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शिवलिंग का रहस्य एवं दर्शन

     लिंगपुराण के अनुसार समस्त चराचर जगत शिव में समाया हुआ है। अगर हम रात को आकाश की ओर देखें तो ऐसा लगता है कि सम्पूर्ण आकाश #शिवलिंगस्वरूप है। उसके अंदर सारा ब्रह्माण्ड समाया हुआ है।
  परब्रह्म परमेश्वर का निराकार रूप शिव है। मानव मस्तिष्क की रचना भी शिवलिंग से मिलती है। मस्तिष्क की ऊर्जा ही ब्रह्माण्ड में फैली असीम ऊर्जा की संग्राहिका है जो जाने-अनजाने ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से हर समय संपर्क बनाए रखती है और मानव चेतना को जिसका समय-समय पर होता रहता है आभास भी।
  हिन्दू धर्म और दर्शन के अनुसार हिन्दू देवी देवताओं में भगवान *शिव* सबसे अधिक पूजे जाने वाले देवता हैं। उत्तर हो या दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम, स्त्री हो या पुरुष भक्त, शिव को संहारक के रूप में जानने के बाद भी सबसे अधिक उन्हीं की अर्चना करते हैं। शिव शीघ्र तो प्रसन्न होते ही हैं, साथ ही अपना प्रसाद भी शीघ्र देते हैं। वे महायोगी हैं। योगीगण "अद्वैतम शिवं शान्त चतुर्ययम" की मीमांसा के साथ उन्हें जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति के बाद ब्राह्मी चेतना के बाद "तुरीय चेतना" के रूप में स्वीकार कर अपनी साधना को आगे बढ़ाते हैं तो लोक में उनकी आराधना "शिव और शक्ति के सायुज्य" (संयुक्त) रूप "लिंगम" अथवा मूर्तिरूप कैलाश पर निवास करने वाले उस महादेव के रूप में की जाती है जिनकी जटाओं में से "त्रिपथगामिनी गंगा" निकली है।
 योगियों और तांत्रिकों ने शिव के ब्रह्मस्वरूप का विवेचन किया है तो उनके भक्त  उनके विचित्र रूप को ईश्वर का विशिष्ट रूप मानकर "ॐ नमः शिवाय" का मंत्रपाठ करते हैं। इन सबके बावजूद बुद्धि के माध्यम से ईश्वरीय रहस्य को समझने वालों की अधूरी कोशिश उन प्रतीकों में छिपे शिव के स्वरूप के निहितार्थ को जानने की रही है। पर वे असफल ही रहे क्योंकि ईश्वर बुद्धिगम्य नहीं है।
 वरिष्ठ वैज्ञानिक रह चुके #प्रोफेसर #नादर के अनुसार शिव का लिंग रूप और गुण मानव मस्तिष्क का ही प्रतिरूप है जो जगत रूपी सारे शरीर का नियंत्रण करता है। अपने सामंजस्य की आदर्श अवस्था में वह परम शांत हो जाता है, चेतना की "तुरीय अवस्था" (आत्मावस्था) में पहुँच जाता है। शिवत्व में प्रतिष्ठित होकर पराचेतना, भगवतचेतना और ब्राह्मीचेतना का मार्ग प्रशस्त करता है। मस्तिष्क द्वारा ही विश्व की नियंता परम शान्त शुद्ध चेतना की अनुभूति #भावातीत #ध्यानयोग से होती है।
 प्रोफ़ेसर नादर ने अपने शोध में "लिंगम" को मस्तिष्क के रूप में ही प्रतिष्ठा नहीं की, बल्कि शिव के लौकिक रूप में मस्तिष्क के अंग-प्रत्यंग में स्थान सुनिश्चित किया है।
 भगवान शिव के हाथ में "त्रिशूल" है जो मानव मस्तिष्क के 'वेंट्रिकुलर सिस्टम' से हू-ब-हू मिलता है। यह सिस्टम को चलने-फिरने खासकर सिर के अचानक घूमने पर नियंत्रण करने में मस्तिष्क की मदद करता है।
 भगवान शिव के सिर पर जो  चाँद है, वह #हाइपोथैलामस से लिया गया है। वेंट्रिकुलर सिस्टम के  निकट स्थित यह भाग चय-अपचय, हार्मोन के स्राव, मनोभाव, वृद्धि एवं विकास को संयमित करता है।
 भगवान शिव के गले में पड़ी रुद्राक्ष की माला मस्तिष्क के #कोरॉयड #प्लेक्सस की अनुकृति है। कोरॉयड प्लेक्सस से 'सेरीब्रोस्पाइनल द्रव' स्रवित होता है जिसमें वेंट्रिकल डूबे रहते हैं। कोरॉयड प्लेक्सस से सेरीब्रोस्पाइनल द्रव वेंट्रिकल्स में उसी प्रकार झरता है जिस प्रकार गंगा और उसकी शाखाएं उसकी जटाओं से बहती हैं।
