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सरस्वतीसभ्यताऔरभगवानश्रीकृष्ण

आज से पाँच हजार साल पहले एक दिव्य नदी जिसे वेदों मे सरस्वती नदी कहा गया है आज के राजस्थान के रेगिस्तान से होती हुई अरब सागर में जाकर मिलती थी आज जहाँ रेगिस्तान में चारो तरफ उजडापन दिखाई देता है,पाँच हजार साल पहले प्रचुर हरियाली और चरागाह हुआ करती थी कालीबंगा #सिंधुघाटीसभ्यता उसी महान सरस्वती सभ्यता का भाग था।”

कुछ प्रख्यात इतिहासकार सरस्वती नदी को काल्पनिक करार दे देते है लेकिन सरस्वती नदी के काल्पनिक होने का विचार उतना ही हास्यास्पद है जितना कि आर्य आक्रमण का ये सिद्धांत कि सिंधु घाटी सभ्यता को मादक सोमरस के नशे मे धुत पश्चिमी लोगों ने नष्ट किया था।

इसरो–इंडियन स्पेस रिसर्च आँर्गेनाइजेशन के सैटेलाइटों द्वारा ली गई तस्वीरे पुरातात्विक खनन और भौगोलिक खोजे इन तस्वीरों की पुष्टि करती हैं।

आज कोई भी सरस्वती नदी को मिथक नही कह सकता। सरस्वती एक दिव्य नदी है जिसकी चर्चा वेदों में भी है। ऋग्वेद (2 41 16-18) में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है।
यह नदी सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी कहते हैं यह नदी पंजाब में सिरमूर राज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई कर्नाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी।

प्राचीन काल में इस सम्मिलित नदी ने राजपूताना आज के राजस्थान के अनेक स्थलों को जलसिक्त कर दिया था। यह भी कहा जाता है कि प्रयाग के निकट तक आकर यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी संगम बन गई थी।

कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अंत:सलिला होकर बहती है मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भूभाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था समय-समय पर कई ग्रन्थों मे सरस्वती नदी का वर्णन आया है।
सिंधु घाटी सभ्यता को सिंधु सभ्यता नाम से सिर्फ इसलिए पुकारा जाता है कि सबसे पहले खोजे गए कुछ स्थल सिंधु के किनारे थे।

अब ये तथ्य सिद्ध हो चुका है दो हजार छह सौ में से दो हजार से ज्यादा स्थल वास्तव में कभी शक्तिशाली रही सरस्वती नदी के किनारे थे और भारत सरकार को सिंधु घाटी सभ्यता का नाम बदलकर सरस्वती सभ्यता कर देना चाहिए।

भारतीय उपमहाद्वीप की विवर्तनिक हलचल के नतीजे में सरस्वती पश्चिम-उत्तरपश्चिम को पलायन कर गई।
इसका प्रभाव यह हुआ कि कि इसकी दो उपनदियां, यमुना और सतलज, विपरीत दिशाओं मे पलायन कर गई और यमुना गंगा से जबकि सतलज सिंधु से जा मिली।

सरस्वती सभ्यता (सिंधु घाटी सभ्यता) की मुद्राओं पर सबसे सामान्य छवि यूनिकाँर्न (गेंडा/एक सींग का जानवर) की हैं जिसे आप सभी जानते होंगे ये मुहर विभिन्न स्थलों पर खुदाई में पाई गई ये सिर्फ एक प्रतीकात्मक पशु है लेकिन इसका बहुत बडा महत्व है।

महाभारत मे एकश्रृंग–जिसका शाब्दिक अर्थ है एक सींग वाला नाम के एक बहुत महत्वपूर्ण यूनिकाँर्न का उल्लेख है जो विष्णु-कृष्ण के और उस प्राचीन काल के एक प्रमुख प्रतीक के रूप में सामने आता है वो यूनिकाँर्न भगवान विष्णु के शूकर अवतार, वराहावतार, से संबंधित है।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण एक संकेत यह है–

“मुद्रयासः गच्छन्तु रजनो ये गन्तुमिप्सवः।
न च मुद्रा प्रवेशतव्यो द्वारपालस्य पश्यतः।।”

ये हरिवंश पुराण महाभारत का एक परिशिष्ट–का अनुच्छेद है जिसका अर्थ है कि “द्वारका के प्रत्येक नागरिक को पहचान के लिए एक तीन सिर वाली मुद्रा साथ लेकर चलनी चाहिए तथा ये सुनिश्चित करना पहरेदारों का कर्तव्य है कि हर नागरिक मुद्रा को साथ लेकर चले और बिना मुद्रा वाले किसी भी व्यक्ति को प्रवेश न करने दिया जाए।”

यही मुहर विभिन्न खुदाई स्थलों से प्राप्त हुई हैं बरसों से हमें ये बताया जाता रहा है कि कृष्ण एक मिथकीय व्यक्तित्व हैं युगों से चली आ रही हमारी सामूहिक कल्पना का उत्पाद है हमें आज भी यहीं पढाया जाता है कि सरस्वती के स्थल महाभारत से कई हजार साल पहले के हैं।

ये कोरी बकवास है पाश्चातियो,वैदिक संस्कृति विरोधियों की सरस्वती सभ्यता कोई वैदिक काल से पहले की बस्ती नही थी ये पृथ्वी पर सबसे महान वैदिक समुदाय ही था और इस महान सभ्यता के निवासी महान आर्यों के पूर्वजों ने ही महान वेद और उपनिषद पुराणों को लिपिबद्ध किये थे।

