्वार्थ को ही वरीयता प्रदान करना चाहिए – समस्त परम्परागत लोकाचार करते हुए भी । ॐ ।

|| ॐ ॥

Recommended Articles

Leave A Comment