 गंगा का एक नाम "त्रिपथगा" भी है। वह तीन मार्गों से होकर गुजरती है, इसीलिए "त्रिपथगा" कहलाती है। वैदिक साहित्य में इसका दो प्रकार का संदर्भ आया है। पहला जब गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरती है, तब वह शिव की जटाओं में उलझकर सात धाराओं में विभाजित हो जाती है। इनमें से तीन धाराएं सुचक्षु, सीता और सिन्धु के रूप में पश्चिम की ओर तथा नलिनी, पावनी और आह्लादिनी के रूप में पूर्व की ओर जबकि स्वयं गंगा  राजा भगीरथ के रथ के साथ-साथ पृथ्वी पर बहती चली आती है। ये तीन वर्ग उसके तीन पथ हैं। गंगा के बारे में यह भी कहा जाता है कि वह स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल--तीनों क्षेत्रों में बहती है।
 मानव मस्तिष्क और शरीर विज्ञान में "कोरॉयड प्लेक्सस" से "सेरिब्रो स्पाइनल द्रव"  भी तीन दिशाओं में बहता है--दाहिने वेंट्रिकल् की ओर, बाएं वेंट्रिकल् की ओर और सेरिब्रोस्पाइनल द्रव तालु के मध्य चौथे वेंट्रिकल् की ओर। यही नहीं, गंगा की सात धाराओं के वैदिक उल्लेख के अनुसार वेन्ट्रीकुलर सिस्टम भी अंदर से दो एंटीरियर, दो पोस्टीरियर और चार हार्न्स से मिलकर बना है। गंगारूपी अंतिम धारा ब्रेनस्टेम और स्पाइनल कॉर्ड (सुषुम्ना नाड़ी) को भी आप्लावित करती है और इनके अंदर के अंगों में जाकर गंगा के पाताल जाने के वैदिक उल्लेख को प्रमाणित करती है।
 मस्तिष्क के मध्य में स्थित #पीयूष #ग्रन्थि को ही ऋषियों ने भगवान शिव के #तीसरे #नेत्र के रूप में निरूपित किया है। यह पीयूष ग्रन्थि प्रकाश के प्रति अत्यंत संवेदनशील है और #मेलाटोनिन नाम के ऐसे हार्मोन का स्राव करती है जिसका मनोभावों, जागृति, चेतना की अवस्थाओं से सम्बन्ध है। वेंट्रिकल्स में झिल्ली जैसी एक रचना है जिसे #स्पेक्टम #पेलूसिडम कहते हैं। यह भगवान शिव के डमरू से मेल खाती है।
 स्पैक्टम पेलूसिडम की भावना और प्रेरणा में महत्वपूर्ण भूमिका है। वेंट्रिकल् सिस्टम के सिर और गले के चारों ओर लिम्बक सिस्टिम अपने नाभिक  और फोर्निक्स के साथ स्थित है। ये अंग बेसिल गैंगेलिया का हिस्सा है और सहज तथा सामंजस्यपूर्ण गतिशीलता सुनिश्चित करता है। अपने बड़े सिर और लम्बी पूछ के कारण ये बिल्कुल शिव के गले में चारों ओर नाग जैसा रूप निर्मित करता है। तीसरा वेंट्रिकल् भी वेंट्रिकल् सिस्टम का हिस्सा है और मस्तिष्क के मध्य में स्थित है। आकार में वह भगवान शिव के कमण्डल की तरह है।
 भगवान शिव की पारंपरिक पूजा में उनके चारों ओर पूर्णवृत के बजाय अर्धवृत्त बनाये जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मस्तिष्क की आकृति अंग्रेजी के सी (C) अक्षर की तरह है। आज जो वैज्ञानिक अपने शोध और अनुसंधान से प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं, हमारे योगी प्राक्काल से ही अपनी समाधि अवस्था में उसे जान चुके थे और इसीलिए शिव का आकार, रूप, रंग और उनका पूरा स्वरूप उसी के अनुरूप प्रतिष्ठित किये थे।
 भगवान शिव के लिंग के रहस्य के बारे में अनेक भ्रांतियां हैं। अगर योग की दृष्टि से विचार किया जाय तो आदि ब्रह्म भगवान शिव ही हैं। उन्हें परब्रह्म माना गया है। आज पूरे विश्व में भगवान शिव की आराधना होती है, वह भी शिवलिंग के रूप में।
 परमेश्वर निराकार है। शिवलिंग उस परम तत्व परमेश्वर के निराकार रूप का प्रतीक है। लययोग में शिवलिंग के विषय में विशद विचार किया गया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश--इन पंचतत्वों के आदिदेव भगवान शिव ही हैं। कुण्डलिनी शक्ति के रहस्य में भी शिवलिंग है। गुदा के ऊपर और लिंगमूल के नीचे सुषुम्ना नाड़ी के पास रक्तवर्ण चतुर्दल है। उस दल की कर्णिका नीचे यानी अधोमुख है। स्वर्ण आभा से युक्त इन दलों में से प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा है और व, श, ष, स इन चार वर्णों का स्थान है। इस पद्यकर्णिका के चारों ओर कोणरूपी पृथ्वी मण्डल है जो कि पीतवर्ण, उज्ज्वल, कोमल तथा अष्टकोण