कालीबंगा मे अग्निवेदियां खोजी गई जिसका मतलब स्पष्ट है कि ये वाकई एक वैदिक बस्ती थी मोहनजोदड़ो में हमें महा-स्नानागार मिला था जो आनुष्ठानिक स्नान के लिए इस्तेमाल होता था और ये वैदिक उपासना की एक और बानगी था।

हमें यौगिक समाधि दर्शाती मुद्राओं के अलावा सैकड़ों ऐसी मुद्राएं भी मिली हैं जिन पर स्वास्तिक अंकित है जो वैदिक मूल का प्रतीक है सरस्वती जीवित नदी थी जिसके किनारे पर दुर्योधन और भीम ने महाभारत युद्ध का अपना आखिरी द्वंद लडा था।

ये मुहर श्री कृष्ण के द्वारका साम्राज्य के लिए उनकी प्राचीन पासपोर्ट प्रणाली है जिसका वर्णन हरिवंश में किया गया है!”

“श्री कृष्ण भगवान विष्णु के आठवें अवतार थे ऊर्जा के एक स्वरूप का प्रतीक जिसे हम विश कहेंगे विश की ऊर्जा का ठीक विपरीत होता है शिव विश रचना और रक्षा करता है, तो शिव नष्ट करता है।”

“अभी तक, इतिहासकारों ने माना है कि सरस्वती सभ्यता के निवासी शिवपूजक थे हम जानते है कि शिव का प्रतीक कैसा दिखता है ?” — “शिवलिंग”

अब जरा हम शिवलिंग की विशेषताओ पर ध्यान देते है ये दो भागों से मिलकर बनता है पहला है चमकदार पत्थर से बना एक बेलनाकार ढांचा और दूसरा है उसे घेरे हुए कुंडली और खांचे जिनका अंत एक पनाले पर होता है।

शिव मंदिरों में बेलनाकार ढांचे के ऊपर पानी का एक बर्तन लटका रहता है जिससें नियमित अंतराल पर पानी टपकता रहता है और फिर ये पानी पनाले के रास्ते निकल जाता है।

“शिवलिंग के बेलन की तरह परमाणु रिएक्टर को ठंडा करने के लिए भी नियमित रूप से पानी की जरूरत होती है क्योंकि ऊर्जा पैदा करने की प्रक्रिया में ये गर्म हो जाता है प्रमुख रिएक्टर के चारों ओर कुंडली है ये वो ढांचे हैं जिन्हें पानी निकालने के लिए बनाया गया है–ठीक लिंगम के चारों ओर की कुंडलियों की तरह!”

शिव मंदिरों में शिवलिंग से बहने वाले पानी को पवित्र जल के रूप में पिया नही जाता है क्यों?

क्योंकि शिवलिंग से निकलने वाले पानी को ठीक उसी कारण से नही पिया जाता है जिस कारण से परमाणु रिएक्टर से निकलने वाला पानी पीने योग्य नही होता है ये विद्युतीय होता है ज्यादातर शिव मंदिर नदी या झील जैसे किसी जलस्त्रोत के निकट इसलिए होते है क्योंकि शिवलिंगों को आधुनिक रिएक्टरों की तरह–अपने सत्व को ठंडा रखने के लिए पानी की जरुरत होती है।

जैसा कि आप सभी जानते है कि प्रदक्षिणा के दौरान किसी को भी शिवलिंग के पनाले को पार करने की अनुमति नही होती लोगों को पनाले तक पहुंचते ही वापस होना होता है क्योंकि पनाला विकरणित पानी का प्रतिनिधित्व करता है।”

शिवलिंग परमशक्ति का प्रतिनिधि एक प्राचीन प्रतीक है, एक ऐसी ऊर्जा जिसे हमारे पूर्वजों ने शिव कहा ये ऊर्जा विश नामक एक और ऊर्जा के ठीक उलट थी।

सरस्वती सभ्यता के लोग ऊर्जा के इन स्वरुपों को जानते थे आज का आधुनिक आदमी परमाणु शक्ति खोज लेने पर बहुत गर्व करता है पर वो ये नही जानता कि वैदिक और महाभारत युग में हमारे पूर्वजों के पास इससे भी कहीं अधिक बडी-बडी शक्तियां उपलब्ध थी!”

कहा जाता है कि 1945 में एटम बम के पहले सफल परीक्षण को देखने के बाद, एटम बम के जनक आँपेन हाइमर ने भगवद्गीता से उद्धरण पढे थे और उसके शब्द थे।

” मै बन गया मृत्यु, संसारों का विनाशक।”

आँपेनहाइमर ने खासतौर से गीता को समझने के लिए संस्कृत सीखी थी गीता का वो अनुच्छेद जो वही बात कहता है जो आँपेनहाइमर उद्धृत कर रहा था।

ये है मैं बन गया हू समय संसार का अंत करने के लिए, जो सृष्टि का विनाश करने के लिए अपने मार्ग पर हूं।

कृष्ण ही दुनिया के सबसे बडे रहस्य है जिसने कृष्ण को समझ लिया उसने ब्रह्मांड के समस्त रहस्यों को समझ लिया बडे-बडे योगियों ने अपने तपोबल से न जाने कितने ही सहस्त्रों जन्म कृष्ण को समझने मे लगा दिये।

लेकिन जिसने सब कुछ छोडकर प्रेममयी होकर स्वयं को कृष्ण मे डुबो दिया उसे फिर किसी भी रहस्य आदि को समझने की चाह नही रहती।

                       

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