Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

क्याप्राचीनकालमें #वैज्ञानिकविकास #हुआ_था ???

  • अरुण उपाध्याय जी का लेख –

कई व्यक्ति प्राचीन ज्ञान की चर्चा होने पर कई प्रकार के विरोध और व्यंग करते हैं। पूरे विश्व की कई प्राचीन वैज्ञानिक तथ्यों का अभी तक पता नहीं चला है। यदि उन तथ्यों और मापों से कुछ नया खोजने में सहायता मिले तो दुखी नहीं होना चाहिये।

मैंने २००१ में मेलकोट संस्था की पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख में सौर मण्डल की ३ मापों का उल्लेख किया था जो उस समय तक आधुनिक विज्ञान में अज्ञात थी। इनका वर्णन २००६ में प्रकाशित मेरी पुस्तक सांख्य सिद्धान्त में भी है। २००८ में उनमें से २ का पता चला। उससे पहले तक सौर वायु को मंगल कक्षा तक मानते थे। भागवत पुराण तथा यजुर्वेद के अनुसार गणना करने से यह यूरेनस कक्षा तक आता था।
इसके अतिरिक्त ऋग्वेद खिल सूक्त तथा सूर्य सिद्धान्त के अनुसार सूर्य से ६० ज्योतिषीय इकाई की दूरी पर १३५ किमी से अधिक व्यास के ६०,००० बालखिल्य हैं। २००८ में इन दोनों का पता चला। नासा का अनुमान था कि ४५-७५ ज्योतिषीय इकाई दूरी पर १०० किमी से अधिक बडे ७०,००० प्लूटोनिक ग्रह हैं, जिसके बाद प्लूटो को ग्रह सूची से बाहर किया गया। सौर मण्डल की माप के विषय में अभी कोई परिभाषा या माप नहीं है। पुराणों में २ परिभाषाओं के अनुसार २ माप हैं। ऋग्वेद (१०/१८९/३) में भी १ माप है।

सभी पुराणों तथा ज्योतिष ग्रन्थों में ब्रह्माण्ड की परिभाषा और माप दी हुई है। ऋग्वेद में भी कई स्थानों पर है तथा कठोपनिषद् में १ स्थान पर। मापों में विधि तथा इकाई के अनुसार थोड़ा अन्तर है (१५% तक)। आधुनिक काल में १९५० से यह माप शुरु हुई तथा कम से कम १० बार परिवर्तन हो चुके हैं। १९९० में १ लाख तथा २००८ में ९०,००० प्रकाश वर्ष व्यास माना गया है। कठोपनिषद् तथा अस्य वामीय सूक्त की गणना के अनुसार ९७,००० प्रकाश वर्ष व्यास होगा। सूर्य सिद्धान्त का मान थोड़ा अधिक है।

आर्यभट ने लिखा था कि उत्तरी ध्रुव जल में तथा दक्षिणी ध्रुव स्थल में है। उत्तरी ध्रुव का १९०९ में तथा दक्षिणी ध्रुव का १९३१ में पता चला। पर दक्षिणी ध्रुव वास्तव में स्थल पर है इसका पता १९८५ में चला। निश्चित रूप से आर्यभट किसी ध्रुव पर नहीं गये थे। जाते तो भी उस समय के साधनों से पता नहीं चलता। यह महाभारत के पूर्व का ज्ञान है जिसे उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है।
ब्रह्माण्ड की माप माया लोगों को भी पता थी।

विश्व के हर भाग में लोग प्राचीन काल में ग्रहण की गणना करना जानते थे तथा उसी काल में मन्त्रों की सिद्धि आदि अनुष्ठान करते थे। केवल ओड़िशा में ही प्रायः ३०० दानपत्र प्रकाशित हैं जो सूर्य ग्रहण के समय दिये गये थे। आज भी ग्रहण गणना करने की सटीक विधि नहीं मालूम है। यह अनुमानित गणना की जाती है। किसी भी भौतिकी या गणित प्राध्यापक को यह विधि समझ नहीं आयेगी। सूर्य चन्द्र की दूरी निकालने के लिये पृथ्वी सतह का सूक्ष्म माप जरूरी है।

