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होली

१. होली का त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत हिंदु धर्म का एक अविभाज्य अंग
इनको मनानेके पीछे कुछ विशेष नैसर्गिक, सामाजिक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक कारण होते हैं तथा इन्हें उचित ढंगसे मनानेसे समाजके प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में अनेक लाभ होते हैं । इससे पूरे समाजकी आध्यात्मिक उन्नति होती है । इसीलिए त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत मनानेका शास्त्राधार समझ लेना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है ।

२. होली
होली भी संक्रांतिके समान एक देवी हैं । षड्विकारोंपर विजय प्राप्त करनेकी क्षमता होलिका देवीमें है । विकारोंपर विजय प्राप्त करनेकी क्षमता प्राप्त होनेके लिए होलिका देवीसे प्रार्थना की जाती है । इसलिए होलीको उत्सवके रूपमें मनाते हैं ।

३. होली के पर्व पर अग्निदेवता के
प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का कारण
होली यह अग्निदेवताकी उपासनाका ही एक अंग है । अग्निदेवताकी उपासनासे व्यक्तिमें तेजतत्त्वकी मात्रा बढनेमें सहायता मिलती है । होलीके दिन अग्निदेवताका तत्त्व २ प्रतिशत कार्यरत रहता है । इस दिन अग्निदेवताकी पूजा करनेसे व्यक्तिको तेजतत्त्वका लाभ होता है । इससे व्यक्तिमेंसे रज-तमकी मात्रा घटती है । होलीके दिन किए जानेवाले यज्ञोंके कारण प्रकृति मानवके लिए अनुकूल हो जाती है । इससे समयपर एवं अच्छी वर्षा होनेके कारण सृष्टिसंपन्न बनती है । इसीलिए होलीके दिन अग्निदेवताकी पूजा कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है । घरोंमें पूजा की जाती है, जो कि सुबहके समय करते हैं । सार्वजनिक रूपसे मनाई जानेवाली होली रातमें मनाई जाती है ।

४. होली मनाने का कारण
पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश इन पांच तत्त्वोंकी सहायतासे देवताके तत्त्वको पृथ्वीपर प्रकट करनेके लिए यज्ञ ही एक माध्यम है । जब पृथ्वीपर एक भी स्पंदन नहीं था, उस समयके प्रथम त्रेतायुगमें पंचतत्त्वोंमें विष्णुतत्त्व प्रकट होनेका समय आया । तब परमेश्वरद्वारा एक साथ सात ऋषि-मुनियोंको स्वप्नदृष्टांतमें यज्ञके बारेमें ज्ञान हुआ । उन्होंने यज्ञकी सिद्धताएं (तैयारियां) आरंभ कीं । नारदमुनिके मार्गदर्शनानुसार यज्ञका आरंभ हुआ । मंत्रघोषके साथ सबने विष्णुतत्त्वका आवाहन किया । यज्ञकी ज्वालाओंके साथ यज्ञकुंडमें विष्णुतत्त्व प्रकट होने लगा । इससे पृथ्वीपर विद्यमान अनिष्ट शक्तियोंको कष्ट होने लगा । उनमें भगदड मच गई । उन्हें अपने कष्टका कारण समझमें नहीं आ रहा था । धीरे-धीरे श्रीविष्णु पूर्ण रूपसे प्रकट हुए । ऋषि-मुनियोंके साथ वहां उपस्थित सभी भक्तोंको श्रीविष्णुजीके दर्शन हुए । उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी । इस प्रकार त्रेतायुगके प्रथम यज्ञके स्मरणमें होली मनाई जाती है । होलीके संदर्भमें शास्त्रों एवं पुराणोंमें अनेक कथाएं प्रचलित हैं ।
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।

५. भविष्यपुराण की कथा
भविष्यपुराणमें एक कथा है । प्राचीन कालमें ढुंढा अथवा ढौंढा नामक राक्षसी एक गांवमें घुसकर बालकोंको कष्ट देती थी । वह रोग एवं व्याधि निर्माण करती थी । उसे गांवसे निकालने हेतु लोगोंने बहुत प्रयत्न किए; परंतु वह जाती ही नहीं थी । अंतमें लोगोंने अपशब्द बोलकर, श्राप देकर तथा सर्वत्र अग्नि जलाकर उसे डराकर भगा दिया । वह भयभीत होकर गांवसे भाग गई । इस प्रकार अनेक कथाओंके अनुसार विभिन्न कारणोंसे इस उत्सवको देश-विदेशमें विविध प्रकारसे मनाया जाता है । प्रदेशानुसार फाल्गुनी पूर्णिमासे पंचमी तक पांच-छः दिनोंमें, कहीं तो दो दिन, तो कहीं पांचों दिनतक यह त्यौहार मनाया जाता है ।