द्वारा आवृत्त है। उस मण्डल के बीच में पृथ्वी बीज #लं है। आधार पद्य की कर्णिकाओं के मध्य में बज्रा नाड़ी के मुख में त्रिपुरसुंदरी अधिष्ठान रूपी एक त्रिकोण शक्तिपीठ स्थित है जो कामरूप, कोमल और विद्युत के समान तेजपुंज के रूप में प्रस्फुटित है। इसी त्रिकोण के मध्य में व्याप्त है--#कंदर्प नामक प्राणवायु। कंदर्प प्राणवायु पूर्ण रूप से कामरूप है। उसी त्रिकोण के मध्य में #स्वयंभू #लिंग विद्यमान है। सर्प के समान कुण्डली मारकर विद्युत प्रकाशमय अपने मुख में स्वयम्भू लिंग के ऊपर आवृत्त होकर निद्रा में रहता है। जब साधक कुण्डलिनी जागरण के समय मूलाधार स्थित इस पद्य को देखता है तो पृथ्वी तत्व उसके भीतर त्रिकोण पीठ में उस स्वयम्भू शिवलिंग की अनुभूति करता है।
  तंत्र में कहा गया है कि आकाशरूप लिंग है और पृथ्वी रूपिणी जगदम्बा उनकी पीठ (अरणी) है। समस्त जगत, ब्रह्माण्ड और देवों का स्थान लय होने के कारण उसका नाम #लिंग है। लिंग और अर्घा की देवी जगदम्बा दोनों मिलकर साक्षात शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप है। इसी में प्रकृति का विकास और लय हो रहा है हर समय। इसीलिए शिव को आदिदेव "महादेव" कहा गया। इनकी आराधना में साधक सर्वत्र व्याप्त निर्गुण, निराकार सत चित आनंद की सत्ता के साथ निर्विकल्प समाधि में प्रवेश कर जाता है।
 मनुष्य, शरीर और जीवन विश्व की सबसे बड़ी इकाई है। कोई देव इनसे बड़ा नहीं है। देखा जाय तो मनुष्य ही सबसे बड़ा देव है और उसे अपनी ही शिवरूप में पूजा-अर्चना स्वयम करनी चाहिए। "देवो भूत्वा देवम भजेत"।
 उपनिषद में प्रजनन विधान को #यज्ञ कहा गया है। प्रजनन-विज्ञान चराचर प्राणियों में नर-नारी के मिथुन संयोग से उतपन्न होता है। प्राचीनकाल के पुरुषों का ध्यान नर-नारी के गुह्य प्रजनन अंगों और उनके महत्व की ओर गया था। कहा जाता है कि प्रजनन विधान को पवित्र और धार्मिक रूप भगवान शिव ने दिया था। उन्होंने कामशास्त्र और तंत्रशास्त्र की रचना की और उसका सारा रहस्य महादेवी पार्वती को प्रथम शिष्या बनाकर समझाया था।
  कहा और माना जाता है कि प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक स्त्री अपने आप में अधूरी है। लेकिन यदि गहराई में विचार किया जाय तो हम देखेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में पूर्ण है। हर व्यक्ति के मूल में प्रथम सेल का जो सूक्ष्म जीवाणु है वह "एकोS हम बहुस्याम" के सिद्धांत को चरितार्थ करता है और उसी में "पूर्णमदः पूर्णमिदम" की घटना घटित होती है।
  मिथुन का अर्थ है--युग्म या जोड़ा या युगल। जोड़े के संयोग की क्रिया को ही "मैथुन" कहा जाता है। इस क्रिया में दो सेल मिलकर एक सेल निर्मित करती हैं। इनमें से एक सेल लिंग या शुक्र और दूसरी है डिम्ब या योनि। इस क्रिया में दो व्यक्तियों (पुरुष और स्त्री) के शरीर से एक जनक सेल और दूसरी जननी सेल निकलकर और परस्पर मिलकर एक संयुक्त (अर्धनारीश्वर) सेल निर्मित करती हैं। नए व्यक्ति का वही आधार सेल होती है, वही मूल सेल होती है। वह सेल फिर टूट-टूट कर असंख्य सेलों में विभक्त होती जाती है और नए स्थूल शरीर का ढांचा निर्माण करती है। वीर्याणु लिंगाकार होता है और डिम्ब की अनुरूपता योनि पीठिका से मिलती-जुलती है।
  अत्यन्त प्राचीन काल में इसी गुह्य वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रजनन आधार पर नर-नारी की गुह्य इन्द्रियों का पूजन आरम्भ हुआ जिसका आरम्भ भगवान शिव से हुआ। इसलिए लिंगोपासना में संसार की सभी प्राचीन जातियों के नर-नारियों में #शिव को सम्मलित किया गया। लिंगपूजन को #शिवलिंगार्चन का रूप दिया गया। फिर लिंग का धार्मिक अर्थ किया गया--"लयनाल्लिंगमुच्यते"।

           

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