पूरे विश्व में ताम्बा सोना आदि की ५०,००० वर्ष तक पुरानी खानें मिली हैं। आज भी खनिज खोजना अनुमान का ही विषय है। विशेष कर विरल पदार्थ का संयोग से ही पता चलता है। यदि हमारे हाथ में जमीन से नीचे का कोई खनिज दिया जाय तो उसे पहचानने में २ दिन तक परीक्षण करना पड़ेगा। पुराने विश्व में भूमिगत खनिजों का कैसे पता चला था? क्या पूरी पृथ्वी को २ किमी तक खोद कर देखा गया था?
आयुर्वेद, योग की कई ऐसी बाते हैं जिनका रहस्य अभी तक नहीं पता चला है।

बड़ा दिन और ईसा मसीह-
ज्योतिष में दिन-मास-वर्ष में कोई सरल अनुपात नहीं है और यह बदलता रहता है। अतः समय के शुद्ध निर्धारण के लिये भारतीय पञ्चाङ्ग में कई प्रकार से इनकी गणना की जाती है। जब सभी सही मिल जायें तो ठीक समय होगा। दिन का निर्धारण ५ प्रकार से होता है, अतः इसे पञ्चाङ्ग कहते हैं। मास भी २ प्रकार के हैं। गणना का आधार सौर मास है। इससे दिन गणना में सुविधा होती है। १ दिन या संख्या को कुश से व्यक्त करते हैं। दिनों का समूह (अहर्गण) कुश के गट्ठर जैसा है जो शक्तिशाली हो जाता है, अतः इस पद्धति को शक कहते हैं। यहां शक = एक निर्दिष्ट समय विन्दु से दिनों का समूह। इसके बाद चान्द्र तिथि की गणना की जाती है। चन्द्रमा मन का नियन्त्रण करता है, अतः पर्व निर्धारण चान्द्र तिथि से होता है। समाज इसी के अनुसार चलत है, अतः इसे सम्वत्सर कहते हैं। इसे सौर मास-वर्ष से मिलाने के लिये प्रायः ३०-३१ मास के बाद अधिक मास जोड़ते हैं। जिस मास में सूर्य संक्रान्ति (राशि परिवर्तन) नहीं हो वह अधिक मास होता है। इसके लिये भी पहले सौर मास की गणना करनी पड़ती है। चान्द्र मास गणित के अनुसार शुक्ल पक्ष से आरम्भ होता है। पर कलियुग के प्रायः ३००० वर्ष बाद विक्रम सम्वत् के आरम्भ के समय ऋतु चक्र प्रायः १.५ मास पीछे खिसक गया था, अतः विक्रम सम्वत् में चान्द्र मास कृष्ण पक्ष से आरम्भ होता है। यह एकमात्र वर्ष गणन है जिसमें कृष्ण पक्ष से चान्द्र मास आरम्भ होता है।
वेदाङ्ग ज्योतिष में कहा गया है-पञ्च सम्वत्सरमयं युगम्। इसके कई अर्थ हैं-(१) १ प्रकार के युग में ५ वर्ष होते हैं।
(२) ऋक् ज्योतिष में १९ वर्ष का युग होता है। याजुष ज्योतिष में ५-५ वर्षों के ५ युग मिलाने पर उनमें ६ क्षय वर्ष होते है। अतः उसमें भी १९ वर्ष का युग हुआ। इसमें ५ वर्ष सम्वत्सर हैं जिनका आरम्भ प्रायः चान्द्र मास के साथ (०-५ दिन का अन्तर) होता है। बाकी १४ वर्ष अन्य ४ प्रकार के हैं-परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर, इद्वत्सर।
(३) ५ प्रकार के वत्सरों से युग निर्धारण होता है-बार्हस्पत्य, दिव्य, सप्तर्षि, ध्रुव, अयनाब्द।