६. होली का महत्त्व
होलीका संबंध मनुष्यके व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवनसे है, साथ ही साथ नैसर्गिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक कारणोंसे भी है । यह बुराई पर अच्छाईकी विजयका प्रतीक है । दुष्प्रवृत्ति एवं अमंगल विचारोंका नाश कर, सद्प्रवृत्तिका मार्ग दिखानेवाला यह उत्सव है। अनिष्ट शक्तियोंको नष्ट कर ईश्वरीय चैतन्य प्राप्त करनेका यह दिन है । आध्यात्मिक साधनामें अग्रसर होने हेतु बल प्राप्त करनेका यह अवसर है । वसंत ऋतुके आगमन हेतु मनाया जानेवाला यह उत्सव है । अग्निदेवताके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेका यह त्यौहार है ।

७. शास्त्रानुसार होली मनाने की पद्धति
कई स्थानोंपर होलीका उत्सव मनानेकी सिद्धता महीने भर पहलेसे ही आरंभ हो जाती है । इसमें बच्चे घर-घर जाकर लकडियां इकट्ठी करते हैं । पूर्णमासीको होलीकी पूजासे पूर्व उन लकडियोंकी विशिष्ट पद्धतिसे रचना की जाती है । तत्पश्चात उसकी पूजा की जाती है । पूजा करनेके उपरांत उसमें अग्नि प्रदीप्त (प्रज्वलित) की जाती है । होली प्रदीपनकी पद्धति समझनेके लिए हम इसे दो भागोंमें विभाजित करते हैं, १. होलीकी रचना तथा २. होलीका पूजन एवं प्रदीपन

८. होली की रचना की पद्धति
८ अ. होली की रचना के लिए आवश्यक सामग्री
अरंड अर्थात कैस्टरका पेड, माड अर्थात कोकोनट ट्री, अथवा सुपारीके पेडका तना अथवा गन्ना । ध्यान रहें, गन्ना पूरा हो । उसके टुकडे न करें । मात्र पेडका तना पांच अथवा छः फुट लंबाईका हो । गायके गोबरके उपले अर्थात ड्राइड काऊ डंग, अन्य लकडियां ।

८ आ. होली के रचना की प्रत्यक्ष कृति
सामान्यत: ग्रामदेवताके देवालयके सामने होली जलाएं । यदि संभव न हो, तो सुविधाजनक स्थान चुनें । जिस स्थानपर होली जलानी हो, उस स्थानपर सूर्यास्तके पूर्व झाडू लगाकर स्वच्छ करें । बादमें उस स्थानपर गोबर मिश्रित पानी छिडके । अरंडीका पेड, माड अथवा सुपारीके पेडका तना अथवा गन्ना उपलब्धताके अनुसार खडा करें । उसके उपरांत चारों ओर उपलों एवं लकड़ियोंकी शंकुसमान रचना करें । उस स्थानपर रंगोली बनाएं । यह रही होलीकी शास्त्रके अनुसार रचना करनेकी उचित पद्धति ।

९. होली की रचना करते समय
उसका आकार शंकुसमान होने का शास्त्राधार
९ अ. होलीका शंकुसमान आकार इच्छाशक्तिका प्रतीक है ।

९ आ. होलीकी रचनामें शंकुसमान आकारमें घनीभूत होनेवाला अग्निस्वरूपी तेजतत्त्व भूमंडलपर आच्छादित होता है । इससे भूमिको लाभ मिलनेमें सहायता होती है । साथ ही पातालसे भूगर्भकी दिशामें प्रक्षेपित कष्टदायक स्पंदनोंसे भूमिकी रक्षा होती है ।

९ इ. होलीकी इस रचनामें घनीभूत तेजके अधिष्ठानके कारण भूमंडलमें विद्यमान स्थानदेवता, वास्तुदेवता एवं ग्रामदेवता जैसे क्षुद्रदेवताओंके तत्त्व जागृत होते हैं । इससे भूमंडलमें विद्यमान अनिष्ट शक्तियोंके उच्चाटनका कार्य सहजतासे साध्य होता है ।