(४) बार्हस्पत्य वर्ष के ६० वर्ष चक्र में भी ५-५ वर्षों के १२ युग होते हैं।
वर्ष का आरम्भ ४ प्रकार से हो सकता है जो पृथ्वी कक्षा के चतुर्थांश के विन्दु हैं। जब सूर्य सबसे दक्षिण हो या उसकी किरण दक्षिणी अक्षांश वृत्त पर लम्ब हो। पृथ्वी का अपने अक्ष पर जितना झुकाव होगा, उतने ही उत्तर या दक्षिण अक्षांश तक सूर्य की किरन लम्ब रूप से पड़ सकती है। विक्रम सम्वत् के आरम्भ में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता था तो सूर्य सबसे दक्षिण होता था। अतः उसे मकर रेखा कहते हैं। सबसे उत्तर सूर्य किरण तब लम्ब होती है जब सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करे। यह कर्क रेखा है। पृथ्वी का झुकाव प्रायः २६ अंश से २२ अंश तक घटता बढ़ता है। अभी यह घट रहा है तथा प्रायः २३ अंश २६ कला है। यह उत्तर में जहां तक गया था अर्थात् सूर्य रथ कॆ नेमि (धुरा) जहां शीर्ण हो गयी थी उसे नैमिषारण्य कहते हैं। इक्ष्वाकु के समय यह मिथिला तक जाती थी। सूर्य विश्व की आंख है। विषुव रेखा पर आंख बन्द रहती है। मिथिला पहुंचने पर पूरी तरह खुल जाती थी। अतः कहा गया कि इक्ष्वाकु के पुत्र मिथिला राजा निमि की पलक सदा खुली रहती थी। वहां आज भी जब सूर्य सबसे उत्तर हो तब वर्ष आरम्भ होता है।
मकर रेखा से सूर्य उत्तर चलना आरम्भ करता है और ६ मास तक उत्तर गति रहती है जब वह कर्क रेखा पर पहुंचता है। उत्तरायण से जो वर्ष आरम्भ होता है वह दिव्य वर्ष है। उत्तरायण गति के मध्य में जब विषुव रेखा को पार करता है, तब सावन (लौकिक या व्यावहारिक) वर्ष होता है। दक्षिणायन से जो वर्ष आरम्भ होता है वह दिव्य का विपरीत असुर वर्ष कहते थे। इस समय वर्षा आरम्भ होती है, अतः सम्वत्सर को वर्ष कहा गया। एक वर्षा का क्षेत्र भी वर्ष है जैसे भारतवर्ष है।
दिव्य वर्ष दो प्रकार के हैं-एक तो उत्तरायण आरम्भ से अगले उत्तरायण आरम्भ तक। यह सौर ऋतु वर्ष हुआ। दूसरी पद्धति में इस वर्ष को ही दिन मान लेते हैं तथा ऐसे ३६० दिन (३६० सौर वर्ष) का दिव्य वर्ष कहते हैं। दोनों के उदाहरण पुराणों में हैं। ब्रह्माण्ड और वायु पुराणॊं में ३०३० मानुष वर्ष या २७०० दिव्य वर्ष का सप्तर्षि वर्ष कहा गया है। इसमें मानुष वर्ष का अर्थ है चन्द्र की १२ परिक्रमा का काल ३२७ दिन। चन्द्र मन का नियन्त्रक है अतः चान्द्र वर्ष को मानुष वर्ष कहा है। दिव्य वर्ष ३६५.२२ दिन का सौर वर्ष है। इस परिभाषा से ३०३० मानुष वर्ष = २७०० दिव्य वर्ष।
जुलियस सीजर ने ४५ ई.पू. में दिव्य दिन (उत्तरायण) से ही वर्ष का आरम्भ करने का आदेश दिया था। पर लोगों ने ७ दिन बाद जब विक्रम सम्वत् ११ की पौष अमावास्या थी तब वर्ष का आरम्भ किया। (Report of Calendar Reform Committee, CSIR, 1955, page 168)। जो मूल वर्ष आरम्भ का दिन था वह २५ दिसम्बर हो गया। यदि ईसा मसीह वास्तविक भी थे, तो उनका जन्म इसके करीब ५० वर्ष बाद हुआ था। काल्पनिक या असम्भव अर्थ में शंकराचार्य ने वन्ध्या-पुत्र शब्द का प्रयोग किया है। उसी प्रकार इनके लिये कुमारी पुत्र का प्रयोग है। भविष्य पुराण के अनुसारये शालिवाहन के समय (७८-१३८ ई.) में कश्मीर आये थे तथा उसराजा से भेंट हुई थी।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, खण्ड ३, अध्याय २-एकदा तु शकाधीशो हिमतुंगं समाययौ॥२१॥
हूणदेशस्य मध्ये वै गिरिस्थं पुरुषं शुभम्। ददर्श बलवान् राजा गौरांगं श्वेतवस्त्रकम्॥२२॥
को भवानिति तं प्राह होवाच मुदान्वितः। ईशपुत्रं च मां विद्धि कुमारीगर्भसम्भवम्॥२३॥
म्लेच्छधर्मस्य वक्तारं सत्यव्रतपरायणम्। इति श्रुत्वा नृपः प्राह धर्मः को भवतो मतः॥२४॥
श्रुत्वोवाच महाराज प्रापे सत्यस्य संक्षये। निर्मर्यादे म्लेच्छदेशे मसीहोऽहं समागतः॥२५॥
ईशामसी च दस्यूनां प्रादुर्भूता भयंकरी। तामहं म्लेच्छतः प्राप्य मसीहत्वमुपागतः॥२६॥
म्लेच्छेषु स्थापितो धर्मो मया तच्छृणु भूपते। मानसं निर्मलं कृत्वा मलं देहे शुभाशुभम्॥२७॥
नैगमं जपमास्थाय जपेत निर्मलं परम्। न्यायेन सत्यवचसा मनसैक्येन मानवः॥२८॥
ध्यानेन पूजयेदीशं सूर्यमण्डलसंस्थितम्। अचलोऽयं प्रभुः साक्षात्तथा सूर्योऽचलः सदा॥२९॥
तत्त्वानां चलभूतानां कर्षणः स समन्ततः। इति कृत्येन भूपाल मसीहा विलयं गता॥३०॥
ईशमूर्तिर्हृदि प्राप्ता नित्यशुद्धा शिवंकरी। ईशामसीह इति च मम नाम प्रतिष्ठितम्॥३१॥
इति श्रुत्वा स भूपालो नत्वा तं म्लेच्छपूजकम्। स्थापयामास तं तत्र म्लेच्छस्थाने हि दारुणे॥३२॥
दिव्य दिन का आरम्भ होने से यह बड़ा दिन कहलाता है। इस समय उत्तरी गोलार्ध में सबसे बड़ी रात होती है और यह मार्गशीर्ष में प्रायः आता है अतः इसे कृष्ण मास कहते हैं-मासानां मार्गशीर्षोऽहं (गीता, १०/३५)। कृष्णमास से क्रिस्मस हुआ है। तथाकथित इसाई कैलेन्डर जुलियस सीजर का ४६ ई.पू. का कैलेन्डर था जिसे करीब ५००वर्ष बाद इसाइयों ने प्रचलित किया। ईसा का जन्म वसन्त में वर्णित है। मार्गशीर्ष मास में बड़ा दिन होता है अतः उसका उषा काल १६ दिन पूर्व कार्त्तिक कृष्ण चतुर्दशी को होगा जिसे ओड़िशा में बड़ ओसा कहते हैं। २४ घण्टे के दिन का उषा काल १ घण्टा है, अतः ३६५ दिन के दिन का उषा काल १५ दिन से कुछ अधिक होगा। उत्तरायण आरम्भ होने पर ही भीष्म ने देह त्याग किया था। मूलतः यह भीष्म निर्वाण दिवस था। पहले उत्तरायण आरम्भ २५ दिसम्बर को होता था। आजकल २२ या २३ दिसम्बर को होता है।