९ उ. शंकुके आकारमें घनीभूत अग्निरूपी तेजके संपर्कमें आनेवाले व्यक्तिकी मनःशक्ति जागृत होनेमें सहायता होती है । इससे उनकी कनिष्ठ स्वरूपकी मनोकामना पूर्ण होती है एवं व्यक्तिको इच्छित फलप्राप्ति होती है ।

१०. होली में अर्पण करने के लिए मीठी रोटी बनाने का शास्त्रीय कारण

होलिका देवीको निवेदित करनेके लिए एवं होलीमें अर्पण करनेके लिए उबाली हुई चनेकी दाल एवं गुडका मिश्रण, जिसे महाराष्ट्रमें पुरण कहते हैं, यह भरकर मीठी रोटी बनाते हैं । इस मीठी रोटीका नैवेद्य होली प्रज्वलित करनेके उपरांत उसमें समर्पित किया जाता है । होलीमें अर्पण करनेके लिए नैवेद्य बनानेमें प्रयुक्त घटकोंमें तेजोमय तरंगोंको अतिशीघ्रतासे आकृष्ट, ग्रहण एवं प्रक्षेपित करनेकी क्षमता होती है । इन घटकोंद्वारा प्रक्षेपित सूक्ष्म वायुसे नैवेद्य निवेदित करनेवाले व्यक्तिकी देहमें पंचप्राण जागृत होते हैं । उस नैवेद्यको प्रसादके रूपमें ग्रहण करनेसे व्यक्तिमें तेजोमय तरंगोंका संक्रमण होता है तथा उसकी सूर्यनाडी कार्यरत होनेमें सहायता मिलती है । सूर्यनाडी कार्यरत होनेसे व्यक्तिको कार्य करनेके लिए बल प्राप्त होता है ।
*धन्यवाद ।
होली का प्राचीन इतिहास – पुरातात्विक, ऐतिहासिक, साहित्यिक और ज्योतिष पक्ष

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होली भारत के मस्ती भरे त्यौहारों मे प्रथम स्थान पर आता है, जितनी रंगमस्ती इस त्योहार से जुडी है, उतना ही महान इस त्योहार का इतिहास भी है, बसंत ऋतु के फ़ाल्गुन महीने मे जब अर्जुन और पलाश वृक्ष फ़ूलों से लद जाते है, और कृषि पारायण भारत मे जब किसान की फसलें पक कर तैयार हो जाती है, किसान को खुश होने का अवकाश देने हेतु, तब ही फ़ाल्गुन की पूर्णिमा को होली मनाई जाती रही है, वसंत ऋतु मे पडने के कारण होली को वसंत उत्सव, मदन उत्सव आदि साहित्यिक नामों से भी जाना जाता है

होली वैदिक युग का दुर्लभ त्योहार है, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि होली मनाने का सिलसिला जो वैदिक काल से शुरू हुआ, आज तक लगातार चलता ही जा रहा है, कभी रुका नही, हम सभी होलिका की पौराणिक कहानी जानते है, किन्तु उपलब्ध वैदिक साहित्य हमे इस मनोरंजक त्योहार के इतिहासिक संदर्भ की पर्याप्त जानकारी प्रदान करते है, और इन ऐतिहासिक तथ्यो के आधार पर कम से होली मनाने की परंपरा कम से कम ३५०० वर्ष पुरानी साबित होती है. होली के ऐतिहसिक पक्ष के स्त्रोत हमे – काठक गृह सुत्र, लौगाक्षी गृह सूत्र ( सभी ह्मारे पास उपलब्ध है) में होली के उद्धरणों से प्राप्त होते है, गृह सुत्रो का समय भी १००० से १२०० वर्ष ईषा पूर्व का है, हालांकि लोकमान्य तिलक एवं एक जर्मन विद्वान जकोबी ने नव विवाहित युगल द्वारा संध्या समय वशिष्ठ एवं अरुन्धति नक्षत्र दर्शन की गृह सूत्र प्रथा के आधार पर ज्य़ोतिषीय गणना कर के गृह सूत्रों का समय २३०० से २५०० वर्ष ईषा पूर्व निर्धारित किया है

अन्य मह्त्वपूर्ण स्त्रोतो मे गरूण पुराण, भविष्य पुराण तथा जैमिनी के पूर्व मीमांसा में भी होली के संदर्भ मिल जाते हैं

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प्राचीनतम पुरातात्विक साक्ष्य

सौभाग्य से होलीकोत्सव का प्राचीनतम मौर्यकालीन (२५० – ३०० वर्ष ईसा पूर्व ) पुरातात्विक अभिलेख, विन्ध्य पर्वत माला के अन्तर्गत कैमूर की छोटी – छोटी पहाडियों के मध्य बसे हुये रामगढ जो कि छ्त्तीसगढ के अम्बिकापुर जिलॆ मे आता है, से प्राप्त हो गया है, कहने का अर्थ यह कि होली त्योहार मनाने का सिल्सिला अनवरत चालू है

ऐतिहासिक साक्ष्यों मे राजा हर्ष की रत्नावली (लगभग ६०० ईसवी) मे एवं दन्डिन की दश कुमार चरित (लगभग ८०० ईसवी) मे भी होलीकोत्सव का उल्लेख है.