भारत के मुख्य कैलेण्डर
१. स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.) से-ऋतु वर्ष के अनुसार-विषुव वृत्त के उत्तर और दक्षिण ३-३ पथ १२, २०, २४ अंश पर थे जिनको सूर्य १-१ मास में पार करता था। उत्तर दिशा में ६ तथा दक्षिण दिशा में भी ६ मास। (ब्रह्माण्ड पुराण १/२२ आदि)
इसे पुरानी इथिओपियन बाइबिल में इनोक की पुस्तक के अध्याय ८२ में भी लिखा गया है।
२. ध्रुव-इनके मरने के समय २७३७६ ई.पू. में ध्रुव सम्वत्-जब उत्तरी ध्रुव पोलरिस (ध्रुव तारा) की दिशा में था।
३. क्रौञ्च सम्वत्-८१०० वर्ष बाद १९२७६ ई.पू. में क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) का प्रभुत्व था (वायु पुराण, ९९/४१९) ।
४. कश्यप (१७५०० ई.पू.) भारत में आदित्य वर्ष-अदितिर्जातम् अदितिर्जनित्वम्-अदिति के नक्षत्र पुनर्वसु से पुराना वर्ष समाप्त, नया आरम्भ। आज भी इस समय पुरी में रथ यात्रा।
५. कार्त्तिकेय-१५८०० ई.पू.-उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया। धनिष्ठा नक्षत्र से वर्षा तथा सम्वत् का आरम्भ। अतः सम्वत् को वर्ष कहा गया। (महाभारत, वन पर्व २३०/८-१०)
६. वैवस्वत मनु-१३९०२ ई.पू.-चैत्र मास से वर्ष आरम्भ। वर्तमान युग व्यवस्था।
७. वैवस्वत यम-११,१७६ ई.पू. (क्रौञ्च के ८१०० वर्ष बाद)। इनके बाद जल प्रलय। अवेस्ता के जमशेद।
८. इक्ष्वाकु-१-११-८५७६ ई.पू. से। इनके पुत्र विकुक्षि को इराक में उकुसी कहा गया जिसके लेख ८४०० ई.पू. अनुमानित हैं।
९. परशुराम-६१७७ ई.पू. से कलम्ब (कोल्लम) सम्वत्।
१०. युधिष्ठिर काल के ४ पञ्चाङ्ग-(क) अभिषेक-१७-१२-३१३९ ई.पू. (इसके ५ दिन बाद उत्तरायण में भीष्म का देहान्त)
(ख) ३६ वर्ष बाद भगवान् कृष्ण के देहान्त से कलियुग १७-२-३१०२ उज्जैन मध्यरात्रि से। २ दिन २-२७-३० घंटे बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।
(ग) जयाभ्युदय-६मास ११ दिन बाद परीक्षित अभिषेक २२-८-३१०२ ई.पू. से
(घ) लौकिक-ध्रुव के २४३०० वर्ष बाद युधिष्ठिर देहान्त से, कलि २५ वर्ष = ३०७६ ई.पू से कश्मीर में (राजतरंगिणी)
११. भटाब्द-आर्यभट-कलि ३६० = २७४२ ई.पू से।
१२. जैन युधिष्ठिर शक-काशी राजा पार्श्वनाथ का सन्यास-२६३४ ई.पू. (मगध अनुव्रत-१२वां बार्हद्रथ राजा)
१३. शिशुनाग शक-शिशुनाग देहान्त १९५४ ई.पू. से (बर्मा या म्याम्मार का कौजाद शक)
१४. नन्द शक-१६३४ ई.पू. महापद्मनन्द अभिषेक से। ७९९ वर्ष बाद खारावेल अभिषेक।
१५. शूद्रक शक-७५६ ई.पू.-मालव गण आरम्भ
१६. चाहमान शक-६१२ ई.पू. में (बृहत् संहिता १३/३)-असीरिया राजधानी निनेवे ध्वस्त।
१७. श्रीहर्ष शक-४५६ ई.पू.-मालव गण का अन्त।
१८. विक्रम सम्वत्-उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य द्वारा ५७ ई.पू. से
१९. शालिवाहन शक-विक्रमादित्य के पौत्र द्वारा ७८ ई.से।
२०. कलचुरि या चेदि शक-२४६ ई.
२१. वलभी भंग (३१९ ई.) गुजरात के वलभी में परवर्त्ती गुप्त राजाओं का अन्त।

✍🏻
अरुण उपाध्याय जी के लेखों से संग्रहित
कॉपी😊🙏🏻

Recommended Articles

Leave A Comment