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होली नव वर्ष का त्य़ोहार है

भाषाविज्ञान के अनुसार “होली” शब्द “होला” शब्द से व्युत्पन्न है, जो कि पूर्णिमा के पश्चात भोर के ४ बजे की प्रथम होरा का समय है, स्प्ष्ट है कि “होला” से भी आशय पूर्णता के बाद प्रगति की ओर बढते हुए प्रथम उल्लास होता है, ऋग्वेद से संबंधित ऐतरेय ब्राह्मण मे उदीच्य लोगो का उल्लेख है, ये उदीच्य लोग अपने स्थान को “होला” कहते रहे है, वर्तमान के गुजरात प्रदेश के पाटन क्षेत्र मे उदीच्य लोग बहुतायत से प्राप्त होते है, शब्दिक साम्य के आधार पर यदि कहे तो हो सकता है कि पाटन क्षेत्र मे होली की शुरुआत होई रही होगी, किन्तु अलग से कोई साक्ष्य प्राप्त नही होता है.

शतपथ ब्राह्मण ( ६.२.२.१८ ) मे कहा गया है कि, संवत्सर की प्रथम रात्रि फ़ाल्गुन मास की पूर्णिमा होती है, तात्पर्य यह कि, वैदिक संवत्सर होली से शुरु होता रहा है और होली नये वर्ष को मनाने का त्योहार हौ, इतना विशाल और रंगीन नया वर्ष शायद ही कही और, किसी और सभ्यता मे मनाया जाता रहा हो

!! एषा ह संवत्सरस्य प्रथमरात्रिर्फ़ाल्गुनपूर्णमासी !!
शतपथ ब्राह्मण ( ६.२.२.१८ )

ऐसे ही कथन हमे तांड्य महाब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण मे प्राप्त होते है,

ज्योतिषीय गणना के आधार पर तो होली कम से कम २७,००० वर्ष पुराना त्योहार प्रतीत होता है, ज्योतिषीय गणना का आधार पुरा प्राचीन काल मे होली के समय होने वाला वसन्त संपात (Spring Equinox) है, जो कि पूर्व भाद्रपद नक्षत्र मे पडता था, जबकि आजकल वसन्त संपात उत्तर भाद्रपद नक्षत्र पर पडता है, तो प्रति वर्ष २० मिनट के हिसब से पिछ्ड्ते हुये अयनांश की गडना करने पर प्राचीन पूर्व भाद्रपद से आज के पूर्व भाद्रपद तक तक २६००० वर्ष हो जाते है, तथा इसके बाद ९७० वर्ष उत्तर भाद्रपद के लिये और जोडने पर, लगभ्ग २७००० वर्षो की ऐतिहासिकता ज्ञात होती है.

यहा एक प्रश्न उठता है कि जब होली से चैत्र का नया महीना एवं साथ ही नया वर्ष भी शुरु हो जाता है, तब पंचागों मे १५ दिनो के बाद, चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष से ही नया वर्ष क्य़ो मान्य किया गया है, बहुत अनुसंधान करने के पश्चात ज्ञात हुआ कि १५ दिनो का यह अंतर दो तरह की भारतीय महीनों की प्रथा के मध्य सामंजस्य स्थापित करने के लिये ऋषियो द्वारा किया गया है, भारत मे पूर्णमान्त अर्थात पूर्णिमा से पूर्णिमा पर समाप्त होने वाली एक पद्दधति एवं अमान्त अर्थात अमावस्या से अमावस्या पर समाप्त होने वाली दूसरी पद्दधति वैदिक काल से ही चलती रही है एवं दोनो ही पद्दधतियों के मध्या विवाद भी शुरू से ही रहा है, समस्या देखते हुये, संभवतः ऋषियों ने १५ दिनो के बाद शुरु होने वाले अमान्त चैत्र आधारित नव वर्ष एवं पूर्णिमान्त महीने के रूप में नवीन महीने के द्वारा विवाद का सर्वमान्य हल निकाल दिया होगा।

भारत कृषी प्रधान देश है ,वैदिक भारतमें जब फाल्गुन मास में फसल कटके आती थी तब आर्य घरोंमें उस फसल को सर्व प्रथम अग्निदेव को अर्पित करते जिसे होली या होरी कहते हैं । आज भी होलीमें धान्य अग्निको अर्पित किया जाता है ।
आजही के दिन भक्त प्रवर प्रह्लादजी को उनकी बुआ ,हिरण्यकश्यपुकी अनुजा ने जीवित चितामें जलाने का प्रयास किया था ,किन्तु श्रीहरिः ने प्रह्लादजी की रक्षाकी ।
वैसे होलिकासे हिरण्यकश्यपकी बहन का कोई। सम्बन्ध नहीं । होली या होरी अन्न को जलाने को कहते हैं और हिरण्यकश्यपकी बहन सिंहिका थी होलिका नहीं ।
प्रजापति कश्यपकी १३ पत्नियोंमें दिति सबसे बड़ी थीं । उनकी तीन सन्तान थीं हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष यमल सन्तान थे और कनिष्ठ सन्तान सिंहिका थी जिसका विवाह दनु पुत्र विप्रचित्तिके साथ हुआ था और सिंहिकाका पुत्र राहु है जो नवगृहों में दो रूपों राहु-केतु हैं ।

होली-(क) शब्द का अर्थ- इसका मूल रूप हुलहुली (शुभ अवसर की ध्वनि) है जो ऋ-ऋ-लृ का लगातार उच्चारण है। आकाश के ५ मण्डल हैं, जिनमें पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माण्ड हमारे अनुभव से परे है। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी का अनुभव होता है, जो शिव के ३ नेत्र हैं। इनके चिह्न ५ मूल स्वर हैं-अ, इ, उ, ऋ, लृ। शिव के ३ नेत्रों का स्मरण ही होली है।
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्र सूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः। (मुण्डक उपनिषद्, २/१/४)
चन्द्रार्क वैश्वानर लोचनाय, तस्मै वकाराय नमः शिवाय (शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र)
विजय के लिये उलुलय (होली) का उच्चारण होता है-
उद्धर्षतां मघवन् वाजिनान्युद वीराणां जयतामेतु घोषः।
पृथग् घोषा उलुलयः एतुमन्त उदीरताम्। (अथर्व ३/१९/६)
(ख) अग्नि का पुनः ज्वलन-सम्वत्सर रूपी अग्नि वर्ष के अन्त में खर्च हो जाती है, अतः उसे पुनः जलाते हैं, जो सम्वत्-दहन है-
अग्निर्जागार तमृचः कामयन्ते, अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोम आह-तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः। (ऋक् ५/४४/१५)
यह फाल्गुन मास में फाल्गुन नक्षत्र (पूर्णिमा को) होता है, इस नक्षत्र का देवता इन्द्र है-
फाल्गुनीष्वग्नीऽआदधीत। एता वा इन्द्रनक्षत्रं यत् फाल्गुन्यः। अप्यस्य प्रतिनाम्न्यः। (शतपथ ब्राह्मण २/१/२/१२)
मुखं वा एतत् सम्वत्सररूपयत् फाल्गुनी पौर्णमासी। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/१८)
सम्वत्सर ही अग्नि है जो ऋतुओं को धारण करता है-
सम्वत्सरः-एषोऽग्निः। स ऋतव्याभिः संहितः। सम्वत्सरमेवैतत्-ऋतुभिः-सन्तनोति, सन्दधाति। ता वै नाना समानोदर्काः। ऋतवो वाऽअसृज्यन्त। ते सृष्टा नानैवासन्। तेऽब्रुवन्-न वाऽइत्थं सन्तः शक्ष्यामः प्रजनयितुम्। रूपैः समायामेति। ते एकैकमृतुं रूपैः समायन्। तस्मादेकैकस्मिन्-ऋतौ सर्वेषां ऋतूनां रूपम्। (शतपथ ब्राह्मण ८/७/१/३,४)
जिस ऋतु में अग्नि फिर से बसती है वह वसन्त है-
यस्मिन् काले अग्निकणाः पार्थिवपदार्थेषु निवसन्तो भवन्ति, स कालः वसन्तः।
फल्गु = खाली, फांका। वर्ष अग्नि से खाली हो जाता है, अतः यह फाल्गुन मास है। अंग्रेजी में भी होली (Holy = शिव = शुभ) या हौलो (hollow = खाली) होता है। वर्ष इस समय पूर्ण होता है अतः इसका अर्थ पूर्ण भी है। अग्नि जलने पर पुनः विविध (विचित्र) सृष्टि होती है, अतः प्रथम मास चैत्र है। आत्मा शरीर से गमन करती है उसे गय-प्राण कहते हैं। उसके बाग शरीर खाली (फल्गु) हो जाता है, अतः गया श्राद्ध फल्गु तट पर होता है।
(ग) कामना-काम (कामना) से ही सृष्टि होती है, अतः इससे वर्ष का आरम्भ करते हैं-
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥ (ऋक् १०/१२९/४)
इस ऋतु में सौर किरण रूपी मधु से फल-फूल उत्पन्न होते हैं, अतः वसन्त को मधुमास भी कहते हैं-
(यजु ३७/१३) प्राणो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण १४/१/३/३०) = प्राण ही मधु है।
(यजु ११/३८) रसो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण ६/४/३/२, ७/५/१/४) = रस ही मधु है।
अपो देवा मधुमतीरगृम्भणन्नित्यपो देवा रसवतीरगृह्णन्नित्येवैतदाह। (शतपथ ब्राह्मण ५/३/४/३)
= अप् (ब्रह्माण्ड) के देव सूर्य से मधु पाते हैं।
ओषधि (जो प्रति वर्ष फलने के बाद नष्ट होते हैं) का रस मधु है-ओषधीनां वाऽएष परमो रसो यन्मधु। (शतपथ ब्राह्मण २/५/४/१८) परमं वा एतदन्नाद्यं यन्मधु। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १३/११/१७)
सर्वं वाऽइदं मधु यदिदं किं च। (शतपथ ब्राह्मण ३/७/१/११, १४/१/३/१३)
हम हर रूप में मधु की कामना करते हैं-
मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥६॥
मधुनक्तमुतोषसो, मधुमत् पार्थिवं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता॥७॥
मधुमान्नो वनस्पति- र्मधुमाँ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥८॥ (ऋक् १/९०)
= मौसमी हवा (वाता ऋता) मधु दे, नदियां मधु बहायें, हमारी ओषधि मधु भरी हों। रात्रि तथा उषा मधु दें, पृथ्वी, आकाश मधु से भरे हों। वनस्पति, सूर्य, गायें मधु दें।
मधुमतीरोषधीर्द्याव आपो मधुमन्नो अन्तरिक्षम्।
क्षेत्रस्य पतिर्मधुमन्नो अस्त्वरिष्यन्तो अन्वेनं चरेम॥ (ऋक् ४/५७/३)
= ओषधि, आकाश, जल, अन्तरिक्ष, किसान-सभी मधु युक्त हों।
(घ) दोल-पूर्णिमा-वर्ष का चक्र दोलन (झूला) है जिसमें सूर्य-चन्द्र रूपी २ बच्चे खेल रहे हैं, जिस दिन यह दोल पूर्ण होता है वह दोल-पूर्णिमा है-
यास्ते पूषन् नावो अन्तः समुद्रे हिरण्मयीरन्तरिक्षे चरन्ति।
ताभिर्यासि दूत्यां सूर्य्यस्य कामेन कृतश्रव इच्छमानः॥ (ऋक् ६/५८/३)
पूर्वापरं चरतो माययैतै शिशू क्रीडन्तौ परि यन्तो अध्वरम् (सम्वत्सरम्) ।
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूरन्यो विदधज्जायते पुनः॥ (ऋक् १०/८५/१८)
कृष्ण (Blackhole) से आकर्षित हो लोक (galaxy) वर्तमान है, उस अमृत लोक से सूर्य उत्पन्न होता है जिसका तेज पृथ्वी के मर्त्य जीवों का पालन करता है। वह रथ पर घूम कर लोकों का निरीक्षण करता है-
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्। (ऋक् १/३५/२, यजु ३३/४३)
(ङ) विषुव संक्रान्ति-होली के समय सूर्य उत्तरायण गति में विषुव को पार करता है। इस दिन सभी स्थानों पर दिन-रात बराबर होते हैं। दिन रात्रि का अन्तर, या इस रेखा का अक्षांश शून्य (विषुव) है, अतः इसे विषुव रेखा कहते हैं। इसको पार करना संक्रान्ति है जिससे नया वर्ष होली के बाद शुरु होगा।

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